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कोरा कागज़
अगर तू चाहती तो कभी भी
कोरे कागज़ पर मुझको
अँगूठा लगाने को कह सकती थी
और जानती हो, मैं..
मैं ‘न’ न कहता ।

उस कोरे कागज़ पर फिर
तुम कुछ भी लिख सकती थी।


तुमने मेरे नाम पर मुझसे
अधिकार माँगा
मैंने वह आँखें मूँद के दे दिया,
पर जब "तुम्हारे" अपने नाम पर तुमने
मुझसे अधिकार माँगा,
मेरे ओंठों पर हर पल नाम तुम्हारा था,
अत: यह अधिकार मैं तुम्हें दे न सका ।


मेरे धुँधँले-धुँधले सुलगते वजूद ने
नीदों में मेरी तुम्हारा नाम सुना,
सपनों ने सपनों में तुम्हें कई बार बुलाया ।


दर्द भरे अन्धेरों में मैंने
तुम्हें भुलाने के प्रबल प्रयास में,
नींदों के कान बंद कर दिए,
सपनों के ओंठ भी सी दिए,
पर जीते-जागते ख़यालों के गुबार
प्रतिदिन प्रतिरात
तुम्हें सुनते रहे, बुलाते रहे
कि जैसे पल भर को भी भुला न सके ।


तुम तो शूरू से ही शायद
मेरी इस कोमल कमज़ोरी से वाकिफ़ थी,
तभी तो कोरे कागज़ पर तुमने उस दिन
मेरा अँगूठा नहीं माँगा था ।


विजय निकोर
vijay2@comcast.net
(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 573

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Comment by vijay nikore on February 24, 2014 at 7:49am

//वाह वाह !! क्या सुन्दर अभिव्यक्ति है //

रचना आपको अच्छी लगी, मेरा लिखना सार्थक हुआ, आदरणीय भाई योगराज जी। हार्दिक धन्यवाद।


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on January 15, 2014 at 1:09pm

//अगर तू चाहती तो कभी भी
कोरे कागज़ पर मुझको
अँगूठा लगाने को कह सकती थी
और जानती हो, मैं..//

वाह वाह !! क्या सुन्दर अभिव्यक्ति है.

Comment by vijay nikore on February 14, 2013 at 3:20pm

अतिशय धन्यवाद, नादिर भाई।

विजय निकोर

Comment by नादिर ख़ान on February 14, 2013 at 1:04pm

सुंदर अभिव्यक्ति आदरणीय विजय जी 

विश्वास के रस में  डूबे हुये शब्दों की मिठास  .... 

Comment by vijay nikore on February 2, 2013 at 2:32pm

आदरणीय अशोक कुमार जी:

सराहना के लिए आपका शत-शत आभार!

विजय निकोर

Comment by Ashok Kumar Raktale on January 31, 2013 at 10:46pm

सुन्दर रचना आदरणीय विजय निकोर साहब सादर.

Comment by vijay nikore on January 31, 2013 at 1:27am

आदरणीय सौरभ भाई:

"अलग तरह की सोच" ... आपने सही कहा है।

कविता में ख़याल कुछ ऐसा था ...  वह जानती है कि वह मुझसे उसको भूल जाने का वायदा ले भी ले तो भी मैं उसको भूल न पाऊँगा ... कहीं ऐसा न हो कि मुझको वायदा तोड़ने की पीड़ा हो, वह मेरी पीड़ा को नहीं सह सकती, इसीलिए वह मुझसे वायदा लेती ही नहीं।

सादर और धन्यवाद।

विजय निकोर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 30, 2013 at 10:04pm

एक शाश्वत किन्तु अलग तरह की सोच को अभिव्यक्ति मिली है.

सादर

Comment by vijay nikore on January 30, 2013 at 8:09pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी:

आपकी सराहना से मेरी रचना सार्थक हुई,

आपका शत-शत धन्यवाद।

सादर,

विजय निकोर

 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 30, 2013 at 8:02pm

प्रेम को किसी शर्त या अधिकार की परिधि में बाँधने की आवश्यकता नहीं होती शब्दों का मोहताज भी नहीं होता प्रेम ,बहुत सुन्दर गहन भाव से सजी रचना हेतु हार्दिक बधाई विजय निकोर जी 

कृपया ध्यान दे...

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