सुधीजनो,
दिनांक - 10 मार्च’ 13 को सम्पन्न हुए महा-उत्सव के अंक -29 की समस्त रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. इस बार का प्रस्तुतिकरण रचनाकारों के नाम के प्रथम अक्षर के अनुसार हुआ है. यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिरभी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
इस बार के संकलन का यह महती कार्य ओबीओ की कार्यकारिणी सदस्या आदरणीया डॉ. प्राची सिंह के अथक सहयोग के कारण संभव हो पाया है.
सादर
सौरभ
संचालक
महा-उत्सव
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अमित मिश्र
“ऐसा रंग लगाओ”
यदि लगा सको, हे सखी
तो ऐसा रंग लगाओ
जिससे, समाज में लाल हो जाये
अछूत विधवा का उजला वसन
हरा हो जाये शहर-शहर
गाँव-गाँव की बंजर परती
हे सखी, ऐसा रंग लगाओ
जिससे, बसंती सरसों फूल जैसा
पीला हो जाये
किसी गरीब के बेटी का हाथ
श्याम मधुप सा, काला हो जाये
दहेज लेने वाले का मुँह
भ्रष्टाचारी, अत्याचारी, इज्जत लूटने
वाले का मुँह, हो जाये कोयले जैसा
हे सखी, ऐसा रंग लगाओ
जिससे, गुलाबी हो जाये
किसी बाल मजदूर के गाल
नीला हो जाये, प्रदूषित धुआँ भरा
चाँद-तारों का अंबर अनंत
हे सखी, ऐसा रंग लगाओ
जिससे, आ जाये बेमौसम बसंत
टूट जाये पतझड़ का घमंड
जैसे टूट गये है रिश्ते-नाते
इस तनाव भरी दुनिया से
कोसों दूर, बसंती आँचल की छाँव में
सो सकूँ कुछ पल सुकून से
यदि लगा सको ,हे सखी
तो ऐसा हीं रंग लगाओ
(मूल मैथिली से अनुवाद)
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अरुण कुमार निगम
लाल
रक्त बहाता आदमी, करे धरा को लाल |
मृत्यु बाँटते फिर रहा,यह कलियुग का काल ||
नीला
गौर वर्ण नीला हुआ , बाबुल है बेहाल |
बड़े जतन गत वर्ष ही,भेजा था ससुराल ||
पीला
मुखड़ा पीला पड़ गया, आँसू ठहरे गाल |
माँ कैसे देखे भला , बेटी का कंकाल ||
हरा
हरा-भरा संसार था, राख कर गई ज्वाल |
हरा रही सुख-प्रेम को, चाँदी की टकसाल ||
गुलाबी
कभी गुलाबी नैन थे,श्वेत पुतलियाँ आज |
इतराओ मत भूल कर , यौवन धोखेबाज ||
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अरुण श्रीवास्तव
रंग-
कभी नए रंगों के आकर्षण के कारण ,
तो कभी छुपाने के लिए
पुराने रंगों से झांकती सच्चाई को
-बदल दिए जाते हैं अक्सर !
मटमैला रंग
मिट्टी से पोती गई दीवार का ,
हार जाता है
चमचमाती हुई टाई से !
खूंटी का अकेलापन गवाही देता है !
अपना लिया आकाश ने ,
मानवीय विचारों का रासायनिक कालापन !
चुभता रहा आँखों में !
बहते रहे कतरा कतरा ,
धरती के इन्द्रधनुषी सपने !
रंग बदल लिया कविताओं ने भी !
सीने को किताबों से छुपाए ,
आँखे झुकाए ,
धरती से सम्मान चुनती सांवली लड़की
बेदखल कर दी गई !
अब कविताएँ लिखी जाती हैं -
उसके अंतःवस्त्रों के चटकीले रंग पर !
लेकिन हैं कुछ रंग
जो आबद्ध नहीं है ,
परिवर्तन की सत्ता से !
रंग-
-कुछ कबीलों के हौसले का ,
उन सोमालियाई बच्चों की तरह
जो आज भी पत्थर उछालते हैं
अमरीकी वायुयानों की ओर !
-कुछ घावों से बहते दर्द का ,
उन खरोचों की तरह
जो फ्रांसीसी नाखूनों ने उकेरा है
रोमानियाई लड़की की अपुष्ट छाती पर !
-पुराने खत के रंगे हुए लाल कोने का !
हालाँकि धुंधले पड़ गए हैं
शरमाते हुए शब्द
जो प्यार के नाम पर आज भी चुप है !
-सफ़ेद कुर्ते पर पड़े गुलाल के छीटों का ,
जो कभी उछाले थे मेरी तरफ
मेरे फागुन ने !
और सपनीली आँखों में
आज भी उतना ही चुभता है
अभ्रख का एक टुकड़ा !
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अरुणा कपूर
“फागुन का महीना...”
छूटा मौसम ठंड का सखी...
मनभावन मौसम आ गया...
लाल,पीले,केसरिएँ फूल...
खिलने का मौसम आ गया...
आया महीना फागुन का....फागुन का महीना आ गया!
रंगों से खेलेंगे होली,
मुखड़े हो जाएंगे लाल...
लहराएंगे नीली चुनरी....
मुठ्ठी में..होगा गुलाल!
ढोल ताशों के बजने का...
प्यारा मौसम आ गया...
आया महीना फागुन का...फागुन का महीना आ गया!
गुझिया,पुरण पोली मीठी...
दावत खूब उडाएंगे...
झुम-झुम कर,नाच-नाच कर...
मस्ती खूब लुटाएंगे...
कोयल की मधुरिम तान सखी...
सुनने का मौसम आ गया...
आया महीना फागुन का...फागुन का महीना आ गया!
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आशा पाण्डेय ओझा
“कुछ हाइकु : फागुनी मौसम”
गुलशन में
दिलकश नजारे
गुल भ्रमर
टेशू के फूल
महुवे की पत्तियां
फागुनी रंग
फागुनी प्रात :
गुलाबों भरा बाग
भ्रमर टोली
पुष्प लता का
परिणय उत्सव
बसंत मास
कानन तन
श्रृंगार सुशोभित
आया फागन
बावरी खुश्बू
मंद मंद समीर
बोराया मन
महुवे टेशू
और फागुन धूल
पलाश फूल
राधा नाचती
कृष्ण मुरली पर
देखे फागुन
नाच गा रहे
चंग मृदंग पर
छैल -भंवर( पति को राजस्थान में छैल -भंवर भी कहते हैं ..यानि छैल -छबीला ,बांका नौजवान
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अशोक कुमार रक्ताले
(१)“कह-मुकरी छंद”
फगुआ देखे और इतराय,
हाथ धरो माथे चढ़ी जाय,
बढती जा रही इसकी मांग,
क्या सखि सौतन? ना सखी भांग।।
चुपके से यह आ जावे है,
साजन का मन बहकावे है,
यही उड़ाए निंदिया मोरी,
क्या सखि सौतन? ना सखी होरी।।
गोरे तन से चिपटा जाए.
लाख जतन कर सखी छुडाए,
बरजोरी सभी चूमत अंग,
क्या सखि साजन? ना सखी रंग।।
बिन गुस्से के नीला पीला
मतवाला सखि है रंगीला
घिस कर छोड़े रि करता तंग
क्या सखि साजन? ना सखी रंग।।
रंगो में था खूब नहाया,
गुझिया का भी लुत्फ़ उठाया,
खेले होली दिनभर बे मन,
क्या सखि साजन? नहि री आनन।।
(२)मुक्तामणि छंद ( १३-१२ मात्राओं पर यति,रचना दोहे के सामान ही किन्तु हर पद के अंत में दो गुरु)
कह रहे चेहरे सभी, सारी मन की बातें,
घूम रही हर मुख यहाँ, रंगो की बारातें।
काले धौले रंग भी, बारी बारी आते
मन में पश्चाताप के, रंग भी बड़ा लजाते।।
भ्रष्टाचारी रंग तो, सब पर चढ़ते जाएं,
चोरी से धन ले रहे, वेतन से भी पाएं।
है सरकारी तन्त्र ये, सब मिल करके खाएं
अफसर बाबू दफ्तरी, सब ही नोट कमाएं।।
(३)कुण्डलिया छंद
सारी शक्लें एक सी, लगें सभी अनजान,
काले पीले एक से, लगते सभी समान,
लगते सभी समान, गजब के रंग चढ़े हैं,
जित देखो उत ओर, सभी बेढंग खड़े हैं,
वस्त्र बने मृगछाल, और कुछ देते गारी,
कहाँ राम रहमान, एक सी शक्लें सारी//
भोले बम बम भांग का, अपना है इक रंग,
पा जाए जो नर कभी, हरकत करती दंग,
हरकत करती दंग, कभी चीखे चिल्लाये,
लिए धौंकनी हाथ, मधुर बांसुरी बजाये,
दिखते रूप अनूप, भांग जो सिर चढ़ बोले,
खाए जो भी भांग,करे वह बम बम भोले//
पौ फटने के साथ ही, डाल रहे हैं रंग,
माथे पर टीका करें, और पिलायें भंग.
और पिलायें भंग, गजब इनकी तैयारी,
एक हाथ में रंग, धरे दूजे पिचकारी,
कर दे लालम लाल,हाथ जो आ जाए तो,
होली के दिन लाल,गुलाल लिए फटती पौ।।
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कुंती मुखर्जी
"अस्तित्व"
अतीत के मटमैले परदे पर
बहुत साल पहले,
इंद्रधनुषी रंग बिखेरते
तुमने एक वादा किया था –
पर, बदलते समय के साथ
फ़ासले बढ़ते गये –
तुम तुम न रहे पर,
मैं वक़्त की दीवार थामे
निहारती रही शून्य में
अपलक नयनों से.
दिन-रात-महीने,
पल-पल रंग बदलते गये,
अंकुरित हुए बीज
जो दबे थे ज़मीन में –
बढ़ कर वृक्ष बने, फूले, फले
एक दिन बरसात हुई,
तुम आए हवा की झोंकों में,
मेरे पैरों तले ज़मीन की परतें
पिघल कर बहने लगीं,
रंग विच्छुरित हुए फिर धुले आकाश में.
वक़्त कब ठहरता है किसके लिये ?
भावनाएँ बदलती हैं सबके लिये -
कौन कहता है उड़ती है बात हवा में,
मौसम बदलता है सब के लिये.
देर ही सही, वसंत आया
बासंती रंग में रंगा –
भावनाओं के सागर में
लहराती-उतराती मैं चली
एक नये संसार की खोज में –
क्षितिज नयी थी मेरे लिये.
फिर तुम आये, समय के फासले को
इंद्रधनुष के टंकार से जोड़कर
और मैं....
नये प्रभात की सुनहली आभा में
चांद की पहली किरण की तरह,
समुद्र के उत्ताल तरंगों में झिकमिकाहट की तरह
अपने अस्तित्व को पाकर
सौंदर्य की रंगीनियों में खो गयी. *****************************************************************************************
गणेश जी “बागी”
(1)“होली का रंग घनाक्षरी के संग”
साँवली सूरत हो या, गोरा गोरा मुखड़ा हो,
होली के धमाल में तो, सभी एक रंग हैं ।
गाल सभी लाल-लाल, ढोलक जोगिरा ताल,
आड़ी टेढ़ी चाल-ढाल, लिये सभी भंग हैं ।
हरिया का छोरा हो या, "सुपुत्र" हरी सिंह का,
भेदभाव भूल होली, खेले संग संग हैं ।
भिन्न भिन्न पंथ पर, दिल सभी एक स्वर,
देख व्यवहार यह, जग वाले दंग हैं ।
(२)“होली का रंग हास्य घनाक्षरी के संग”
फिलिमी स्टाइल मार, गोलुआ की मम्मी बोली,
आपकी शीला, डियर, आज भी जवान है ।
मुहल्ले के छोरे सारे, हमें जो करे इशारे ,
एक मेरे आशिक का, सामने मकान है ।
उसे तो मैं जानता हूँ, खूब पहचानता हूँ,
बाजू में कबाड़ी हाट, उसकी दुकान है ।
बंदा वो है फिट-फाट, कारोबारी ठीक-ठाक,
देखे जहाँ माल रद्दी, वहीं रखे ध्यान है ।
(३)सात रंग, छन्न पकैया के संग
छन्न पकैया छन्न पकैया, क्या गोरा क्या काला,
होली है हुडदंगी भइया, एक रंग कर डाला ।1।
छन्न पकैया छन्न पकैया, बूढ़े हो या बच्चे,
होली में सब पुते हुए हैं, लगते कितने सच्चे ।2।
छन्न पकैया छन्न पकैया, रंग भरी पिचकारी,
किसना आया हाथ आज है, रंगो पारा पारी ।3।
छन्न पकैया छन्न पकैया, ये भाई की साली,
साबुन दस-दस रहे घीसती, पर काली की काली ।4।
छन्न पकैया छन्न पकैया, गोरी बड़ी सयानी,
डाल गयी रंग भरी बाल्टी, मैं जो माँगा पानी ।5।
छन्न पकैया छन्न पकैया, आयी चूनर वाली,
गालहिं लाल गुलाल मलूँ क्या, दीखे खुद ही लाली ।6।
छन्न पकैया छन्न पकैया, होली की तैयारी,
गुझिया पूआ पूरी तिसपर, कटहल की तरकारी ।7।
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जवाहर लाल सिंह
सरसों के खेत में
गाँव की गोरी
इठलाती चले ऐसे
रंगीन तितली फुदके
डाली डाली जैसे.
तितली का रंग
पीली सरसों के संग
करे गोरी को तंग
क्या यही है होली का हुरदंग
पिया अब आजा ले के रंग अबीर
सही न जाय अब विरह के पीर !
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ज्योतिर्मयी पन्त
(१) कुछ दोहे
हिम चादर है सिमटती, धुंध कुहस छँट जाय
पीली सरसों खिल उठे, धरती अब सज जाय .
रंग बिखेरें पुष्प भी, रस मकरंद समेत
फाग राग गाएँ सभी, अलि कोकिल संवेत .
सतरंगी मौसम हुआ, उड़त अबीर गुलाल
भूल गिले मिल लें गले, दिल में न हो मलाल .
किंशुक कुसुम बुराँश के , ज्यों दहकें अंगार
प्रेम अगन मन में जले, जब फागुनी बयार .
मधुप मधुर मधु लें उड़ें, मोहक है मधुमास
कुहू- कुहू कोयल करे, तितली नाचे पास .
प्रकृति पटल पे सज गए, विविध रूप रंग चित्र
पवन विजन है डोलती, लिए पराग -कण इत्र .
बौर उठें हैं आम्र भी, नवल पल्लवित खूब
सरसों पीली लहकती, हरित हो उठी दूब .
(२)
भर दें रंग
जीवन बदरंग
ख़ुशी के संग .
प्रकृति भोली
रंग- रस- सुगंध
मादक होली .
रँगे चेहरे
कौन जाने कौन रे
मिल जा गले .
इन्द्रधनुषी
ये राहें जीवन की
ढूँढ लें ख़ुशी .
भेद रंग के
मानव बँट जाते
मिटें प्यार से .
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डॉ० नूतन डिमरी गैरोला
अरुणिमा सी
लालिमा ले शर्माई
नवयोवना|
***
बसंती प्युली
लाल बुरांश खिले
पहाड सजा|
***
पीत पुष्प पे
श्याम भ्रमर डोले
तितली हंसी|
***
लाल गुलाल
पीला वसन धारे
श्याम सखा रे |
***
श्वेत घन में
चांदी सी दामिनी
हरा सावन |
***
टेसू हैं लाल
श्याम कुक्कू वाचाल
कुहुक गायें |
***
नीला सागर
नभ लाया गागर
नीलिमा छाई|
***
लाल जो लडा
हरिया हरा हंसा
नीला था शांत|
***
धूसर वेश
ख्वाबों में सतरंगी
सुनहरा था
***
समीकरण
बैंजनीह्पीनाला
श्वेत रंग का|
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डॉ० प्राची सिंह
“छंद त्रिभंगी”
१.
ये झूठे-सच्चे, फीके-कच्चे, रंग न मोहे, सखि भायें
ये श्यामल-उजले, गहरे-धुँधले, रंग नहीं अब, भरमायें//
हो सूखा-गीला, नीला-पीला, लाल हरा या, नारंगी
सखि मोहे भाये, हृदय सुहाए, प्रीत रंग बस, सतरंगी//
२.
हों पथ पथरीले, दंश कँटीले, प्रेम सुगम हर, राह करे
बन कुंदन निखरे, सुरभित बिखरे, प्रेम अगन शुभ, दाह करे//
यह दुनिया सुन्दर, बाहर-अन्दर, प्रीत बिना-सच, वीरानी
सतरंगी चूनर, ओढ़े सर पर, सखि झूमूँ मैं, मस्तानी//
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धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
“रंग”
धीरे-धीरे
शांत रहकर
अपना प्रभाव छोड़ते है,
वे नही,
चीखते / चिल्लाते
ज़रा भी
रंगों को बिखरा हुआ
देखकर हमे,
लगता जरूर है ऐसा!
कि इनके बीच
मचा हुआ है हाहाकार!
इनमे से, कोई
चीख रहा है
कोई खीझ रहा है
किन्तु ऐसा होता नही है
रंग
शांत रहकर
धीरे-धीरे
अपना प्रभाव छोड़ते है,
हम पर,
वे उतरते ही चले जाते है
ह्रदय की गहराइयों में
दबे पाँव,
चुपचाप...!
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प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा
दुनिया बड़ी रंग रंगीली बाबा
इसके किस्से सुनता हूँ
उगता सूरज ले अरुणायी
चांदनी में ताने बुनता हूँ
नीचे काली भूरी मिटटी
गिलहरी पेड़ जा छुपती
घास हरी अम्बर नीला
लाल गुलाब गेंदा पीला
बाला की धानी चुनरिया
सांवरे हमरे कृष्ण कन्हैया
मन ही मन बलैयां लेता हूँ
दुनिया बड़ी रंग रंगीली बाबा
इसके किस्से सुनता हूँ
रिश्तों के भी रंग अनोखे
पग पग मिलते अब धोखे
माँ करती जिसका इंतजार
अपना खून दिखाता उसे द्वार
भाई बहन चाचा और नाना
रिश्ते को रिश्ता ना माना
देख दशा अपना सर धुनता हूँ
दुनिया बड़ी रंग रंगीली बाबा
इसके किस्से सुनता हूँ
इन्द्र धनुष की छटा निराली
धरा पे छायी घनी हरियाली
गरजे मेघ घटा घनघोर
मोर पपीहा मचावत शोर
अमराई में कोयल कूके
प्रियतमा हिया है हूके
तन्हाई में मन ही मन घुनता हूँ
दुनिया बड़ी रंग रंगीली बाबा
इसके किस्से सुनता हूँ
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बृजेश कुमार सिंह (बृजेश नीरज)
(१)
स्याह आसमान में
उजली किरन सा
गर्म दुपहरिया में
एक ठंडी बयार सा
टकटकी बांधे निगाहों को
प्रेमी के दीदार सा
लो आया बसंत
नवयौवन के प्यार सा।
फिर खिलेंगे
फूल सरसों
टेसू के वो
रंग चढेंगे
गाएंगे गीत मधुर
मौसम ये बहार का।
ज्यों कोंपल नई उगी
कोई कली नई खिली
एक नई उमंग जगी
बीता दिन मलमास सा।
जीवन में नवरंग भरे
प्रकृति नवचेतन भई
क्यों न कुछ नए रंग भरें
ये मौसम नव श्रंगार का।
(२)
कंचन काया कामिनी, डोलत कटि ज्यों डोर।
मोहक अति मन भावनी, भ्रमर सरिस चित चोर।।
नैनन में कजरा भरे, चितवन चतुर चकोर।
इत उत खोजत फिरत है, नटखट श्याम किशोर।।
अब तो मन बैरी भया, पिया मिलन की आस।
बासंती मधुबन भया, बढ़ती जाए प्यास।।
टेसू, सरसों सब खिले, आंगन में मलमास।
रंग सभी फीके हुए, पिया नहीं जो पास।।
बागों में कलियां खिलीं, पेड़ सभी हरियाय।
मैं पतझड़ की बेल सी, सूखत दिन दिन जाय।
इस होली के रंग में, डूबा सब संसार।
तुम बिन सूनी मैं हुई, सूना ये घर द्वार।।
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रविकर
(१)
नंग-धडंग अनंग-रती *अकलांत अनंद मनावत हैं ।
रंग बसंत अनंत चढ़ा शर चाप चढ़ाय चलावत हैं ।
लाल हरा हुइ जाय धरा नभ नील सफ़ेद दिखावत हैं ।
अंग अनेकन अर्थ भरे लुकवावत हैं रँगवावत हैं ॥
*ग्लानि-रहित
(२)
"सेहत" से हत" भाग्य सखी सितकारत सेवत स्वामि सदा |
"कीमत" सेंदुर "की मत" पूछ, चुकावत किन्तु न होय अदा |
रंग गुलाल उड़ावत लोग उड़ावत रंग बढ़े विपदा |
लालक लाल लली लहरी लखिमी कय किस्मत काह बदा ??
(३)
रंग रँगीला दे जमा, रँगरसिया रंगरूट |
रंग-महल रँगरेलियाँ, *फगुहारा ले लूट ||
*फगुआ गाने वाला पुरुष -
फ़गुआना फब फब्तियां, फन फ़नकार फनिंद |
रंग भंग भी ढंग से, नाचे गाये हिन्द ||
हुई लाल -पीली सखी, पी ली मीठी भांग |
छलिया रँगिया रँग गया, रंगत में अंगांग ||
देख पनीले दृश्य को, छुपे शिशिर हेमंत ।
आँख गुलाबी दिख रही, पी ले तनि श्रीमंत ॥
तड़पत तनु तनि तरबतर, तरुनाई तति तर्क ।
लाल नैन बिन सैन के, अंग नोचते कर्क ॥
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राजेश कुमारी
(१) चौका-57575757575 अंत में एक तांका
उड़ती हुई
उन्मुक्त गगन में
भिगोये पंख
डूबे सप्त रंगों में
हुई नारंगी
मरीचि मिलन में
बिखेरी छटा
प्रकृति आँगन में
हर्षित धरा
मुकुलाई मन में
फूटे अंकुर
पुलकित तन में
मुस्काये पुष्प
अगणित रंगों में
कपोल लाल
केसर चंदन में
सृष्टि ढूँढती
वो घर से निकली
फर फर तितली
(२) चौका
रंगो की सभा
होगा राज्याभिषेक
जो होगा श्रेष्ठ
लाल रंग ने कहा
रक्त ने मुझे
अंगीकार है किया
शुभ प्रतीक्
रुप स्वीकार किया
मैं हूँ महान
करो सब सम्मान
हरे ने कहा
मैं प्रकृति में रमा
सबसे श्रेष्ठ
मेरा हो अभिषेक
नीले ने कहा
आसमान में हूँ मैं
अभिन्न घुला
सर्वत्र व्याप्त हूँ मैं
पीले ने कहा
देखो फूलों की और
मैं चहुँ और
उत्त्फुल्ल चितचोर
काले ने कहा
मैं चक्षु का काजल
ना हूँ अज्ञानी
ना मेरा कोई सानी
श्वेत बोला
मैं पवित्र निर्मल
मैं हूँ विशेष
हो मेरा अभिषेक
छिड़ी लड़ाई
हो गई हाथा पाई
नन्हा बालक
एक कहीं से आया
सब रंगों को
साथ-साथ मिलाया
इन्द्रधनुष
फिर एक बनाया
हँसते हुए
नभ में लटकाया
रंगों को बात
यूँ समझ में आई
खत्म हुई लड़ाई
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राम शिरोमणि पाठक
(१)
खिलते रंग
उतरे धरा पर
इन्द्रधनुष
मचा धमाल
हाथ में गुलाल
नफ़रत से दूर
गूंजती हंसी
रंगीला होता मन
पागल बन
बहुत प्यारे
करते हुड़दंग
पीकर भंग
रंगों की घटा
प्रेम वर्षा हो रही
आई खुशियाँ
होली पर्व है
बढ़ो प्यारा है ढंग
प्रीति-रीत है
मलिन सोच
जलकर राख हो
होली आई है
(२)
देखो होली आ गयी
खुशियों की बदली छा गयी!!
बहती प्रेम बयार ,
लेकर रंगों की फुहार!
नाचे गाये खूब मगन,
होलिका का कर दहन !
स्नेह सुगंध फैला गयी ,
देखो होली आ गयी!!
हाथ में लिए गुलाल ,
सब करते धमाल !
प्रेम रंग बरसाकर ,
जन जन को हर्षाकर!
मदहोशी अब छा गयी,
देखो होली आ गयी!!
रंगों जैसा रंगीला मन ,
भटक रहा पागल बन !
नफ़रत से सब दूर ,
सौहार्द लिए भरपूर !
भाईचारा फैला गयी,
देखो होली आ गयी!!
देखो रंगों का खेल ,
करवाये दिलों का मेल!
मनहारी सकल सृष्टि ,
जहाँ तक जाती दृष्टि !
वो घड़ी फिर आ गयी ,
देखो होली आ गयी!!
(३)
होली खेलो प्रेम से, हो हिय में सदभाव !
सकारात्मक देखिये, हरदम सखे प्रभाव ॥
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बूढ़े ,बच्चे ,नवयुवक ,आया सबमे जोश !
झूमे मस्ती में सभी ,खोकर अपना होश !!
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प्रेम-जलधि में डूबता , यह सारा संसार!
मिलजुल कर गोता लगा, पाए ख़ुशी अपार !!
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देखो बरसे गगन से ,रंग गुलाल अबीर !
प्रेम भरे इस पर्व पर, हर लो सबकी पीर ।।
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रंग बिरंगे रंग है , सबकी अपनी छाप !
बसों ह्रदय में सुजन के, आकर हे प्रभु आप !!
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लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला
(१)चन्दन से मह्कायेंगे
एक रंगीन सपना अंखियों में समाया
सुन्दर दुल्हे का मुखड़ा जब सामने आया |
शादी वाले दिन यानी "रश दे" को याद कर-
सुन्दर सलौने सपने मन में बुने -
लाल रंग की चुनरिया होगी मेरी,
सफ़ेद रंग घोड़ी पर दूल्हा आएगा,
केसरिया शेरवानी,साफे में चेहरा-
मनमोहक रंगीन माहौल में-
जीवन होगा खूब सुनहरा |
मंद मंद मन मयूर खिला,
तैयारी का चला सिलसिला,
दुल्हे से सपने में बाते होती,
रंग बिरंगी आतिश बाजी होगी |
बाराती काले,नीले,पीले, बेंगनी,
तरह तरह के रंग की पैशाक में
मनमौजी मस्ती के रंग में |
तभी पता चला, इन दिनों-
महंगाई का हर ओर बज रहा है डंका
सफ़ेद घोड़ी की रेट डबल है,
पालकी की "रश रेट्स" की सीमा नहीं,
बढ़िया बैण्ड, सहनाई तो देखो-
इनकी आकाशी कीमते कहर ढा रही |
दुल्हे से मोबाइल पर चर्चा हुई-
अपने जीवन को रंगीन बनायेंगे,
रंग बिरंगी कलियाँ बिखराएंगे,
आँगन कुटी में किलकारी महकेगी,
सुन्दर लाल रंग की रंगोली होगी,
गुलाबी फूलों के महक वाले गजरे-
एक दुजें को पहनाएंगे,
और इस तरह सादगी से ही-
हम अब अपनी शादी रचाएंगे |
माता-पिता, भाई बहन के चेहरे का-
महंगाई में रंग नहीं उड़ने देंगे.
मेहँदी से कलाई को, मोगरे-गुलाब
के फूलों से बालो के गजरे को,
मन मदिर के देव को हम -
चन्दन से मह्कायेंगे |
रंग बिरंगी राखी से हाथ को,
चमकते बिछुए,पायजब से पाँव को,
सिंदूरी मांग पर सुनहरे लाकेट को,
सौलह सिंगार में सजायेंगे |
प्रक्रति के सभी रंगों का,
बसंत में सरसों के खेत में,
होली पर गुलाल अबीर से,
स्नेह भाव जगायेंगे |
मद मस्त हवाओं का,
बगिया की हरियाली का,
प्रातः की सुनहरी लालिमा का,
आपस में बतियाते, छत पर-
चंदा की चांदनी का,
भरपूर आनंद उठाएंगे |
(२)नारी का प्रतिमान
मिल जाए जब आपसे, स्नेह भरा सत्संग,
मन मेरे खिलते रहे, तरह तरह के रंग |
जिन्दगी का प्रतीक है, हरा रंग पहचान,
मुश्किलों को हरा सके,नहीं इतना आसान|
धरती माँ की धैर्यता, नारी है प्रतिमान,
महिला करती सामना, राह करे आसान।
मन में राज छिपाय ले, कहे बैंगनी रंग,
निपुण कला का पारखी, उसका ऐसा ढंग।
सच का प्रतिनिधित्व करे,ये नीला आकाश,
सत्य की राह परचले, करते वही प्रकाश ।
नारंगी रंग प्रतिनिधि, वचनबद्धता मान,
द्रड़ता मन में साधकर, काम करे आसान।
जामुनी तो प्रतीक है, होने का अहसास,
खतरे को झट भाप ले, दूर द्रष्टि रख पास
लाल रंग को जानिये, शौर्य गुणों की खान,
रग रग में जिसके बसे,देश भक्ति की आन।
(संशोधित)
(३)हर कतरा कुर्बान
रंगों में हर रंग ही, गुण रखता है ख़ास,
पारखी यह बता सके, उसको है अहसास ।
रंगों को पहचान कर, रखना उसका मान
बिन रंगों के जिन्दगी, लगती है वीरान ।
रक्तिम कण कण कह रहे, लाल रंग की शान
शौर्य गुणों के खान यह, हर कतरा कुर्बान ।
गौर वर्ण लाजवंती, माँ है गाय समान
बड़े जतन से वह करे, दूजे घर का मान |
पीले हाथ किया विदा, पीली क्यों पड़ जाय,
मुखड़ा पीला देखकर, माँ से रहा न जाय ।
हरा भरा संसार ये, नारी ही रख पाय,
बिन नारी के स्रष्टि भी, कभी नहीं चल पाय
होंठ गुलाबी देखकर, प्रीतम भी इतराय,
बजा बांसुरी श्याम भी,राधी को ललचाय ।
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विजय निकोर
“गुलाल”
होली का गुलाल
मेरे गालों पर आज,
मुझको लगा कि
बरसों पहले का
तुम्हारा हाथ था वह
छू कर मेरे गाल को जो
ओंठों के समेत था सिहर उठा।
कुछ तो था मन में तुम्हारे
मेरे लिए
जो पलकें तुम्हारी झुकी-झुकी
उठ न सकीं,
चुप रहे ओंठ, और
लालिमा तुम्हारे गालों की
होली के गुलाल-सी
उसी पल में असंशय
मुझको स्वीकार कर गई ।
रिश्ता हमारा नया-नया-सा था,
संकोचशील
मैं तुम्हें यह बता न सका
कोई पुराना घाव पहलू में मेरे
था अभी भी घायल बहुत
अत: मैं तुमको दे न सका
आत्मीय स्पन्दन जिस पर
तुम्हारा परम सर्वाधिकार था।
मेरी अस्पष्टता स्वयं
बहुत देर तक मुझको खलती रही,
मुझको आश्चर्य नहीं कि
एक दिन तुम चली गई।
आज होली के रंगों में घुली
तुम्हारी याद
कुछ इस तरह चली आई
इन्द्रधनुषी रंगों से छनकर जैसे
आँगन में मेरे नई धूप मुस्कराई,
उस हल्की भीगी धूप में तुमको
आमँत्रित करने
बाहें मेरी आवेश में बढ़ीं
पर वह वहीं
खुली की खुली रह गईं।
आज होली है, गुलाल है लेकिन
तुम्हारे बिना यह सभी
धूप के टूटे टुकड़े-सा केवल
ख़याल है मेरा।
वह पुराना रिसता घाव
घायल है अभी तक भीतर मेरे,
तुम्हारे अभाव की पीड़ा में आज
इसकी गवाही की मुझको
ज़रूरत नहीं है,
मेरी आँखों को नम करने को अब
केवल यह गुलाल ही काफ़ी है।
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वीनस केसरी
“३ रंग”
१ -
न जाने क्यों
लोगों की नज़र नहीं पड़ती उस चटकीले लाल रंग पर
वो चटकीला लाल रंग, जिसका दूसरा नाम हकीकत है
कहीं ऐसा तो नहीं
हम देख कर अनदेखा कर रहे हैं
जानबूझ कर
वो रंग फीका पड़ता जा रहा है
२ -
रंगीन कोलाहल से घिरे हुए हम
खोज रहे हैं अपने भी भीतर
एक ''ब्लैक एंड वाईट'' दुनिया
खंडित मूर्तियां वरदान नहीं दे सकतीं
मगर पिलाओ तो पी लेती हैं
चम्मच से दूध...... चुपचाप
तुम भूल से भी दूध में रंग मत मिलाना
खंडित मूर्तियां शाप देने को मुक्त हैं
३ -
जबसे पहली बार देखा है
सफ़ेद रंग को
सब काले रंग चिढे हुए है
''क्षुब्धता'' का रंग से क्या लेना देना
वो सिर्फ ''चिढे'' हुए हैं
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वेदिका
(१) “फागुन का हरकारा”
भंग छने रंग घने
फागुन का हरकारा
टेसू सा लौह रंग
पीली सरसों के संग
सब रंग काम के है
कोई नही नाकारा
बौर भरीं साखें है
नशे भरी आँखें है
होली की ठिठोली में
चित्त हुआ मतवारा
जित देखो धूम मची
टोलियों को घूम मची
कोई न बेरंग आज
रंग रंगा जग सारा
मुठी भर गुलाल लो
दुश्मनी पे डाल दो
हुयी बैर प्रीत, बुरा;
मानो नही यह नारा
मन महके तन महके
वन औ उपवन महके
महके धरा औ गगन
औ गगन का हर तारा
जीजा है साली है
देवर है भाभी है
सात रंग रंगों को
रंगों ने रंग डारा
चार अच्छे कच्चे रंग
प्रीत के दो सच्चे रंग
निरख निरख रंगों को
तन हारा मन हारा
(२)रंग
रंग रंग रंग रंग रंग रंग
रंग रंग चहुँ रंग रंग रंग
ब्याह किया परदेस पिया
दुल्हन को घर छोड़ दिया
फिर सास ननद देवर ताने
तेरा छैल न जाने रंग माने
फिर हंस देते फिर कस देते
विरहा में घोला व्यंग-रंग
कोई अनब्याही घर के द्वारे
कुछ सुमर सुमर के रंग पारे
क्या आई तू होली लेके
कोई आजाये डोली लेके
फिर देह सकोचती शर्माती
कुंअरी मन का ये अंग-रंग
इक आंगन में रंग आया है
घर भर का मन हरषाया है
घुटुँअन रेंगे दे किलकारी
इक रंग सभी ने रंगाया है
कुछ अक्षर तुतलाता बसंत
फिर भी सब समझें दंग-रंग
इक रंग हाय एकल इकला
उस साड़ी से सब रंग निकला
अधिकार न उसका रंगों पर
ये प्रश्न दिया मष्तिष्क हिला
क्यों बसंत उसके लिए नहीं
वैधव्य लिए न संग-रंग
(३)भोला ब्याह करेगा
माथे साजे चन्दा है
सर से उखरे गंगा है
हाथ में सजी है शिव के भंग की थारी
भोला ब्याह करेगा
पार्वती शिव प्यारी है
हिम की राज कुमारी है
मैंना की सुकुमारी है
पिया है हमारा भोला बाघ चरम धारी
भोला ब्याह करेगा
भोला मेरा नंगा है
लेके बरात चला
भूतों के साथ चला
बिच्छु औ सांप चला
राजा की बेटी लेने आया भिखारी
भोला ब्याह करेगा
खूब मचा हुर्दंगा है
राख बदन पे भारी है
बैला की सवारी है
सब दुल्हों से न्यारी है
रंगों ने रंग के भोला छबी है निखारी
भोला ब्याह करेगा
रंग रंग कीट पतंगा है
आज महा शिव राती है
गौरा देख लजाती है
मैना होश गवाँती है
कोन को दिए हो बिटिया रानी हमारी
भोला ब्याह करेगा
सबसे बडा अचम्भा है
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शन्नो अग्रवाल
''उड़ें होली के रंग''
न डालो आज रंग में भंग
होली आई छम-छम करती
सतरंगी रंग में आज नहाई
दुल्हन जैसी लगे धरती l
देखो उड़ें गुलाल के बादल
घूँघट में है गोरी हँसती
भीगे-भीगे बदन सब काँपें
चुनरिया किसी की उड़ती l
रंग सरसों के पीले छिटके
पवन चले महकी-महकी
आज बागों में छाई बहार
घटायें उड़ें बहकी-बहकी l
नाचें गलियों में भीगे लोग
ऊँच-नीच की नहीं गिनती
राग होली के गूँजें चहुँ ओर
और हँसी है मुख से झरती l
छाया यौवन नयनों में देखो
ख्वाबों की बहे जहाँ कश्ती
न दिखे भेद-भाव कोई बैर
प्रेम की गंगा हिलोर भरती l
लोग बजायें ढोल-मृदंग
भांग पीकर करें मस्ती
आते-जाते रहें मेहमान
मिष्ठानों की कतार लगती l
न डालो आज रंग में भंग
होली आई छम-छम करती
सतरंगी रंग में आज नहाई
दुल्हन जैसी लगे धरती l
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शरदिन्दु मुखर्जी
(१) पहली रचना
आज रंगों के समारोह में,
हम सबको खो जाना है,
हिंसा, द्वेष, दैन्य, कायरता
आज इन्हें सो जाना है.
विश्व हिला तूफान उठा जब,
दूर अतीत के गह्वर में,
पशुता से मानवता पनपी,
हर पल, हर क्षण, हर कण में.
हमने ही इतिहास रचा है –
कर्म, धर्म औ’ रण आंगन में,
“जीवन” को जीवन दान दिया,
प्रकृति के सुंदर प्रांगण में.
आओ फिर से शपथ आज लें,
बंधुत्व, प्रेम और शुचिता का –
जाति कोई हो भाषा कोई,
धर्म एक हो मानवता का.
भेद-भाव छुपकर आते हैं,
अंधकार की टोली में –
डटकर उनका करो सामना,
आज पवित्र इस होली में.
दूर हटें जो कुछ अशुभ हैं,
जागे फिर से नयी भावना –
होली के पावन अवसर पर,
यही ‘शरद’ की शुभकामना
(२)यहाँ बहुतेरे रंग हैं
यहाँ बहुतेरे रंग हैं
कुछ लाल, कुछ नीले,
सफेद, नारंगी
तो –
कुछ यूँ ही त्रिभंग हैं,
यहाँ बहुतेरे रंग हैं.
फैली-फैली विस्तारित आंखें
ठण्डी नीली क्रूर आंखें,
भूरी, चंचल, कोमल आंखें
भीतर से कितनी बे-रंग हैं,
यहाँ बहुतेरे रंग हैं.
कुछ लम्बे, कुछ ढीले वस्त्र,
कुछ मझले मचलते वस्त्र,
कुछ छोटे शरमाते वस्त्र –
चिपक तन से वे चिल्लाते
‘हम कितने नि:संग हैं’
यहाँ बहुतेरे रंग हैं.
अम्बर में खो जाते पक्षी,
शाखों पर शोर मचाते पक्षी,
दानों को चुग जाते पक्षी,
गीत सुनाते धरती को –
वे अपने में मगन हैं,
यहाँ बहुतेरे रंग हैं.
कितने ही रंग, कितनी बातें
उजले दिन, कजरारी रातें,
कितने सपने, कितने तारे
कुछ उज्ज्वल कुछ टूटे हारे,
महाशून्य की आपाधापी –
जीवन के सूक्ष्म तरंग हैं,
यहाँ बहुतेरे रंग हैं.
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सावित्री राठौर
“वसंत के रंग”
देखो,हर्षाता - मुस्काता आया वसंत,
लेकर अपने साथ प्रसन्नता अनंत।
अब वन -उपवन सब हरे हो गए ,
वृक्ष सब पुष्प -पत्तों से भरे हो गए।
शीत -पतझड़ का नहीं रहा प्रकोप,
वे दोनों मानो धरती से परे हो गए।
पुष्प -गंध से सुवासित हुए दिगंत।।
देखो,हर्षाता - मुस्काता आया वसंत।
दूर -दूर तक खिले हैं सुन्दर सुमन ,
जिन्हें देख हर्षित है सभी का मन।
खेतों में फैली पीली चादर सरसों की,
वसुधा ने ओढ़ी हरी चुनरी मनभावन।
नील परिधान से सुसज्जित अनंत।
देखो, हर्षाता -मुस्काता आया वसंत।
प्रभातकालीन सूर्य की ये लालिमा,
हरती जगत की समस्त कालिमा।
सुनहरी धूप में पलता-बढ़ता संसार,
रात्रि में तारों संग नभ की नीलिमा।
श्वेत चंद्रिका में डूबता फिर अनंत।
देखो,हर्षाता -मुस्काता आया वसंत।
वसंत में ही आये होली का त्योहार ,
बांटे जो जन -जन में असीमित प्यार।
सभी रंगों से गहरा होता प्रेम का रंग,
होली में पड़े सबके मन पर प्रेम -फुहार।
यही है आज,समाज का विषय ज्वलंत।
देखो,हर्षाता -मुस्काता आया वसंत।
लेकर अपने साथ प्रसन्नता अनंत।।
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संदीप कुमार पटेल
पलाश के फूल
गुलाबों की क्यारी
आसमान
समंदर
हरे-भरे गुलशन
सब्ज़ मैदान
मे चटक लाल पीले नीले गुलाबी हरे
और न जाने कितने रंग बिखरे हैं
खुशियों के
जिन्हे देख फूटी जाती हैं
आँखें उस गुलदान की
जिसमे फीके हो चले हैं
काग़ज़ के फूल
जलन से
कैसे झूमते हैं
युवा सज़र
जब लगते हैं इनमे प्रेम के रंगीन
फूल
किसी को लुभाते हैं
किसी को तड़पाते हैं
और
कभी कभी भड़काते भी हैं
अंगड़ाई भरते
ऐसा ही होता है
फूलों का सोलहवां बसंत
इंसान और हैवान दोनो को
आकर्षित करता है
इसका योवन
सड़क में बिखरा हुआ था
मोहक गुलाबी रंग
हर ओर
पसरा था सन्नाटा
लेकिन हलचल थी
जनपथ मे
मचा हुआ था शोर
कुछ मनचले
भवरो ने
नोचा था एक
सोख गुलाब
जिसकी पंखुड़ी पंखुड़ी
तार तार हो
बिखरी थी
सड़क पर
शहरों के
गुलाबी रंग लिए
सुर्ख लाल रंग
समेट रहे थे
कुछ लोग
कहते जा रहे थे
अभी तक नही उतरा
हिना का रंग
कितना चटक है
गहरा है
लगता है एक दो हुए
एक दो दिन ही हुए होंगे
वहीं पास
एक
बिलखती एक औरत
हाथों की चूड़ियाँ तोड़ते
धो रही थी
आँखों के पानी से
हिना के गहरे रंग को
कहती जाती थी
सब झूठ है
फरेब है
हिना का गहरा रंग
रंगीन पंडाल
रंग बिरंगे फूलों से भरा
खचाखच
कुछ अधखिले
कुछ खिले
कुछ मुरझाए
हर तरह के फूल मौजूद
उस पंडाल में
और उँचाई मे
बैठा एक सफेद फूल
इतरा रहा था
सभी को हकारत भरे
देखता
ग्लानि की बात करता
अकड़ता
हर रंग को कमतर मानता
तभी
सहनशीलता तोड़
तिलमिलाई माटी का रंग
ज़मीनी रंग
बोल पड़ा
इतरा ले जीतने दिन हैं
मिलना तो इसी माटी में है
फिर देखूँगा तेरी
ये सफेदपोशी
कैसे रंग दिया
अंग अंग
रंग रंग
ऐसी पिचकारी
मारी भर भर नैन
जिसे देख
मन हो जाता है
आकुल बेचैन
रोज रोज
होली सी
जाता ही नही हैं
कितने नुस्खे न अपनाए
जमाने ने कहा ये पाप हैं
भारी भीड़ मे गंगा नहा ली
शक, से भरे उबटन
लगा लिए
पर हाए रे ढीठ रंग
उतरता ही नहीं
ये इश्क़ का रंग
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सीमा अग्रवाल
“एक फागुनी अहसास का गीत ............”
खुशबुओं से पा संदेशे
मौसमी आभास के
लो भिगो ली रंग में
हमने कलम
उल्लास के
क्या गलत और क्या सही की
सारी पूंजी
बंद कर अलमारियों में
जेब में भर लीं फक़त
कुछ मस्तियों की कौडियाँ
खोल दी बंधक बनी
जकड़ी हुयी
माथे की हर बेचैन सिलवट
और उड़ा दीं ऊबते किस्सों की
सारी चिन्दियाँ
ताक पर रख कर
नियम और कायदों की
हर हिदायत
छा गये हर ओर बादल
अब सघन परिहास के
ढांक कर मुस्कान के परदों
के पीछे
भीत को मायूसियों की
बो दिए अहसास फागुन के हरेक
अवसाद पर
बाँध आँचल में गुलाबी, लाल,
पीले क्षण
मधुर मीठे सुहाने
गा चले दिन झूम कर फिर
ढोलकों की नाद पर
जी उठा जीवन उड़ा
बेख़ौफ़ पहने
फाग के पर
कुछ पलों को ही सही
पल कट गए संत्रास के
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सूबे सिंह सुजान
“कविता- रंग”
मुझे फ़क्र है कि सब मुझे चाहते हैं
ऐसा कौन होगा , जो मुझे न चाहता हो।
जो न भी चाहता हो, तो मैं उसके भी अन्दर बाहर रहता हूँ।
मैं हर दुख,सुख में मौजूद हूँ
मैं पल भर में बदल जाता हूँ
लोगों के मनों में बसा होता हूँ
मैं छोटे पौधों से ज्यादा प्यार करता हूँ
उनके अन्दर बहुत जल्दी बसकर अपना रंग छोड जाता हूँ
सिर्फ पानी के अन्दर मैं सीधा नहीं होता,
लेकिन पानी ही मुझे कंधे पर उठाये ,
हर जगह फिरता है।
सबकी आँखों में,मन में,तन में, धन में,मैं ही नज़र आता हूँ
आदमी अमर हो न हो,
लेकिन मैं अमर हूँ
अमर ही रहूँगा।।।
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सौरभ पाण्डेय
“जीवन के धूसर रंग”
१.
लहूलुहान टेसू.. परेशान गुलमोहर.. सेमल त्रस्त
अमलतास कनैले सरसों.. पीलिया ग्रस्त
अमराई को पित्त
महुए को वात
और, मस्तिष्क ? दीमकों की बस्ती से आबाद !
ओः फागुन, तेरे रंग.. .
अब आज़ाद !!
२.
मांग खुरच-खुरच भरा हुआ सिन्दूर
ललाट पर छर्रे से टांकी हुई येब्बड़ी ताज़ा बिन्दी.. .
खंजरों की नोंक से पूरी हथेली खेंची गयी
मेंहँदी की कलात्मक लकीरें..
फागुन.. और रंगीन हुआ चाहता है !
३.
गुदाज लोथड़े को गींजती थूथन रात भर धौंकती है.. !
कौन कहता है
रंगों में गंध नहीं होती ?
४.
बजबजायी गटर से लगी नीम अंधेरी खोली में
भन्नायी सुबह
चीखती दोपहर
और दबिश पड़ती स्याह रातों से पिराती देह को
रोटी नहीं
उसे जीमना भारी पड़ता है.
५.
फाउण्टेन पेन की नीब से
गोद-गोद कर निकाले गये ताजे टमाटर के गूदे
और उसके रस से लिखी जाती
अभिजात्य कविताएँ
महानगर की सड़कों पर / अब अक्सर
लग्जरी बसों और महंगी कारों में घण्टों पढ़ी जाती हैं
गदबदाये रंगों के धूसर होने तक.. .
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एस के चौधरी
फागन आयो रे मतवालों खेलो होली आज श्याम संग
मेरे मोहन को अनोखो रंग उसके रस में डूबयो अंग
उसकी छटा निराली देख देख शर्मा रहयो आज अनंग
प्यारे कान्हा तेरो है ऐसो करम छाइ है उमंग तरंग ||
मेरो प्यारो बांके बिहारी लाल वाकी बांकी बांकी चाल
रुत है आयी प्यारी प्यारी भिगोये अंग अंग नन्द लाल
तिरछी तिरछी चितवन से जादू चलागयो मदन गोपाल
ओ रे कन्हाई क्या तेरे मन आयी कर दियो लालम लाल ||
सांवली सूरत सज रही पहने मोर मुकुट मले अबीर लाल
पीताम्बर पर छींटे राधा रंग के ब्रज भूमि में मचा धमाल
रतनारे नैनों से मार पिचकारी घायल करे नन्द लाल
छा रही मस्ती आनंद की इंदु मस्त हुआ हर ग्वाल बाल ||
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बहुत सही और बहुत मेहनत का काम! आभार डॉ प्राची जी!
प्रिय वेदिका जी,
आपको यह संकलन पसंद आया और सार्थक लगा, तो रचनाओं को एक साथ संग्रहित करनें का यह प्रयास सार्थक हुआ.
आयोजन समाप्त होने के बाद, संकलन में सभी रचनाओं को एक साथ पढ़ना बहुत आनंदकर होता है, जो भी रचनाएं पड़ने से रह गयी हों, वो बिना पन्ने पलटे एक ही जगह पर मिल जाती हैं, साथ ही आयोगन के तीन दिनों की सारी स्मृतियाँ भी पुनः ताज़ा हो जाती हैं.
सस्नेह.
प्राची
महा उत्सव-२९ की सभी प्रविस्श्तियाँ एक साथ पुनः पढ़कर एक बार फिर उत्सव का आनंद छा गया | इस महती कार्य संपादन
के लिए आदरणीय मंच संचालक श्री सौरभ पाण्डेय जी के साथ ही डॉ प्राची जी का भी हार्दिक आभार
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी,
महोत्सव की सभी प्रविष्टियों को पुनः पढ़, रंगों के आनंद सागर में पुनः उत्सव सा आनंद उठा पाने पर आपका स्वागत है. श्रम को मान देने के लिए आपका हृदय से आभार. सदर.
महा-उत्सव के अंक -29 की समस्त रचनाओं को एक संग पढ़कर आनन्द आया।
इस मूल्यवान संकलन के लिए आभार।
सादर,
विजय निकोर
संकलन के अनुमोदन हेतु आभार विजय जी
आदरणीय सौरभ जी , डॉक्टर प्राची जी आपका प्रयास रंग लाया संकलन के रसास्वादन का सुखद अहसास हुआ। बहुत बहुत बधाई मै भी परीक्षा ,रिजल्ट आदि में अति व्यस्तता के कारण कुछ पढ़ नहीं पा रही थी। आज देख पाई तो एकसाथ भरपूर व्यंजन सा आनंद आया।
अति व्यस्तता के बाद मिले फुर्सत के कुछ पल और होली के शुभ अवसर पर उन पलों में आपने "रंग" विषय पर ही आधारित प्रविष्टियों के संकलन का रसास्वादन किया... मैं समझ सकती हूँ कितना सुखकर रहा होगा ये पाठन..
भरपूर आनंद उठाने के लिए बहुत बहुत आभार आ. मंजरी जी
आदरणीय सौरभ जी एवम आदरणीया प्राची जी , जहाँ तक मुझे स्मरण हो रहा है कि महा-उत्सव अंक में मैंने भी रचना भेजी थी परन्तु संकलन में नहीं दिखी।
आदरणीया मंजरी जी,
मैं पुनः अवलोकन कर लेती हूँ, यदि आपकी रचना संकलित होने से रह गयी है, तो उसे अतिशीघ्र ही संकलित कर लिया जाएगा, .. संज्ञान में लाने के लिए धन्यवाद.
आदरणीया मंजरी जोशी जी,
महोत्सव अंक-२९ की ८४६ रिप्लाई में से आपकी एक भी प्रविष्टि यहाँ तक कि टिप्पणी भी नहीं है... आपको अवश्य ही कोइ गलतफहमी हुई है.
यदि फिर भी आपको लगता है कि आपने रचना भेजी थी, और हमसे संकलित करनें में रह गयी है तो कृपया आपकी प्रविष्टि का लिंक उपलब्ध कराएं, ताकि उसे संकलित किया जा सके.
सादर.
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