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वंदना जी आपका लेख अच्छा है। सच है हमारे भीतर यदि ईश्वर का वास है तो हम इतने अशांत क्यों हैं। उसका कारण है हमारा अपनी इन्द्रियों के प्रति पूर्ण समर्पण। कुछ हद तक शरीर की आवश्यकताएं पूरी करना बुरा नहीं है। नश्वर होते हुए भी यह हमारे कर्मों का माध्यम है। अतः इसे पूर्णतया उपेक्षित करना भी सही नहीं है।
समस्या हमारी अति के कारण उत्पन्न होती है। जब हम सब कुछ भूल कर पूर्णतया इन्द्रियों के नियंत्रण में हो जाते हैं। अतः आवश्यकता संतुलन बनाए रखने की है।
भौतिक बन्धनों को काटकर परमात्मा से जुड़ना, मेरे हिसाब से तो असंभव है । हमें बंधनों सहित ही जुड़ना होगा क्योंकि हम संसारी जीव हैं बंधन काटने के चक्कर में घनचक्कर बन कर रह जाएंगें । हमारे बंधन भी उसी परमात्मा ने रचे हैं । मेरे हिसाब से अपनी हर संवेदना के साथ, अपनी नश्वरता के साथ भी यदि हम उस विराट का चिंतन करते चलें आनंद जरूर रहेगा । कर्म तो करना पड़ेगा, भगवन ने अर्जुन को भी यही कहा था हां एक विशिष्ट बात भी कही थी कि हर कर्म में मेरी प्रसन्नता का ध्यान रखो यानि ऐसा कर्म करो जिससे मुझे प्रसन्नता मिले और ईश्वर की प्रसन्नता एक ही चीज में है ''सर्वे भवन्तु सुखिन:,सर्वे सन्तु निरामया''
आदरणीय आशीष कुमार त्रिवेदी जी आपने बिलकुल सही कहा है-
‘‘जीव को दुःख का अनुभव सदैव होता रहता है जबकि सुख का अनुभव वह करने में असफल ही रहता है। सुख की जानकारी हमें दूसरों के मुख से ही पता चलती है। दुःख तो इस नश्वर संसार में अहंकार, मद, मोह, काम, लोभ आदि के कारण ही बना रहता है। और यह मायावी संसार/प्रक्रृति हमें इन्ही व्यसनों में लगाये रहती है। वास्तव में हम यह समझ नही पाते हैं कि हमें किस मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।‘‘
(कथा का अंश...के0पी0सत्यम)
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