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एक पहाड़ी स्त्री का दर्द

 

मेरे और उनके बीच
एक पारदर्शी दीवार खड़ी है.
वे हँसती, ठिठोली करती
कभी बुरांश की लाली को छेड़ती
चाय के बागानों में उछलती कूदती
मुझे बुलाती हैं –
मैं पारदर्शी दीवार के इस पार
छटपटाकर रह जाती हूँ.

जब काले-सफेद बादलों के हुजूम
आसमान से उतरते, वादियों से चढ़ते
उन्हें घेर लेते,
वे ओझल हो जाती हैं और,
मैं प्यासी, बोझिल ह्र्दय ले
पारदर्शी दीवार के इस पार
छटपटाकर रह जाती हूँ.

 

बादल तिरते और तैरते हुए
दूर निकल जाते हैं
मुझे फिर से उनकी खिलखिलाहट सुनाई देती है
वे वादियों के उस पार
पहाड़ की ढलान पर चढ़ते हुए
उन चोटियों को छूना चाहती हैं
और मुड़-मुड़ कर मुझे कहती हैं
‘आओ, हम साथ छूएँ उन ऊँचाईयों को’
मैं पारदर्शी दीवार के इस पार
मूक दर्शक बन
छटपटाकर रह जाती हूँ.

 

पगडंडियाँ बनती, मिटती और फिर बनती
नयी नयी दिशाओं में फैल रही हैं
मेरे पैर अटक गए हैं
रिवाजों और रूढ़ियों के दलदल में –
कोई मेरा हाथ पकड़ो
इस दलदल के बाहर पैर रखने की जगह दो
मैं पारदर्शी दीवार को तोड़
नयी पगडंडियाँ बनाऊंगी,
नयी ऊँचाईयों तक –
यह मेरा वादा है.

.

मौलिक व अप्रकाशित

Views: 580

Comment

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Comment by Samar kabeer on July 31, 2015 at 10:55pm
मैं शाइरी का दिल दादा हूँ, फिर वो कविता में हो या ग़ज़ल में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 31, 2015 at 10:33pm

प्रिय गनेश लोहानी जी, रचना पर आने के लिए धन्यवाद लेकिन समझ में नहीं आया कि आप केवल बुरांश की लाली पर ही रुक गए या कि पूरी रचना को पढ़ने का कष्ट किया है. सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 31, 2015 at 10:30pm

आदरणीया कांता जी, मेरी रचना के साथ आपका एकात्म होना मुझे पुरस्कृत कर रहा है. हृदय से आभार. सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 31, 2015 at 10:26pm
आदरणीय मिथिलेश जी, हार्दिक आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by sharadindu mukerji on July 31, 2015 at 10:25pm
आदरणीय समर कबीर जी, रचना आपको पसंद आयी, मैं पुरस्कृत हुआ - विशेष इसलिए कि आपको साधारणत: ग़ज़ल पर ही टिप्पणी करते देखता हूँ. सादर
Comment by ganesh lohani on July 30, 2015 at 2:40pm

बुरांश की लाली 

Comment by kanta roy on July 29, 2015 at 5:53pm
जाने ऐसा लगा की वो पारदर्शी शीशे के पीछे मै ही खडी थी... ये आवाज मैने ही लगाई है वहाँ से..
उस दीवार को तोडने की एकदिन मैने ही ख्वाहिश की थी... बेहतरीन रचना आदरणीय शरदेंदू जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on July 28, 2015 at 12:48pm

आदरणीय शरदिंदु मुकर्जी सर, इस गहन प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है. सादर नमन 

Comment by Samar kabeer on July 28, 2015 at 11:21am
जनाब शारदिन्दु मुकर्जी जी,आदाब,इस सुन्दर प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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