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"झिलमिल धूप"/कविता - अर्पणा शर्मा, भोपाल

सर्द सिहराती शिशिर की सुबह,
भेदकर कर कोहरे की नजर,
ओसकणों को चुंबन देकर,
मेरे आँगन धूप उतर आई थी ,
गुनगुनी, ऊष्म, स्नेहिल ज्यों
एक प्रेमालिंगन ले आई थी,
रूपहली-सुनहरी सुरमाई सी,
सूर्य वधु ज्यों प्रातः लेती अंगड़ाई सी,

ये दुछत्ती खिल जाये प्यारी,
महके छोटी सी मेरी फुलवारी,
धूप ने धूम मचाई थी,
चंपा, चमेली, सेवंती की बहार सी,
गेंदे, गुलाब, हरसिंगार भी,
ज्यों सुंदरी रंगीली चुलबुलाई सी,

धूप घुस आती हर दर्रे में,
दरारों से भी झाँक आई सी,
रेगिस्तानी बीहड़ों में छितराये,
प्रियतम की रूसवाई सी,
ऊँचे उत्तुंग गिरी पर पसर जाती,
ज्यों भरी दोपहरी में अलसाई सी,
चमक उठे हिम शिखरों पर,
चीड़, देवदार, कचनार सी,
जलधि में अठखेलियाँ करती,
लहरों पर डूबती-उतराई सी,
जलकण यूँ चम-चम चमकें,
ज्यों सितारों को धूप पहन आई सी,

हर मौसम में मिजाज दिखाती,
ज्यों प्रियतम की मुँह लगाई सी,
सावन में घिरती घुप्प घटाओं से,
करती हाथापाई सी,
छिपी-छिपी, लुकाती, सकुचाती,
ज्यों घूँघट में नववधू शर्माई सी,
सर्द हवाओं में ऊष्मा बिखेरे,
ज्यों वफा इश़्क में आजमाई सी,
पूस में लड़खड़ाये शतायु वृद्ध सी,
ज्येष्ठ में उत्प्त, तमतमाई सी,
कार्तिक में स्नेहिल, पुलकित,
ज्यों प्रथम-प्रेम के आगोश में,
इक नवयौवना भरमाई सी,

धूप बिन ये जीवन कहाँ,
इससे ही हैं अपने दोनों जहाँ,
धूप बिन न दिन-रात चले,
धूप बिन न कोई अन्न फले,
धूप बिन न ऋतुएं आऐं,
हम सब इससे ऊर्जा पाऐं,
धूप बिन न चंदा चमके,
रखे यही उसे चमकाये थी,

धूप अनगिन रूपाभ तरंगिणी,
कभी जख्मों को सहलाती सी,
घनघोर तमस में चमकारी सी,
किसी सद्धप्रसूता के ह्रदय पर,
नवजात की किलकारी सी,
कभी बेतरह तपन और जलन,
कभी नवयुवती की लुनाई सी,
कभी विरह अश्रुबूंदों पर चुंबन,
मानो एक उज्ज्वल हँसी,
हर ओर खिलखिलाई सी,
खूब फले-फूले धूप से ,
प्रकृति किलकती, मुस्काई सी...!!
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment by Arpana Sharma on December 17, 2016 at 11:46pm
आदरणीया राजेश कुमारी जी - आपके सह्रदय प्रोत्साहन का बहुत आभार, सादर अभिनंदन ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 15, 2016 at 6:16pm

झिलमिल धूप बहुत सुंदर बहुत खूब दिल से बधाई लीजिये अर्पणा जी 

Comment by Arpana Sharma on December 2, 2016 at 4:11pm
आ.गिरीराज भंड़ारी - मेरी कविता पर आपकी शुभकामनाओं का बहुत आभार ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 2, 2016 at 10:07am

आदरणीया अर्पना जी , बहुत अच्छी लगी आपकी कविता , हार्दिक बधाई

Comment by Arpana Sharma on November 29, 2016 at 3:46pm
श्रीमान् विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी जी - आपकी शुभकामनाओं का बहुत आभार ।
Comment by Arpana Sharma on November 29, 2016 at 3:45pm
आदरणीय समर कबीर साहब जी - आपकी आत्मीय सराहना और शुभाशीष का असीम धन्यवाद ।
Comment by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on November 28, 2016 at 10:56pm
आ. अपर्णा जी!
धूप की पृष्ठभूमि में प्रकृति का बेहतरीन मानवीयकरण किया है आपने. बधाई।
Comment by Samar kabeer on November 27, 2016 at 9:34pm
मोहतरमा अर्पणा शर्मा जी आदाब, सर्द झोंकों में लिपटी हुई,झिल मिल धूप की तरह अच्छी लगी आपकी कविता,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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