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 सुबह  अचानक एक  सपने से उनकी नींद टूट गई    I बडा अजीब सपना था I बेटी  रिनी खाई में गिरी है, ,जोर जोर से चिल्ला रही है ,पर वो उसे बचा नहीं पा रहे हैं I   उन्होंने समय देखा I  सुबह के चार बजे थे I हल्की  ठण्ड के बावजूद माथे पर पसीना था I धीरे से उठ कर वो आगे कमरे में आ गए I   23 साल की बेटी  रिनी ,बेफिक्री से सो रही थी I उसके बच्चों जैसे मासूम  चेहरे को देखते हुए वो धीरे से कुर्सी पर बैठ गए और लैप टॉप खोल लिया I

परसों ही उनके दोस्त शर्मा जी का दिल्ली से फोन आया था I उनकी बेटी का रिश्ता इसी शहर के संपन्न और नामी परिवार के बेटे के साथ तय हो गया था I शर्मा जी बहुत उत्साह में थे I उस संपन्न परिवार और उनके बेटों की हकीकत से वो परिचित थे, पर फोन में अपने भोले मित्र से कुछ कह नहीं पाए थे वो I रह रह कर शर्मा जी और उनकी बेटी का चेहरा उनकी आँखों के आगे घूम रहा था I पत्नी का मानना था कि ऐसे पचड़ों से दूर रहना बेहतर है i

अब लैप टॉप के की बोर्ड पर उनकी उंगलियाँ चलने लगी थीं Iतीन दिन से दिमाग़ में शर्मा जी को भेजने के लिए जो  ईमेल का मजमून  घूम रहा था , वो  धीरे धीरे  शक्ल लेने लगा  I तीन चार बार उसे दोहराया उन्होंने I सेंड पर क्लिक करने के पहले उंगलियाँ फिर ठिठक गईंI बाहर ठण्ड बढ़ गई थी I रिनी का लिहाफ एक तरफ गिरा पड़ा था और वो  घुटनों को पेट से चिपकाये जलेबी बनी हुई  थी I वो धीरे से उठे ,बेटी को अच्छी तरह लिहाफ उढा दिया और खिड़की बंद कर दी I कुर्सी पर वापस बैठते हुए  उनके  दिमाग़ में कोई द्वन्द नहीं था I सेंड पर क्लिक किया और बाहर देखने लगे I प्राची में सुबह की लालिमा दिखने लगी थी I

मौलिक व् अप्रकाशित 

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Comment by pratibha pande on November 22, 2015 at 2:26pm

आप ने कथा पढ़ कर मेरा उत्साहवर्धन किया ,आपका हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज जी  

Comment by pratibha pande on November 22, 2015 at 2:23pm

उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 20, 2015 at 8:01am

आदरणीया प्रतिभा जी ,  मन के उथल पुथल का सपने मे आना , स्वप्न मनोविज्ञान पर आधारित आपकी लथा बहुत अच्छी लगी , हार्दिक बधाई ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 19, 2015 at 10:53pm

इस लघुकथा को मैं दिमाग से नहीं दिलसे पढ़ गया. यही इसकी मांग है. मनोभावों और दैहिक भंगिमाओं का लघुकथा के दायरे में जैसा निर्वहन हुआ है वह प्रस्तुति की विशिष्टता की तरह उभर कर बाहर आया है. हृदय से बधाइयाँ अशेष शुभकामनाएँ

 

Comment by pratibha pande on November 18, 2015 at 9:44am

आदरणीय उस्मानी जी ,कथा के मर्म पर जाकर सुन्दर टिपण्णी से उत्साहवर्धन करने के लिए आपका हार्दिक आभार 

Comment by pratibha pande on November 18, 2015 at 9:40am

आपको कथा पसंद आई ,मेरे लिए ख़ुशी की बात है ,आपका हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर जी 

Comment by pratibha pande on November 18, 2015 at 9:33am

रचना पर आकर उत्साहवर्धन और सराहना करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी 

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 18, 2015 at 9:33am
अक्षर शब्द को अक्सर पढ़े कृपया
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on November 18, 2015 at 9:31am
हार्दिक बधाई आदरणीया प्रतिभा जी इस उम्दा रचना के लिए।अक्षर हमारे कारण अज्ञानता से हुआ किसी का भी अपकार सालता रहता है और यदि ऐसा जानबूझकर कर दिया जाए तो आत्मग्लानि ठीक से जीने नहीं देती।
Comment by pratibha pande on November 18, 2015 at 9:31am

प्रिय राहिला जी ,रचना पसंद करने और सुन्दर टिपण्णी के लिए आपका तहे दिल से आभार 

कृपया ध्यान दे...

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