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एक ताज़ा ग़ज़ल: निर्मल नदीम

ज़िन्दगी की राह में इसके सिवा कुछ भी नहीं।
आदमी को सूझता अच्छा बुरा कुछ भी नहीं।

वो नुमाइश का चला है दौर जिसके सामने
अहल ए दिल कुछ भी नहीं अहले वफ़ा कुछ भी नहीं।

वक़्त यूँ खामोशियों की तर्जुमानी कर गया,
उसने सब कुछ सुन लिया मैंने कहा कुछ भी नहीं।

बेरुखी की हद से आगे की थी उसकी बेरुखी
मैंने पूछा- क्या हुआ, उसने कहा- कुछ भी नहीं।

हर क़दम पर तुमने मेरे इश्क़ को रुस्वा किया
फिर भी मेरे दिल में है शिक़वा गिला कुछ भी नहीं।

मैंने सारा ज़हर नफ़रत का ख़ुशी से पी लिया
देख लो फिर इसके आगे क्या हुआ, कुछ भी नहीं।

इक तुम्हारी जुस्तजू में सारी दुनिया घूम ली
बस तुम्हारे ही सिवा देखा सुना कुछ भी नहीं।

इश्क़ करने का कोई इल्जाम मेरे सर न दो
दिल ने मुझसे था कहा मैंने किया कुछ भी नहीं।

आजकल के दौर में ऐसा ही देखा है जनाब
बस दवा ही कारगर है और दुआ कुछ भी नहीं।

इश्क़ क्या है सिर्फ अपनी जाँ का सदक़ा है नदीम
और इसके बाद अपना सोचना कुछ भी नहीं।

अरकान: फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

निर्मल नदीम (मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 26, 2015 at 12:35am

इस ज़मीन की ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधाइयाँ. आपकी मेहनत रंग लायेगी.. 

शुभेच्छाएँ

Comment by Nirmal Nadeem on May 17, 2015 at 12:15pm
आ नीलेश सर। आपकी बातों का ख़याल करूँगा। भाई मिथिलेश जी ये एक संयोग हो गया है। अल्लाह का शुक्र है कि चरबा नहीं हुआ।
Comment by Nirmal Nadeem on May 17, 2015 at 12:13pm
आप सब का मशकूर ओ ममनून हूँ। अल्लाह खुश रखे।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 16, 2015 at 9:45am

वक़्त यूँ खामोशियों की तर्जुमानी कर गया,
उसने सब कुछ सुन लिया मैंने कहा कुछ भी नहीं।

आजकल के दौर में ऐसा ही देखा है जनाब
बस दवा ही कारगर है और दुआ कुछ भी नहीं। -- आदरणीय पूरी गज़ल बहुत शानदार कही है , दिल से बदाइयाँ स्वीकार करें । ऊपर के दो शे र मुउझे खूब पसंद आये ! हार्दिक बधाई आपको ।

Comment by Hari Prakash Dubey on May 16, 2015 at 9:41am

इश्क़ करने का कोई इल्जाम मेरे सर न दो
दिल ने मुझसे था कहा मैंने किया कुछ भी नहीं।.....बहूत खूब  आ. निर्मल नदीम जी , हार्दिक बधाई  आपको इस  रचना पर ! सादर 

Comment by वीनस केसरी on May 16, 2015 at 1:15am

वाह वा
एक एक शेर कीमती है भाई जी
दिल खुश कर दिया
बेपनाह खूबसूरत ग़ज़ल हुई है

Comment by Samar kabeer on May 15, 2015 at 10:59am
जनाब निर्मल नदीम जी ,आदाब,पहली बार आपकी ग़ज़ल से रू ब रू हुवा हूँ ,बहुत ही ख़ूबसूरत ग़ज़ल कही है आपने भाई ,सुनकर दिल बाग़ बाग़ हो गया ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on May 15, 2015 at 1:52am

आदरणीय निर्मल भाई जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है दाद कुबूल फरमाएं 

आदरणीय निलेश जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ. इब्तदा से एक गाफ़ कम करने से बह्र-ए-रजज़ बदलकर बह्र-ए-रमल तो हो गया मगर जनाब बशीर बद्र साहब और महान गायक जगजीत सिंह भुलाए नहीं भूलते.

सादर.

Comment by shree suneel on May 14, 2015 at 9:43pm
आदरणीय निर्मल जी, इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिये हार्दिक बधाई आपको.
Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 14, 2015 at 3:06pm

आदरणीय नदीम जी ..इस ग़ज़ल को गुनगुनाने में बाद सुकून मिला ..हर शेर उम्दा ..काबिले तारीफ़ इस ग़ज़ल के ढेरों मुबारक बाद सादर 

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