आदरणीय साहित्य प्रेमियो,
जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-129
विषय - "कैसे कैसे लोग"
आयोजन अवधि- 17 जुलाई 2021, दिन शनिवार से 18 जुलाई 2021, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.
ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन ’घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.
उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --
तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.
अति आवश्यक सूचना :-
रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.
आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.
इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.
रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो - 17 जुलाई 2021, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।
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मंच संचालक
ई. गणेश जी बाग़ी
(संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक)
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सादर अभिवादन।
पहली प्रस्तुति - दोहे
कैसे कैसे लोग ये, खुश जो होकर लाश
इनमें से कुछ गिद्ध सा, मौका रहे तलाश।१।
*
एक निवाला बाँटकर, मान रहे जो छीन
कैसे कैसे लोग ये, हैं तन मन से हीन।२।
*
मैली रखते जिन्दगी, कैसे कैसे लोग
बेटी को भी भोगते, लिए हवस का रोग।३।
*
कैसे कैसे लोग कुछ, बने विवश हो चोर
कुछ आये हैं शौक से, कहते हैं इस ओर।४।
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कैसे कैसे लोग हैं, रख दौलत की खैर
जीवन जीना चाहते, कर अपनों से बैर।५।
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कैसे कैसे लोग अब, पाले हैं बस खोट
भरे खजाने खूब हैं, फिर भी लूट खसोट।६।
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चतुर हुए है आजकल, कैसे कैसे लोग
सज्जनता की ओट में, दुर्जन जैसा भोग।७।
*
धन दौलत की राह में, रख बढ़ने की होड़
कैसे कैसे लोग अब, रहे भरोसा तोड़।८।
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रिश्ते नाते त्याग कर, धन के मद में चूर
कैसे कैसे लोग जो, हुए स्वयम् से दूर।९।
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कैसे कैसे लोग है, कैसी इनकी भूख
करते चोरी रात में, झाड़ें दिवस रसूख।१०।
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राजनीति में आ गये, कैसे कैसे लोग
जनजन में जो बाँटते, बैरभाव का रोग।१२।
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फैला कर निज ज्ञान से, बड़े अनौखे रोग
जीवन में आगे बढ़े, कैसे कैसे लोग।१२।
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कैसे कैसे लोग हैं, इस जग में भगवान
अपने हित में और को, कहते कर विषपान।१३।
मौलिक /अप्रकाशित
आदाब, लक्ष्मण सिंह 'मुसाफिर' साहब, शिल्प की दृष्टि से कहा जाए तो दोहे अच्छे हैं ! किन्तु भाई, साहित्य, विशेष रूप से काव्य ऐसे सत्य का चिन्तन करता है जो सर्व प्रथम शिव है ! तदुपरांत कवि अपने शिल्प के कौशल से ग्राह्य और सुन्दर स्वरूप प्रदान करता है ! कहा भी गया है, काव्य सत्यम शिवम और सुन्दरम की अजस्र त्रिवेणी है!
आपके दोहे, क्षमा करें, मुझे नहीं लगता प्रेरक काव्य का प्रतिदर्श कहे जा सकते हैं ! सादर
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, प्रदत्त विषय के अनुकूल बहुत संदर दोहे। बधाई।
दोहे : कैसे- कैसे लोग
भारत में रहते सखा, कैसे - कैसे लोग !
सुविधायें सारी चखें माँ- द्रोही ये लोग!!
खाते - पीते देश में, करते हैं हर भोग !
राजनीति करते बहुत, टोपी वाले लोग!!
ज़रखरीद कमबख्त हैं, लगा खुरपका रोग !
भारत की दुर्दशा जग, करते ऐसे लोग !!
जन्म-भूमि स्वर्ग सम हो, द्रोही माँ कमबख्त!
जोंक बने खुद भारती, राग अलापें मस्त !!
रोगी मन से सर्वदा, चूसें माँ का खून!
माँ तू तो सहती बहुत, लगते मुझे बबून !!
देश - धर्म रुचता नहीं, कृतघ्न पक्के लोग!
काम-काज कुछ है नहीं, कर रहे बस भोग !!
गौरव देश - विदेश हो, जगती करके काम!
माँ का सर ऊँचा करें, न हों कभी बदनाम !!
विद्या हमें सिखाती है, जात - पात बेकार!
परिचय दें हम देश का, कर अन्याय प्रतिकार!!
मौलिक एवम् अप्रकाशित
आ. भाई चेतन जी, सुंदर दोहे हुए हैं । हार्दिक बधाई।
आदरणीय चेतन प्रकाश जी, अति सुंदर, सामयिक एवं देश भक्ति पूर्ण दोहों के लिए बहुत बहुत बधाई आपको।
अतुकांत आधुनिक कविता
प्रथम प्रस्तुति-
दुछत्ती के कोने में छिपाते हैं
कुछ कोठरी में टाँगते हैं
छत पर कुछ छज्जे किनारे रखते
देखो! कुछ अलगनी पर सजाते हैं
जाने कैसे-कैसे लोग ?
जीवन कैसे-कैसे सुखाते हैं ?
समर्पण को डूबोते प्रेम में तैरते हैं
अहं में जलते और सूरज को सताते हैं
उसूलों का गाड़ते खूँटा दिन-रात
देखो! बेड़ियों में निर्बोधों को बाँधते हैं
जाने कैसे-कैसे लोग ?
जीवन कैसे-कैसे सुखाते हैं ?
करुणा में कुछ लिप्सा में लिपे
कुछ ऊँन तो कुछ खादी में ढल जाते हैं
ममतामयी मूरत मानवता की
देखो! कुछ संवेदनहीनता के शिखर पर बैठे हैं
जाने कैसे-कैसे लोग ?
जीवन कैसे-कैसे सुखाते हैं ?
दोहराव दिखावे का सादगी में सिमटते हैं
अभावों से जूझते कुछ बबूल बन जाते हैं
नीम पीपल बरगद की कहानी गढ़ते
देखो ! कुछ खरपतवार धरती को निगल जाते हैं
जाने कैसे-कैसे लोग ?
जीवन कैसे-कैसे सुखाते हैं ?
मौलिक व अप्रकाशित
शुभ संध्या, अनीता जी ! मानव व्यक्तित्व के बिखराव पर कुछ कहने का प्रयास किया है, आपने! कविता को एक बार अच्छे से पढ़ कर पोस्ट किया कीजिए, सु श्री जी ! वर्तनी के दोषों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता मुझे महसूस हुई, यथा, " निर्दोषों" आदि ! ममतामयी होना , सु श्री, मानवता का कम, माँ का ईश्वर प्रदत्त गुण है ! मानवता में " कैसे-कैसे लोग " हैं,यह तो आप बता ही रहीं हैं ! सादर
दो मुक्तक
( 1 )
कैसे कैसे लोग गिरगिट सा रंग दिखाते है चुनावों में,
रातों रात अच्छे भले लोग भी बिक जाते है चुनावों में,
वोट और नोट का खेल भी खेला जाता है जोर शोर से,
बाहुबली भी सभी के आगे शीश झुकाते है चुनावों में।
( 2 )
कैसे कैसे लोग खेल रचाते है इस कोरोना काल में,
झूठ के व्यापार से खूब लूट मचाते कोरोना काल में,
भ्रष्टाचारी बन शिष्टाचारी आते है मदद करने लुटेरे,
ऐसे लोग अपने ही पाप बढ़ातेे हैं कोरोना काल में,
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
- दयाराम मेठानी
आ. भाई दयाराम जी, प्रदत्त विषय पर अच्छी प्रस्तुति हुई है । हार्दिक बधाई ।
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
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