नवगीत हिन्दी काव्यधारा की एक नवीन विधा है। नवगीत एक तत्व के रूप में साहित्य को महाप्राण निराला की रचनात्मकता से प्राप्त हुआ । इसकी प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान की प्रवाहमयी रचनाओं और लोकगीतों की समृद्ध भारतीय परम्परा से है ।
नवगीत विधा नें गीत को संरक्षण प्रदान करने के साथ आधुनिक युगबोध और शिल्प के साँचे में ढाल कर उसको मनमोहक रूपाकार प्रदान करने का काम किया है । समकालीन सामाजिकता एवं मनोवृत्तियों को लयात्मकता के साथ व्यक्त करती काव्य रचनाएँ नवगीत कहलाती हैं। नवगीत में गीत की अवधारणा कदापि निरस्त नहीं होती, अपितु वह तो पूर्णतः सुरक्षित है। गीत के ही पायदान पर नवगीत खड़ा हुआ है।
यदि कोई रचना सिर्फ प्रस्तुति के लिए ही जीवन का चित्रण करती है, यदि उसमें आत्मगत शक्तिशाली प्रेरणा नहीं है, जो हृदय सागर में व्याप्त भावों से निस्सृत होती है, यदि वह जन चेतना को शब्द नहीं देती, यदि वह अंतस की पीड़ा की मुखर अभिव्यक्ति नहीं हैं, यदि वह उल्लसित हृदय का उन्मुक्त गीत नहीं है, यदि वह मस्तिष्क में कोई सवाल उठाने में सक्षम नहीं है, यदि उसमें मन में कौंधते सवालों का जवाब देने की सामर्थ्य नहीं है, यदि वह अमृत रसधार की वर्षा से जन मानस को संतृप्त नहीं करती, तो वह निष्प्राण है, बेमानी है। इसी दृष्टिकोण से किये गए रचनाकर्म में नवगीत के प्राण हैं।
नवगीत में कथ्य, प्रस्तुति के अंदाज, रागात्मक लय और भाव प्रवाह का रचाकार के हृदय में ही नवजन्म होता है। नवगीत जितना ही बौद्धिक आयाम में स्वयं को संयत रखता है और आत्मीय संवेदन की अभिव्यक्ति बनता है , उतना ही खरा उतरता है। समकालीन पद्य साहित्य में नवगीत नें अपने माधुर्य, सामाजिक चेतना और यथार्थवादी जनसंवादधर्मिता के ही कारण अपना एक विशिष्ट स्थान बनाया है ।
नवगीत का शिल्प :
अनुभूति की संवेदनशील अभिव्यक्ति किसी भी रचना को मर्मस्पर्शी बनाती है । महाकवि निराला की सरस्वती वंदना में “नव गति नव लय ताल छंद नव” को ही नवगीत का बीजमंत्र माना गया है ।
नवगीत सनातनी या शास्त्रीय छंदों में प्रयोग के तौर पर प्रारंभ हुए. जैसे, दोहे के मात्र विषम चरण को लेकर साधी गयी मात्रिक पंक्तियाँ, या किसी दो छंदों का संयुक्त प्रयोग कर साधी गयी पंक्तियाँ. आदि-आदि. बाद मे नवगीतकारों ने स्वयंसंवर्धित मात्राओं का निर्वहन करना प्रारम्भ किया और बिम्ब, तथ्य और कथ्य में भी विशिष्ट प्रयोग करने की परिपाटी चल पड़ी. इसी तौर पर आंचलिक या ग्राम्य बिम्बों पर जोर पड़ा.
समकालीन नवगीतकारों दो श्रेणियाँ आज स्पष्ट देखने को मिलती हैं : एक वे हैं जो छंदों को महत्त्व देकर उनकी मर्यादा में रहकर गीत लिखते हैं, और दूसरे वे हैं जो छंद में नए प्रयोग करते हैं और लय आश्रित गीत लिखते हैं । प्रथम मतावलम्बी कहते हैं कि नयेपन के लिए छंद तोड़ना आवश्यक नहीं, बल्कि उसकी सीमा का निर्वहन करते हुए आत्मा और हृदय की मुक्तावस्था को शब्दों, प्रतीकों, बिम्बों, मुहावरों, अलंकारों के द्वारा नयेपन के प्रति प्रतिबद्ध होना आवश्यक है । वहीं दूसरे वर्ग के मतावलम्बी अनुभूतियों की भावात्मक और उन्मुक्त प्रस्तुति के लिए लय व विधान के निर्धारण में भी स्वतंत्रता व अनंत विविधता के पक्षधर हैं ।
नवगीत में एक मुखड़ा व दो-तीन या चार अंतरे होते हैं । हर अंतरे का कथ्य मुख्य पंक्ति से साम्य लिए होता है, व हर अंतरे के बाद मुख्य पंक्ति की पुनरावृत्ति होती है । हर अंतरे में अंतर्गेयता सहज व निर्बाध होती है साथ ही हर अंतरा दूसरे अंतरे व मुखड़े से सम्तुकान्ताता अनिवार्य रूप से रखता है । मुखड़े की पंक्तियाँ ही गीत की अंतर्धारा का निर्धारण करती हैं व गीत की आत्मा को चंद शब्दों में ही प्रस्तुत करने में समर्थ होती हैं ।
नवगीत में असाधारण कथ्य का एक उदाहरण पेश है..
"कांधे पर धरे हुए खूनी यूरेनियम हँसता है तम
युद्धों के लावा से उठते हैं प्रश्न और गिरते हैँ हम”
राधेश्याम बन्धु जी के नवगीत में से अदम्य जिजीविषा और चेतावनी का स्वर का एक उदाहरण देखिये
"जो अभी तक मौन थे वे शब्द बोलेंगे
हर महाजन की बही का भेद खोलेंगे।"
मौसम पर आधारित नवगीत में परोक्ष सन्देश का एक उदाहरण देखिये
"धूप में जब भी जले हैं पाँव घर की याद आयी
नीम की छोटी छरहरी छाँव में डूबा हुआ मन
द्वार पर आधा झुका बरगद-पिता माँ-बँध ऑंगन
सफर में जब भी दुखे हैं पाँवघर की याद आयी”
इस नवगीत में ग्रीष्म का वर्णन भर न होकर संतप्त मनुष्य को अपनी जड़ों की ओर लौटने का परोक्ष संदेश भी निहित है
अटल जी के प्रस्तुत नवगीत में सामयिक कथ्य और पीढा की अनुभूति देखिये
"चौराहे पे लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूँ आखरी चाल
कि बाज़ी छोड़ विरक्ति रचाऊ मैं
राह कौन सी जाऊँ मैं"
अटल जी के नवगीत में आह्वाहन भरी पंक्तियाँ देखिये
"आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।"
नवगीत लेखन में सावधानियाँ :
नवगीत जितना सहज होता है, उतना ही प्रभावशाली होता है। अतिशय प्रयोगशीलता के मोह में यह नहीं भूलना चाहिए कि संप्रेषणीयता भी रचना की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। भाषीय क्लिष्टता और प्रयुक्त बिम्बों की दुरूहता चौंकाती ज्यादा है और सुहाती कम है, जिसके कारण उसका पाठकों व श्रोताओं से सहज संवाद स्थापित नहीं हो पाता । नवगीत का सहज गीत होना भी ज़रूरी है ।
नवगीतों नें सदा से ही लोकजीवन से ऊर्जस्विता ग्रहण की है, किन्तु यह नवगीत का प्रतिमान नहीं है । आँचलिकता रचना में नव्यता लाती है, किन्तु जब आँचलिकता ही प्रधान हो जाए तो वह नवगीत का दोष बन जाती है और रचना का प्रयोजन ही पूरा नहीं करती। भाषायी स्तर पर किये गए अत्यधिक आँचलिक प्रयोग कथ्य की संप्रेषणीयता को कम करते हैं । कभी कभी तो रचनाओं को समझने के लिए शब्दकोशों का सहारा लेना पड़ता है । वास्तव में ऐसी क्लिष्टताओं से मुक्त गीत ही नवगीत होता है। अतः नवगीत में आँचलिक शब्दों को उनके परिवेश के अनुरूप ही संयत तरह से उठाना चाहिए ।
नवगीत में आत्मकथा कहने की प्रवृत्ति नहीं होती । जीवन के सुख-दुःख को विस्तार से समेटने, स्मृति की सिरहनों को सम्पूर्णता से शब्दशः व्यक्त करने , आगत अनागत को चित्रित करने , आपबीती का बखान करने आदि का विस्तार नवगीत में दोष माना जाता है ।
नवगीत में बिम्ब प्रधान काव्यता तो अभिप्रेय है, किन्तु सपाट बयानी नहीं , क्योंकि सपाट सिर्फ गद्य ही होता है, गीत नहीं। सपाट बयानी सम्प्रेषण का माधुर्य हर लेती है, बिना गेयता और प्रवाह के कोई भी अभिव्यक्ति नवगीत नहीं हो सकती ।
नवगीत सदा ही अर्थप्रधान होना चाहिए, कोरी तुकबंदी उसे फ़िल्मी गीत सा सतही, अत्यधिक आँचलिकता उसे लोक-गीत सा आँचलिक और आपबीती का बखान उसे सिर्फ साधारण गीत ही रहने देते हैं ।
नवगीत में मात्रा गणना के नियम :
नवगीत विधा गीत का ही नया आधुनिक स्वरुप है, तो जितने नियम गीत में होते हैं वह तो नवगीत में होंगे ही पर कुछ और नव्यता के साथ...
@सबसे पहले यह समझना ज़रूरी है कि गीत क्या है......?
सुर लय और ताल समेटे एक गेय रचना जो अंतर्भावों की प्रवाहमय सहज अभिव्यक्ति हो
@अब यह जानना होगा कि समान गेयता और सुर लय ताल कैसे आते हैं?
यदि हम मात्रिक नियमों का पालन करते हैं... शब्द संयोजन में कलों के समुच्चय का निर्वहन करते हुए..यानी सम शब्दों के साथ सम मात्रिक शब्द लेकर व विषम शब्दों के साथ विषम मात्रिक शब्द लेकर.
स्वयं ही देखिये कि क्या एक पंक्ति में १४ मात्रा और दूसरी पंक्ति में १७ मात्रा किन्ही दो पंक्तियों में सम गेयता दे सकती हैं?
यह सही है कि मात्रा के निर्धारण में स्वतंत्रता होती है, पर जो निर्धारण मुखड़े में किया जाता है ...यदि अंतरे की अंतिम पंक्ति उसी का पालन नहीं करेगी तो फिर उसी लय में मुखड़े को दोहराया कैसे जाएगा..
यदि मुखड़ा १६, १६ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी ८ या १६ की यति पर होनी चाहियें
यदि मुखड़ा १२, १२ का हो तो अंतरे की पंक्तिया भी १२ की होनी चाहियें
इसमें ....अनंत विविधताएं ली जा सकती हैं इसीलिये इसे नियमबद्ध करना संभव नहीं है....पर एक बात ज़रूर है कि एक ही गणना क्रम का पालन तो पूरे गीत में करना ही चाहिए
अब एक महत्वपूर्ण बात आती है...कि सुधि पाठक जन और रचनाकार कई उदाहरण पेश कर सकते हैं जो इस क्रम का पालन न करते हों, फिर भी नवगीत की श्रेणी में लिए जाते हों... तो इस महत्वपूर्ण बात को समझना आवश्यक है, कि नवगीत विधा को साहित्यकारों का खुला समर्थन अभी तक प्राप्त नहीं है..
दुर्भाग्यवश इस विधा के आलोचक भी नहीं हैं, और जो आलोचक हैं वो पूर्वाग्रह ग्रसित हैं और इस विधा को ही अस्वीकार कर देते हैं तो शिल्प गठन पर तो चर्चा ही नहीं होती..
इस विधा में मात्रा का निर्धारण अभी तक नियमों में आबद्ध नहीं है, लेकिन यदि सुविवेक से कोई भी प्रबुद्ध रचनाकार एक गेयता में पंक्तियों को बाँधता है तो यह मात्रा निर्धारण या वार्णिक क्रम निर्धारण के बिना संभव ही नहीं.. इस बिंदु पर ही एक स्वस्थ चर्चा की आवश्यकता है... इसीलिये मैंने आलेख में किसी भी उदाहरण को प्रस्तुत नहीं किया था...
सभी पाठकों से मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें और इस विधा पर अपनी एक समझ को विकसित होने का सुअवसर दें... न कि किसी भी अपवाद को उदाहरण मान कर नवगीत के प्रतिमान स्थापित कर लें...
सादर.
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नोट: प्रस्तुत आलेख अंतरजाल पर उपलब्ध जानकारियों व तदनुरूप विकसित निजी समझ पर आधारित है.
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खूबसूरत दृश्य हम गढ़ते रहे,
शब्द चित्रों की सफलता के लिए |
मुखड़ा बहुत नया सा और रोचक एक जिज्ञासा उत्पन्न करता हुआ की गीतकार आगे क्या कहने वाला है
नए बिम्ब जैसे सुपारी और सरौता.............
संवेदनाओं की बात ................
हाशियों में भी
नहीं संवेदना
हर नए पन्ने में
खुद की कल्पना
हैं सभी आतुर
नवालता के लिए....वाह मन को झिंझोड़ने वाले शब्द
बहुत ही अच्छा नवगीत कहूंगी मैं तो इसे ......एक पुख्ता गीत जिसमे मानवीय संवेदनाओं की बात है स्वार्थ जनित बदलते मूल्यों की बात है .......बदलती परिस्थियों के नकारात्मक प्रभाव के प्रति चिंता भी है पूरे प्रवाह में है आपका गीत ...छंद का अनुसरण करता हुआ जिन पंक्तियों में मुझे छंद भंग होता दिखा या नवगीत के अनुसार बात करें तो गेयता भंग होती लगी तो वो हैं .....
घर की दीवारों
में हाहाकार है
लक्ष्मी का रूप
अस्वीकार है
हैं सभी आतुर
नवालता के लिए/यहाँ शायद गलती से नवलता की जगह नवालता हो गया है
ऐसे पोस्टों के परिप्रेक्ष्य में यही कहूँगा कि हम अपने नवगीत जिन्हें इसी मंच पर कभी साझा कर चुके हैं के लिंक भर दें, पाठक स्वयं वहाँ पहुँच जायेंगे. और चर्चा हो लेगी. बाहरी लिंक तो वैसे भी मान्य नहीं हैं. इस कारण नई रचनाएँ कहनी पड़ेंगीं.
अन्यथा संदर्भों के लिए अपने पुराने नवगीत-प्रयास से मात्र एक-दो प्रतिनिधि बंद दे दें ताकि तथ्यात्मक बात हो सके. पूरा नवगीत यों भी जगह छेकेगा, साथ ही खतरा यह भी है कि इस पोस्ट से इतर तथ्य अनावश्यक ही महत्वपूर्ण हो जायें
सादर
// ऐसे पोस्टों के परिप्रेक्ष्य में यही कहूँगा कि हम अपने नवगीत जिन्हें इसी मंच पर कभी साझा कर चुके हैं के लिंक भर दें, //
सभी पाठकों से मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें और इस विधा पर अपनी एक समझ को विकसित होने का सुअवसर दें... न कि किसी भी अपवाद को उदाहरण मान कर नवगीत के प्रतिमान स्थापित कर लें...
सादर.
(इस लेख से )
// बाहरी लिंक तो वैसे भी मान्य नहीं हैं. इस कारण नई रचनाएँ कहनी पड़ेंगीं.//
नियम
२(ग) OBO अंतर्गत फोरम, ब्लॉग, टिप्पणी, चैट या और भी कही पर किसी तरह का लिंक/RSS जो दूसरे साइट या ब्लॉग का हो देना मना है, हा विषय के माँग के अनुसार या सन्दर्भ हेतु लिंक देना ज़रूरी हो तो दिया जा सकता है |
मेरा सवाल है कि यदि कोई इस पोस्ट पर विषय मांग के अनुसार नियम २(ग) अनुसार अपने किसी नवगीत का बाहरी लिंक दे कर उस पर सुधिजन की राय जानना चाहे या अन्यत्र प्रकाशित नवगीत को प्रस्तुत कर के उसके गुण दोष पर आलोचना करवाना चाहे जिससे चर्चा आगे बढ़ सके तो क्या यह अनुचित होगा ?
मेरा विनम्र अनुरोध है कि इसे सकारात्मक रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए न कि किसी गीतकार/ रचनाकार की अपनी रचना पढवाने की लालसा के रूप में देखा जाना चाहिए, विशेषकर तब जब चर्चाकार भी ऐसा चाहते हों और उदाहरण स्वरूप रचना प्रस्तुत करने का निवेदन कर चुके हों ....
मुझे पता है कि माहौल को सरस बनाए रखने के लिए कई निर्णय लेने पड़ते हैं जो कड़े होते हैं मगर माहौल और औचित्य को ध्यान में रखते हुए कई बार ऐसी चीजों को स्वीकार करने में भी दिक्कत नहीं दिखती
ख़ास कर तब जब किसी नियम का उल्लंघन न हो रहा हो,
(मेरी जानकारी में अप्रकाशित रचना का नियम ब्लॉग पोस्ट और मासिक/त्रैमासिक आयोजन के लिए है, न कि चर्चा के उदाहरण के लिए, नहीं तो चर्चाकार स्वयं भी इस नियम से बंध जायेगा और पूर्व प्रकाशित रचनाओं को उदाहरण स्वरूप लेख में प्रस्तुत नहीं कर सकेगा)
अब ऐसा भी न हो कि यहाँ उदाहरण स्वरूप रचना को आलोचना के लिए प्रस्तुत किया जाए और तारीफ़ और धन्यवाद का सिलसिला शुरू हो जाए, :)))))))))))
वैसे यह बातें चर्चा कर रहे लोगों की आपसी समझ से भी तय होती हैं
बाकी जैसी प्रबंधन समिति सदस्य पंचों की राय/निर्णय/ इच्छा ...
सादर
स्वयं ही प्रश्न और स्वयं ही समाधान का अच्छा सिलसिला बन गया ! चलिये तथ्य स्पष्ट ही हुए.
जो समाधान आपके उपरोक्त प्रत्युत्तर में अभिव्यक्त हुए हैं, वही तो कारण हैं इस निवेदन के --
अपने पुराने नवगीत-प्रयास से मात्र एक-दो प्रतिनिधि बंद दे दें ताकि तथ्यात्मक बात हो सके. पूरा नवगीत यों भी जगह छेकेगा, साथ ही खतरा यह भी है कि इस पोस्ट से इतर तथ्य अनावश्यक ही महत्वपूर्ण हो जायें.
//मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें और इस विधा पर अपनी एक समझ को विकसित होने का सुअवसर दें... न कि किसी भी अपवाद को उदाहरण मान कर नवगीत के प्रतिमान स्थापित कर लें.//
इस उपरोक्त उद्धरण का, विश्वास है, अब तथ्यार्थ स्पष्ट हो गया होगा.
//संदर्भों के लिए अपने पुराने नवगीत-प्रयास से मात्र एक-दो प्रतिनिधि बंद दे दें ताकि तथ्यात्मक बात हो सके.//
प्रयोजन सिद्ध हो इसके लिए यह आवश्यक है ...स्पष्ट शब्दों में कहने के लिए आभार आ० सौरभ जी
कथ्य के तथ्य को अनुमोदित करने के लिए आपका आभार.
यह सही है, आदरणीया, कि पूरी की पूरी रचना प्रस्तुत होने लगें तो इस पोस्ट का उद्येश्य तो डाइवर्टेड होगा ही, कुछ अति उत्साही पाठक भावातिरेक में यहाँ की प्रस्तुत हुई रचनाओं को अपनी अपनी जबर्दस्त वाहवाही से लाद देंगे.
:-)))
//सभी पाठकों से मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें और इस विधा पर अपनी एक समझ को विकसित होने का सुअवसर दें... न कि किसी भी अपवाद को उदाहरण मान कर नवगीत के प्रतिमान स्थापित कर लें...//
यह लिखने के पीछे मेरा आशय यह था कि पाठक किसी स्थापित साहित्यकार (सुमित्रानंदन पन्त, महादेवीवर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि ) के नवगीत का कोई अंश यहाँ दें है...फिर हम उसकी विवेचना करें.....न कि ये था कि वो अपने नवगीत यहाँ प्रस्तुत करें और उन पर चर्चा हो ....शायद मेरे सम्प्रेषण में अस्पष्टता रह गयी
//पाठक किसी स्थापित साहित्यकार (सुमित्रानंदन पन्त, महादेवीवर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि ) के नवगीत का कोई अंश यहाँ दें जो उन्हें लगता है नवगीत है...फिर हम उसकी विवेचना करें.....न कि ये था कि वो अपने नवगीत यहाँ प्रस्तुत करें और उन पर चर्चा हो //
साहित्य के क्षेत्र में प्रातः स्मरणीय नामों को उदधृत कर आपने अपनी बात कही. ठीक. सीखने के क्रम में उनकी कालजयी रचनाओं का पुनर्प्रस्तुतिकरण उचित ही होगा.
किन्तु, अपने सदस्य अपनी नवगीत-रचना के प्रतिनिधि बंद या उनकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत करें तो उस पर सदस्यों की बेहतर समझ बन सकेगी, ऐसा मेरा मानना है. तभी तो हम सभी आज के अभ्यासकर्ताओं के आधुनिक उदाहरणॊं पर अपनी समझ बना सकेंगे.
आपकी बात से भी सहमत हूँ.... कि हमें अभ्यासकर्ताओं के आधुनिक उदाहरणों को समझना भी उतना ही ज़रूरी है जितना की कालजयी रचनाओं को
सादर.
जी हाँ समझने समझाने में कुछ अस्पष्टता रह गयी थी
अब आशय स्पष्ट है
एक बात और मन में आ रही है तो पूछे चलता हूँ
ग़ज़ल विधा में उस्ताद शाइरों को नजीर माना जाता है और उनकी शाइरी में ऐब निकालना बेअदबी मानी जाती है
क्या हिन्दी में ऐसा नहीं है ?
सुमित्रानंदन पन्त, महादेवीवर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि कि रचनाओं को यहाँ पर उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करके नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करना क्या उचित होगा ?
//ग़ज़ल विधा में उस्ताद शाइरों को नजीर माना जाता है और उनकी शाइरी में ऐब निकालना बेअदबी मानी जाती है क्या हिन्दी में ऐसा नहीं है ?//
यह प्रश्न है या सलाह ?
//सुमित्रानंदन पन्त, महादेवीवर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि कि रचनाओं को यहाँ पर उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत करके नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करना क्या उचित होगा ?//
हिन्दी के महाविभूतियों के साथ उर्दू अदब को बढ़ावा देते कुछ मत या मठ किस तरह की भाषा का इस्तमाल करते हैं या कर देते हैं, क्या यह आपसे छुपा हुआ है ?
लेकिन सर्वोपरि, यहाँ पर उन प्रणम्य साहित्यकारों की रचनाओं से सीखने-समझने की बात हो रही है या उन्हें कसौटी पर रखने की बात हो रही है ?
ऐसी धृष्टता भला कौन करहा है ? ऐसा प्रतीत होना तक वैचारिक हल्कापन होगा. अब अनावश्यक अर्थ-भाव न निकाल लें हम.
नहीं सलाह नहीं प्रश्न ही है ...
किसी मठ के अर्नगल प्रलाप का पालन हम क्यों करें ....
अक्सर चर्चा में होता यही है कि विषय से भटक कर चर्चा व्यक्ति के गुण कर्म पर केंद्रित हो जाती है ...
यहाँ पर उन प्रणम्य साहित्यकारों की रचनाओं से सीखने-समझने की बात हो रही है
यही होना भी चाहिए
अक्सर चर्चा में होता यही है कि विषय से भटक कर चर्चा व्यक्ति के गुण कर्म और सोच पर केंद्रित हो जाती है ...
मगर अर्थ का अनर्थ हो रहा है और मेरा आशय इस ओर ध्यान दिलाना मात्र है ...
//सभी पाठकों से मेरा आग्रह है कि कोई भी उदाहरण आप दें, और फिर हम उद्धृत नवगीत को नवगीत की कसौटी पर नापने तौलने का प्रयत्न करें
यह लिखने के पीछे मेरा आशय यह था कि पाठक किसी स्थापित साहित्यकार (सुमित्रानंदन पन्त, महादेवीवर्मा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आदि ) के नवगीत का कोई अंश यहाँ दें है...फिर हम उसकी विवेचना करें...//
आवश्यक सूचना:-
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