आदरणीय साथियो,
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सादर नमस्कार। विषयांतर्गत बेहतरीन व नवीनतम लघुकथा शीर्षक के साथ बढ़िया प्रेरक रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय चेतन प्रकाश जी। आज की होनहार संतानों को दायित्व व अपेक्षाओं मुताबिक़ अपनी ज़मीन से जुड़े रहते हुए जनसेवा व देशसेवा करनी चाहिए। मेरे विचार से यह रचना विवरण कम और संवाद अधिक की माँग कर रही है।
जनाब Sheikh Shahzad Usmani, साहब मेरी प्रस्तुति तक पहुँचने और अपनी संस्तुति प्रदान करने हेतु आपका अशेष आभार ! जनाब, लघुकथा का एक मात्र ध्येय पाठक को संवेगात्मक प्रक्रियात्मक से गुजारकर
प्रेरणा देना होता है । मै समझता हूँ , बंधुवर, उक्त लघुकथा में राजेश का कथन / पंच-पंक्ति ही लघुकथा के परिवेश /संदर्भ में पर्याप्त है !
प्रदत्त विषय पर लघुकथा कहने का अच्छा प्रयास है प्रो. चेतन प्रकाश जी, आत्मिक बधाई स्वीकार कीजिए. लेकिन मुझे लगता है कि अभी इस रचना की प्रॉपर काट-छील होनी बाकी है. कहना न होगा कि हीरा कितना भी कीमती क्यों न हो, उसका मूल्य तराशने के बाद ही तय होता है. मैं इस रचना से संबधित कुछ बिंदुयों पर बात करना चाहूँगा.
1. //तीन बहनों में इकलौता और सबसे छोटा// यह विवरण नितांत अनावश्यक है, जिसका इस लघुकथा में कोई महत्त्व एवं औचित्य नहीं.
2. गाँव में जब चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं थी तो ज़ाहिर है कि वहां झोला-छाप डॉक्टरों का ही बोलबाला होगा. अत: लघुकथा में से झोला छाप डॉक्टर्स का ज़िक्र भी हटा देना चाहिए.
3. राजेश जो स्वयं भी एम.डी. की पढ़ाई करना चाहता था, अचानक उसको दादाजी के हैजे से मरने की बात याद कैसे आ गई? क्या यह बात उसे पहले पता नहीं थी? यह बात यदि उसे कोई और बताता (उसका पिता या माँ) तो बात कहीं बेहतर होती.
बड़े शहरों में डाक्टरों की भरमार और गाँवों में डाक्टरों की कमी। दुखद स्तिथि है ये। अच्छा कथ्य है। हार्दिक बधाई आदरणीय
आदरणीय चेतन प्रकाश जी, नमस्कार, आप निश्चित ही एक विद्वान और प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं।आपके समक्ष हम बहुत मामूली लघुकथाकार हैं। हम तो अभी भी नौसिखिये हैं। हम तो आज भी खुद को आदरणीय योगराज प्रभाकर जी का शिष्य ही मानते हैं और वैसे ही उनका गुरू स्वरूप आदर सम्मान भी करते हैं।
इस गोष्ठी में आपकी लघुकथा पढ़ी।
"जननीजन्मभूमिस्वर्गादपि गरीयसी"
शीर्षक अशुद्ध लिखा गया है। शुद्ध शब्द निम्न लिखित है।
"जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी”
अंतिम वाक्य का मतलब मैं समझ नहीं पाया।क्या आप उस पर प्रकाश डालना पसंद करेंगे।
वाक्य निम्न लिखित है।
"मेरे सम्मानीय बुजुर्गों, माताओ भाईयों बहनों , अब मैं शहर लौटकर नहीं जाऊँगा और गाँव में ही अपना क्लीनिक खोलकर जीवन-पर्यन्त आपकी करूँगा।"
तुम भी ना माँ!!
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आदाब। विषयांतर्गत सभी माँओं और उनकी संतानों के मन की बात कहे व अनकहे में कहती बेहतरीन प्रवाहमय मार्मिक लघुकथा हेतु हार्दिक बधाई मुहतरमा प्रतिभा पाण्डेय जोशी जी। शीर्षक जितना आकर्षक है उतना ही प्रभावशाली ढंग से वह पंचवाक्य रूप में रचना के पड़ावों व समापन पर प्रयुक्त हुआ है। प्रीति और उसकी मॉम के पात्रों के बीच 'टँगी हुई प्रीति की नानी' के पात्र की उम्दा बुनावट विषयांतर्गतकथ्य.सम्प्रेषण में इज़ाफ़ा कर रहा है। फ़्लैशबैक की जगह टँगी हुई तस्वीर से वर्तमान में ही संवाद करते हुए अतीत से पाठक को रूबरू करवाने की ये लघुकथाकारी मुझे बहुत पसंद आयी है।
/माँ मुस्कुरा रही है/
/माँ अभी भी मुस्कुरा रही है/
/माँ अब नहीं मुस्कुरा रही है/ ...
आदि में 'है' (वर्तमान में काल्पनिक चित्रण) कुछ अजीब भी लग सकता है.कुछ.पाठकों को, तो कुछ को लघुकथाकार आदरणीय मधुदीप जी व अन्य कुछ लेखकों की लघुकथायें और शैली याद आ सकतीं हैं।
हार्दिक बधाई आदरणीय प्रतिभा जी। यथार्थ से परिपूर्ण बेहतरीन लघुकथा।
हार्दिक आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी
रचना पर त्वरित टिप्पणी और सराहना के लिये आभार आदरणीय उस्मानी जी। 'काल' के विषय मे ये ही कहूँगी कि वर्तमान की बात वर्तमान मे ही बयाँ हो रही है।'थी' और 'है' के बीच मैने भी बहुत सोचा पर अन्तत: 'है' ही ठीक लगा। किसी खास शैली को सोचकर नही लिखा है
जी, शुक्रिया। बहुत प्यारी लघुकथा है। शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शामिल करने लायक।
वाह वाह! बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा कही है आ० प्रतिभा पांडे जी. बचपन के कई रूप अलग-अलग रंगों में नजर आए इस रचना से. हर्दिक बधाई स्वीकार करें..
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