"आंटी जी, अगर उस दिन आप ने शिंदो के सर पर हाथ न रखा होता तो पता नहीं ये कहाँ होती।" रज्जो ने कहा
कीमत तो इसकी पहले ही लग चुकी थी,बस उस दिन तो पैसे देने थे, मालिक को ।
शिंदो को तो इस बारे कुछ पता ही नही था।“भला हो उस के साथ डांस पार्टी में काम करने वाली का”,रज्जो ने बात बढ़ाते हुए कहा।
"उसने बता दिया,वरना पता नहीं कहाँ कहाँ बिक गई चुकी होती, अब तक ।
जब मालिक ने कहा कि कल वह किसी और डांस पार्टी के साथ काम करेगी " तब उसे खनक गई थी,कि इस के आगे़ क्या होने वाला है।
"तब शिंदो को मैं आप के पास ले आई,मुझे बस यही अच्छा लगा,क्यूँ ?
आंटी जी, ठीक किया मैने "
“घर तो पहले ही छूट चुका था,अमली पती ने निकाल घर से निकाल दिया था , कि उस नए छोड़ दिया , इस का फैसला भी वह नही कर सका था.
माँ बाप तो पहले ही किनारा कर चुके थे, बच्चे के साथ जाती भी तो कहाँ ?”रज्जो ने उसे पास बुलाते हुए कहा।
"चलो कोई नहीं, अब शिंदो, तुम आंटी के पास हो, चाय पी और भूल जा सब कुछ।
फिर शिन्दों का ध्यान शेल्फ़ पे रखी गुरु जी की तस्वीरों पर पड़ा और उनके आगे उस नमन किया l मगर जिस काम के लिए रज्जो ने उसे यहाँ मनाया था, उसने इस काम को तो पहले ही न कर दी, मगर फिर उसे लगा, अगर कोई और काम उसे कोई न देगा तो , अगर पहले जैसा मिल गया ..... l इसी सोच में वह गुम थी .
माँ बाप के घर वह जा नहीं सकती थी l
इस लिए उस ने अनमने मन से आंटी का कहा मान लिया l मगर शिंदो के मन में पता नहीं क्या क्या चल रहा था? शिंदो ने अभी चाय का कप रखा तो बाहर इक मोटर साईकल आ कर रुकी। " रज्जो, गाहक आ गया, शिंदो को भेज दो।"आवाज़ ने कहा
उस के अंदर जाते ही इक तरफ का दरवाज़ा बंद हो गया , उसे लगा जैसे जिंदगी की सोच के सभी दरवाजे बंद हो गए हों ।
मगर अचानक सोच का दरवाज़ा खुला, वह बैठक बिस्तरे की तरफ जाने की बिजाए बाहर जाने वाले दरवाज़े से जाती हुई , दरवाज़े को ज़ोर से बंद कर गई।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
जनाब मोहन बेगोवाल जी आदाब, लघुकथा का अच्छा प्रयास है, बधाई स्वीकार करें ।
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