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मित्रों , सुप्रभात | यह रचना है कुरुवंश के दरबार में जब पांडव द्यूत गृह में कौरवों से हार जाते हैं और इस हार जीत के खेल में इतिहास की यह पहली घटना है जब एक नारी को भी दांव पर लगाया जाता है | द्रोपदी को दुशासन खींच कर सभा में ले आता है | और फिर द्रोपदी सभी कुरुवंशी अपने अग्रजों को धिक्कारती है | तो लीजिये यह रचना आपके अवलोकन हेतु ||
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हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित
वस्तु समझ कर नारी को यूँ करते हो क्यूँकर अपमानित ||

अस्मत आज भले ही मेरी, लूट रहे हैं वंशज मिलकर
कल इतिहास बनेगा यह दिन, थूकेगा जग हर कौरव पर
अंधों की मर्यादा का क्या अवलोकन मै करूँ धृष्ट जी
अर्ध अंग गांधारी जिसकी आँख ढके हो खड़ी बराबर ||

क्या अभिवादन दूं , मै तुमको वीर कहूँ या धर्म पराजित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

तुमको भी धिक्कार युधिष्टिर बड़े धर्म के अनुयायी हो
तुम तो उठ जाते झुक जाते इन सबके अग्रज भाई हो
कैसे तुमने स्वाभिमान की बलिवेदी पर मुझे लुटाया
भूल गए वह वचन कहा था तुम तो मेरी परछाई हो ||

पांचाली का प्रेम शब्द तो रहा हमेशा ही अविभाजित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

गुरुवर द्रोंण आपको भी मै अपराधी घोषित करती हूँ
एकलव्य के शोषण कर्ता हो मै ,परिभाषित करती हूँ
अपनी बेटी को क्या ऐसे सार्वजनिक देख सकते थे ?
सब हैं शिष्य आपके गुरुवर धन्य- धन्य बोधित करती हूँ

ज्ञान आपका द्रोंण आज ये कर्म कर रहा है अति घृणित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

कृपाचार्य जी क्या बोलूं मै अजर -अमर जीवन धारी को
शरण आपकी आने से क्या मोक्ष मिलेगा इस नारी को ?
राजनीति को ख़ाक पता होगा पांचाली का यह रूदन
पंडित होकर भी जिस मन पर धर्म विरोधी किलकारी हो ||

आचार्यों की दृष्टि झुकी ज्यूँ अन्ध वंश को हुयी समर्पित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

क्या बोलूं मै भीष्म आपकी प्रतिज्ञा के समझौते को
मुझे पता है नहीं रोक सकते हो तुम अपने पोते को
जिसने अपनी प्रतिज्ञा की खातिर अम्बा को रुलवाया
दुशासन की दुष्ट नीति पर आप मौन साध देते हों ||

हे गंगा के पुत्र भीष्म जी रख लो नया पाप यह अर्जित
हे कुरुवंशी राज्यसभा में सम्मानित जन मंच विराजित ||

हे द्वारिका देश के वासी मेरे सखा कृष्ण गिरधारी
आज लाज की भीख मांगती तुम्हे पुकारे भक्त तुम्हारी
मेरे पञ्च परम परमेश्वर लगा गए दांव पर मुझको
अब तू ही है, मेरा जिस पर भार भरोषा है बनवारी

मेरी लाज आज रखले तू मेरे केशव धर्म सुरक्षक
तेरी कृष्णा तुझे पुकारे - कृष्ण मेरे हे सच्चे मालिक ||

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Comment by Manoj Nautiyal on February 19, 2013 at 5:53pm

सभी मित्रों का कोटो कोटि आभार || सौरभ जी मै कोशिश करूँगा की आपकी अभिलाषा को शीघ्र पूर्ण कर सकूं |

Comment by वेदिका on February 19, 2013 at 3:57pm

प्रभावकरी उपालंभ ..... दुखी मनोदशा  में भी नीतिगत उत्तर ... केवल दायित्व और अधिकार को इंगित किया गया .. 

किंचित भी ह्रदय को ठेस नही पहुंचाई द्रौपदी के आलाप में ... 

मार्मिक!

शुभकामनायें !  


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 19, 2013 at 3:34pm

भाई मनोजजी, आपकी रचना का विन्यास अत्यंत प्रभावकारी है. इस प्रवाहमय कविता के लिए हार्दिक धन्यवाद.

पांचाली की व्यथा की घड़ी को आपने पंक्तियों में साकार किया है. आप विश्वास करें, मैं, किंतु, उक्त घड़ी में उपस्थित जनों पर प्रहार के अलावे उन जनों के संदर्भ में पांचाली की मनोदशा को पढ़ना चाहता था. आपकी लेखिनी में वह शक्ति है. वैसे यह रचना भी आपकी गहन वैचारिकता को सामने लाती है.

इस रचना के लिए साधुवाद.

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 19, 2013 at 2:16pm

द्रोपदी विरह का काव्यमय वर्णन का अच्छा प्रयास किया है, बधाई मनो नौटियाल जी 

Comment by Dr.Ajay Khare on February 19, 2013 at 12:00pm

manoj ji aapki vyatha marmsparshi hai lekhan badhiya hai badhai

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