आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन .. नया साल मंगलमय हो !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ उन्नीसवाँ आयोजन है.
इस बार का छंद है -
गीतिका छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ –
20 मार्च 2021 दिन शनिवार से 21 मार्च 2021 दिन रविवार तक
कोरोना काल की भयावहता के बाद यह पहला फागुन, पहली होली होने जा रही है. इस तौर पर हम प्रकृति के स्वस्थ, मनोहर के साथ-साथ विहंगम स्वरूप को नमन करें.
हम आयोजन के अंतर्गत शास्त्रीय छन्दों के शुद्ध रूप तथा इनपर आधारित गीत तथा नवगीत जैसे प्रयोगों को भी मान दे रहे हैं. छन्दों को आधार बनाते हुए प्रदत्त चित्र पर आधारित छन्द-रचना तो करनी ही है, दिये गये चित्र को आधार बनाते हुए छंद आधारित नवगीत या गीत या अन्य गेय (मात्रिक) रचनायें भी प्रस्तुत की जा सकती हैं.
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
गीतिका छंद के मूलभूत नियमों से परिचित होने के लिए यहाँ क्लिक करें
चित्र अंतर्जाल से
जैसा कि विदित है, कईएक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती है.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो 20 मार्च 2021 दिन शनिवार से 21 मार्च 2021 दिन रविवार तक, यानी दो दिनों के लिए, रचना-प्रस्तुति तथा टिप्पणियों के लिए खुला रहेगा.
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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जय-जय
घाटियों का दृश्य अनुपम सृष्टि के आगोश में।
देख जिस को मुग्ध द्रष्टा रह न पाये होश में।।
चहुँ दिशा लावण्यता से स्वर्ग सी लगती धरा।
है लिए कणकण जवानी त्यागकर देखो जरा।।
लग रही उज्ज्वल धवल घाटी निखर के धूप से।
मोहती है मन पथिक का इंद्रधनुषी रूप से।।
सर्पिणी सी दिख रही पगडण्डियाँ मैदान में।
अन्न ढेरी सूखती सी दिख रही दालान में।।
मौसमी बहती नदी का दिख रहा है पाट कम।
किन्तु उसकी तलछटों से है बनी ये भूमि सम।।
मेढ़ से आकार पाकर खेत लगते क्यारियाँ
कर रही नर्तन जहाँ पर स्वर्ण रूपी रश्मियाँ।।
दृष्टि जाती है जिधर तक है असीमित रम्यता।
भूमि पावन इसलिए तो वास करते देवता।।
धूप बढ़ती प्रातः चढ़ जब रश्मियों की सीढ़ियाँ
जागती तब कुनमुना कर पर्वतों की घाटियाँ।।
सुख भरा जीवन लगे है पर्वतों की गोद में।
पर नहीं इतना सरल भी नित रहें आमोद में।।
मुक्त जीवन है धुएँ से है कुहासा भी नहीं।
देख मन करता बसूँ जाकर हमेशा को वहीं।।
मौलिक/अप्रकाशित
मुक्त जीवन है धुएँ से है कुहासा भी नहीं।
देख मन करता बसूँ जाकर हमेशा को वहीं।।..........आज के समय में प्रत्येक शहरवासी की आशा है प्रदूषण मुक्त वातावरण । जिसे आपने चित्र में वह देखा और सहजता से छंद के माध्यम से अपनी भावना व्यक्त की है ।
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, प्रदत्त चित्र पर सभी छंद आपने सुन्दर रचे हैं। हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
आ. भाई अशोक जी, स्नेह के लिए सादर आभार...
आदरणीय लक्ष्मण भाईजी
क्या कहना,कुछ भीछूटा नहीं चित्र और भावनाओं का सम्पूर्ण वर्णन किया है आपने। हृदय से बधाई।
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, क्या ही सुंदर संयोजन हुआ है !
चहुँ दिशा लावण्यता से स्वर्ग सी लगती धरा।
है लिए कणकण जवानी त्यागकर देखो जरा।। .. वाह वाह .. क्या ही उत्फुल्ल करती पंक्तियाँ हुई हैं
लग रही उज्ज्वल धवल घाटी निखर के धूप से ... यहाँ ’के’ के स्थान पर ’कर’ का होना न केवल भाषा के तौर पर बल्कि प्रवाह के तौर पर भी उचित होता. वैसे बोलचाल के आलोक में ’के’ गलत नहीं है.
धूप बढ़ती प्रातः चढ़ जब रश्मियों की सीढ़ियाँ ... धूप चढ़ती भोर में जब रश्मियों की सीढ़ियाँ ..
वस्तुतः, विसर्ग की मात्रा दो होती है. इस कारण पंक्ति का विन्यास अशुद्ध हो रहा था.
आपकी इस अभिलाषा की विवशता किंतु तीव्रता को हम सभी अनुभव कर रहे हैं..
बहुत ही सार्थक रचना से आपने आयोजन को लाभान्वित किया है, आदरणीय.
शुभातिशुभ
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन । चित्रानुरूप सुन्दर छन्द हुए हैं । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी सादर, प्रस्तुत छंद रचना की सराहना के लिए आपका हृदय से आभार. सादर
आदरणीय अशोक भाईजी
पैनी दृष्टि डाली है आपने चित्र पर और छंद भी खूबसूरत रचे हैं , हृदय से बधाई ।
प्रस्तुत छंदों की सराहना के लिए आपका बहुत-बहुत आभार आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव साहब. सादर
आदरणीय अशोक भाईजी, आपने चित्र को एक अलग ही आयाम से देखने का प्रयास किया है.
चित्र की विहंगमता तथा हरीतिमा की व्यापकता की गोद में धूप की कोमलता को आप रंग का पर्याय जीने की बात कर रहे हैं. यह प्रदत्त चित्र की भावना को और विस्तार देना ही कहलाएगा.
रचना के कथ्य तथा संयोजन के प्रति हार्दिक धन्यवाद.
शुभातिशुभ
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