''कन्यादान '' महोत्सव में सभी रचनाकारों ने लगभग दहेज़,तथा वर पछ के प्रति एक से विचार ब्यक्त किये है.परन्तु ऐसा नहीं है. सुन्दर सुशील गुणवान कन्या को हर ब्यक्ति पसंद करता है .हमारे समाज के पुराने नियम परंपरा संस्कार काफी शोध के उपरांत बने है. कन्यादान शब्द का अर्थ किसी वस्तु के दान से तुलना करना मेरे विचार से कदापि उचित नहीं है .दो वंश परिवार सैकड़ो रिश्तेदारी एक साथ जिस रस्म के साथ जुडती है वह कन्यादान है .सभी लोगों ने नारी प्रताड़ना की बात कही ,समाज के कुछ लोग दहेज़ के लालच में ऐसा करते भी है .मगर पूरा समाज ऐसा निर्दयी नहीं है.अता समाज में जिन नारियो कि हालत अच्छी है उनके पीछे भी पुरुषो का हाँथ है इसमें कोई संदेह नहीं..ये मेरे निजी विचार है.
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शुभेच्छा
कुछ आदरणीय सदस्यों ने कहा कि कन्या कोई वस्तु नही तो कन्या का दान क्यों ! कन्यादान की जगह वर का दान जैसी बातें भी सामने आई !
लेकिन क्या दान सिर्फ वस्तुगत होता है ?
क्षमा दया ज्ञान आदि का दान क्या दान नही ?
सच है कि कन्यादान जैसी महान परंपरा के साथ कुछ घिनौनी बुराइयां भी जुड गई है लेकिन इस कारण इस परंपरा के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाना ठीक न होगा ! ये जीवन के लिए कितना आवश्यक है ये कहने की बात नही ! समस्याओं के निराकरण के लिए इसे बदलना उचित नही होगा !
और बदलेगे भी तो क्या करेंगे ? दो रास्ते है –
१) कन्या की जगह वर का दान किया जाए ! उससे सिर्फ ये होगा कि विरोध का परचम आज स्त्रियों के हाथ है , उस समय पुरुषों के हाथ होगा ! लेकिन स्थिति फिर भी नही बदलेगी !
२) सृष्टिसृजन मात्र के लिए वर और कन्या को एक साथ रखा जाए उसके उपरांत वो स्वतंत्र हों लेकिन ऐसी स्थिति के बाद “मानव” , “सभ्यता” और “भारतीयता” जैसे शब्दों की परिभाषा ही बदलनी पड़ेगी !
ईश्वर ने स्त्रियों को पुरूषों से अधिक योग्य और सक्षम बनाया है ! हमारे भारतीय समाज ने उन्हें पुरूषों से ऊँचा स्थान भी दिया ! परंपरा को बदलने से बेहतर है कि उसमे समा चुकी बुराइयों को दूर किया जाए !
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