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दोहा पंचक. . . करवाचौथ

दोहा पंचक. . . . करवाचौथ

चली सुहागन चाँद का, करने को दीदार ।
खैर सजन की चाँद से, माँगे बारम्बार ।।

सधवा ढूँढे चाँद को, विभावरी में आज ।
नहीं प्रतीक्षा का उसे, भाता यह अंदाज ।।

पावन करवा चौथ का, आया है त्योहार ।
सधवा देखे चाँद को, कर सोलह शृंगार ।।

अद्भुत करवा चौथ का, होता है त्योहार ।
निर्जल रह कर माँगती, अपने पति का प्यार ।।

भरा माँग में उम्र भर , रहे सदा सिन्दूर ।
हरदम दमके आँख में , सदा सजन का नूर ।।
 
सुशील सरना / 20-10-24

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by Sushil Sarna on Saturday
आदरणीय चेतन जी सादर नमन सर आपने जहाँ जगण के दुहराव की बात कही है वस्तुतः एक शब्द नहीं बल्कि खंडित है इसलिए वो जगण नहीं । अतः सृजन दोषमुक्त है ।सादर नमन
Comment by Sushil Sarna on Friday

आदरणीय जी सृजन पर आपकी समीक्षात्मक प्रतिक्रिया का दिल से आभार । मैं आपका इशारा समझ गया हूँ सर । हार्दिक आभार 

Comment by Chetan Prakash on October 23, 2024 at 6:54am

 करवाचौथ पंचक, कदाचित पंचकों मे ही हुआ,  आदरणीय सरना साहब!

मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार,  दोहे का आरंभ जगण (121) से होना नष्ट माना गया ह । और, बंधु, आपके 'पंचक' में उक्त  दोष का  दोहराव हुआ  है।

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