"हुजुर माई बाप, हम बहुत अफदरा में पड़ल बानी, मदद करीं, अब त एगो राउरे सहारा बा", मोहन लाल के मेहरारू सुरसतिया विधायक जी से गिड़गिड़ात एके सास में कह दिहलस, विधायक जी पूछनीं कि बात का ह बोल, सुरसतिया सुस्कत बतवलस कि ओकर आदमी के केंसर हो गइल बा आ बम्बई के डाक्टर आपरेसन खातिर एक लाख मंगले बा, पचहतर हजार के जोगाड़ त गहना-गुरिया आ रिश्तेदारन से करजा ले के जुटा लेले बिया, बाकी पच्चीस हजार अबहियों घटत बा जेकरा खातिर उ विधायक जी से मदद चाहत बिया, विधायक जी कुल बात सुन के सुरसतिया के आश्वासन दिहले कि, जा घरे, हम देखत बानी का हो सकत बा, सुरसतिया उमीद बन्हले घरे चल आइल |
विधायक जी के पीए अजित बाबू विधायक जी से पुछले ..."सर, सुरसतिया के पइसा भेज दिहल जाव", विधायक जी कहले, "अजित बाबू, एइजा पईसा के पेड़ नईखे लागल जे लुटावत फिरबऽ", अजित बाबू तनी हिम्मत ध के धीरे से बोलले, "सर, ऊ मोहन लाल आपन पार्टी के कट्टर समर्थक हवे, अउर, खास बात कि ऊ राउरे जात से भी हवे",
विधायक जी हँस के कहले, "अजित बाबू रौआ के त मालूमे बा जे हम जात पात में विश्वास ना करीले"
"पररर... सर, रौआ दूइये महिना पहिले चुनाव में आपन जाति के हवाला दे के खूब वोट बटोरले बानी"
"धुत्त बुरबक कही के, चुनाव के बात अलग होला" |
हमार पिछुलका पोस्ट => एगो प्रयोग :- भोजपुरी हाइकू
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का कहल जाव, गणेशजी. एह नेतन के बात ! .. चुनावी बात आ बकरी के पा.... (हुँह)... . दूनो के कवनो माने ना.. .
दिल से कथ्य प काम भइल बा. हिरदा से बधाई स्वीकार करीं. बाह !!
दुनो हाथ से लघु कथा के सराहे अउर सवारे खातिर औल्लाह आभार बा भईया,
अउलाह !! एह शब्द पर हमार वाह.. . !!!
बहुत खूब !
Dhanyavaad Ashish jee.
Agar eh lekha pesh na aayee log ta neta kayise kahayi log........bhagwan bachawas aisan log se.
आभार नीलम दीदी ।
गणेश जी करारा व्यंग्य किया है भोज पुरी मैं बोल तो नहीं सकती पर काफी कुछ समझ लेती हूँ ,बिलकुल सही समय पर वार किया है यही तो ....कहना चाहिए तिरिया चरित्र है इन नेताओं का पल- पल बदल जाते हैं गिरगिट भी कहें तो बेहतर होगा |
बहुत बहुत आभार आदरणीया राजेश कुमारी जी ।
भाई गणेश बाग़ी जी, गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नेतायों पर बड़ा करार तंज़ किया है आपने. कथ्य के लिहाज़ से से तो लघुकथा सुन्दर बन पडी है, लेकिन शिल्प में थोड़ी और कसावट की गुंजायश है. लघुकथा में अनावश्यक डिटेल से सदा बचाना चाहिए, उदहारण के तौर पर इस लघुकथा में भी "मोहन लाल" और उसकी पत्नी "सुरसतिया" का नाम बार बार आ जाना भी थोडा खटक रहा है, विधायक जी के पीए का नाम देने की भी क्या ज़रुरत थी ? बात अगर बिना नाम लिए भी कह दी जाती तो प्रभाव घटता नहीं बल्कि बढ़ता. सब से अंतिम पंक्ति में "विधायक जी कुटिल मुस्कान में बोलले.. . " फालतू हैं, इन्हें लिखे बगैर भी विधायक साहिब की नीयत ज़ाहिर हो ही रही है. बहरहाल इस प्रस्तुति के लिए मेरी दिली बधाई स्वीकार करें.
आदरणीय प्रधान सम्पादक जी , सराहना हेतु आभार और सुझाव हेतु बहुत बहुत धन्यवाद, आगे से ध्यान रखूँगा कि लघु कथा अधिकतम संघनित (compact) हो सके ।
ज्ज्ज्जे ब्ब्ब्बात !!!!!
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