आदरणीय काव्य-रसिको !
सादर अभिवादन !!
’चित्र से काव्य तक’ छन्दोत्सव का यह एक सौ बानवाँ आयोजन है.
इस बार के आयोजन के लिए सहभागियों के अनुरोध पर अभी तक आम हो चले चलन से इतर रचना-कर्म हेतु एक विशेष छंद साझा किया जा रहा है।
इस बार के दो छंद हैं - चौपाई छंद / पादाकुलक छंद
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
23 दिसम्बर’ 23 दिन शनिवार से
24 दिसम्बर’ 23 दिन रविवार तक
केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.
चौपाई / पादाकुलक छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें
जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.
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आयोजन सम्बन्धी नोट :
फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -
आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 23 दिसम्बर’ 23 दिन शनिवार से 24 दिसम्बर’ 23 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं।
अति आवश्यक सूचना :
छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...
"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ
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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम
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स्वागतम्
सादर अभिवादन, आदरणीय।
भोर हुई या साँझ ढली है।
हम संशय में बात सही है।।
लेकिन डटकर यह कहना है।
दृश्य गाँव का तय इतना है।।
*
धुँधली धुँधली सभी दिशाएँ।
मौन पड़ी हैं सभी हवाएँ।।
दूर नगर से गाँव खड़ा है।
संदूषण का कोप बढ़ा है।।
*
फसल कटी तो जली पराली।
बढ़ी शीत में धुंध निराली।।
रक्तिम बदली सूरज पीला।
धरती सूखी मन है गीला।।
*
उद्योगों के पाँव पड़े हैं।
चिमनीं लगतीं पेड़ खड़े हैं।।
धुआँ उगलते दिनभर ये भी।
रोजी दें पर विषभर ये भी।।
*
सुना गाँव में भारत बसता।
दृश्य देख पर मन यह कहता।।
लिए टोकरी किधर चले हो।
तुम भी क्या बस गये छले हो।।
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मौलिक/अप्रकाशित
आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी सादर, प्रदत्त चित्रानुसार आपने सुन्दर चौपाइयाँ रची हैं. चौपाइयों के माध्यम से आपने. ग्राम्य जीवन में बढ़ती समस्याओं का भी आपने उठाया है. हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
चौपाई ः छंद
गाँव ..हाट ..माल नहीं बिकता ।
बिकता तो अनाज ही मिलता ।।
शहर ..हाट सामान.. बिका है ।
मिला अगर धन काम चला है ।।
मर्द-बीर ये बड़े.. सयाने ।
एक द्वैत हैं एक निशाने ।।
साथ - साथ ..चलते हैं दोनों ।
माल दिखाते सभी दुकानों ।।
हुई प्रात ..तब.. मंडी आये ।
माल समेट शहर ले आये ।।
कृषक साग-सब्जी फल बेचे ।
लौटे घर.. खुश.. होते बच्चे ।।
खेल- खिलौने सखा सुहाने ।
लेकिन पैसे.. लगे ठिकाने ।।
कपड़े ..लत्तों ..शीत बितानी ।
तब होती है शिशिर सुखानी ।।
अभी ड्रेस बच्चों सिलवानी ।
गरम कोट पतलून मँगानी ।।
खर्च बहुत.. हो जाता इन में ।
फिर भी सर्दी लगती वन में ।।
मौलिक व अप्रकाशित
आदरणीय चेतन प्रकाश जी सादर, प्रदत्त चित्रानुसार चौपाई रचने का सुन्दर प्रयास किया है आपने. किन्तु दोनों/दुकानों या आये/आये या बच्चे /बेचे जैसे तुक विचारणीय हैं. सादर
चौपाई छंद
*
साँझ हुई अब दिन ढलना है। तेज कदम घर को चलना है।।
रात लगायेगी अब डेरा। होगा राही शीघ्र अँधेरा।।
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शीत बढ़ेगी तन ठिठुरेगा। पग-पग पर ज्यों शूल चुभेगा।।
सर्द हवाएँ घाव करेंगी। चैन न पलभर लेने देंगी।।
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भूल सकल पथ की दुश्वारी। शीश उठा चल गठरी भारी।।
शीघ्र पहुँचना है हमको घर। आगे की फिर जाने ईश्वर।।
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पथ पर इक जो नारी मन है। उसमें उलझन ही उलझन है।।
बात हुई यह अब अक्सर की। चिन्ताएँ उसको सब घर की।।
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काम उसे करने हैं नाना। प्रथम बनाना जाकर खाना।।
सोना खाकर अन्तिम दाना। कुछ पल सोकर फिर उठ जाना।।
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~ मौलिक /अप्रकाशित.
आ. भाई अशोक जी, सादर अभिवादन। प्रदत्त चित्रानुरूप उत्तम छंद रचे हैं। बहुत बहुत हार्दिक बधाई।
आदरणीय भाई लक्षमण धामी जी आपका हृदय से आभार. सादर
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1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
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