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हो गगन के चन्द्रमा तुम क्यों अगन बरसा रहे
देख कर बिरही अकेला क्यों मगन मुस्का रहे

मेरी धरती ने तुम्हे आकाश पर पहुंचा दिया
तुम भटकते ही रहे अब तक न तुमने कुछ किया
आज कर लो व्यंग्य कल तुम देख कर जल जाओगे
आज हूँ परदेश में कल पार्श्व में होगी प्रिया
इसलिए आगे बढ़ो जाओ जहाँ तुम जा रहे हो
हो गगन के चन्द्रमा ...........................

विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं
कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी जानते हैं
प्रेमियों को छेड़ने की अब ये आदत छोड़ दो
पूर्व के अभिशाप से हो कुष्ठ रोगी जानते हैं
मुँह छिपा लो बादलों में क्यों नहीं शरमा रहे
हो गगन के चन्द्रमा ...........................

मैं वही मानव हूँ जो अब चरण तुम पर रख चुका है
कितने बदसूरत हो तुम निज चक्षुओं से लख चुका है
है तेरा अस्तित्व ही निष्प्राण बिन जलवायु के
हर तरह से आधुनिक विज्ञान निरख परख चुका है
दान का 'आलोक ' पा तुम व्यर्थ में इतरा रहे हो
हो गगन के चन्द्रमा ...........................
आलोक सीतापुरी

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Comment

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Comment by Yogendra B. Singh Alok Sitapuri on September 22, 2011 at 7:49pm

आप सभी का बहुत-बहुत आभार |

Comment by Abhinav Arun on September 12, 2011 at 7:28pm

विरह की भावना गीत में बखूबी अभिव्यक्त  हुई है हार्दिक बधाई !!

Comment by Er. Ambarish Srivastava on September 12, 2011 at 1:44pm

//विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं
कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी जानते हैं
प्रेमियों को छेड़ने की अब ये आदत छोड़ दो
पूर्व के अभिशाप से हो कुष्ठ रोगी जानते हैं//

बहुत खूब आदरणीय आलोक जी ! विरह में कितनी व्यथा है यह तो वास्तव में भुक्तभोगी ही जानते हैं .....इस सुन्दर गीत के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें !

Comment by satish mapatpuri on September 12, 2011 at 12:27am

विरह में कितनी व्यथा है ये वियोगी जानते हैं
कोई क्या जानेगा केवल भुक्त भोगी जानते हैं
प्रेमियों को छेड़ने की अब ये आदत छोड़ दो
पूर्व के अभिशाप से हो कुष्ठ रोगी जानते हैं

क्या बात है आलोक जी .............. क्या बात है. आपके ख्याल को नमन

 

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