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प्रस्तावना

       साहित्य भाषाओं की सीमाओं के परे होता है। तमाम विधायें एक भाषा में जन्म लेकर दूसरी भाषाओं के साहित्य में स्थापित हुईं। हिन्दी भाषा साहित्य इससे परे नहीं रहा।

       बात छायावाद से शुरू करते हैं। छायावाद काल के काव्य में गीत एवं प्रगीत को प्रमुखता मिली इसीलिए इस काल को प्रगीत काल भी माना जाता है। इस काल के कवियों ने पश्चिमी स्वच्छंदतावादी काव्य के प्रभाव में प्रगीत शैली को अपनाया। वे सर्वाधिक अंग्रेजी प्रगीत काव्य धारा से प्रभावित थे।

       स्वरूप, पाठ्य विशेषताओं और गेयता के आधार पर अंग्रेजी प्रगीत और भारतीय गीत में काफी भिन्नता है। प्रगीत संगीत की लय में नहीं गाए जाते किंतु उनमें पर्याप्त माधुर्य और प्रवाह होता है। संगीत के विधान के अनुरूप गेय पद रचना, जिसमें काव्य एवं संगीत तत्व का संतुलन रहता है, गीत कहलाती है। पश्चिमी विद्वान पालग्रेव के अनुसार, ’प्रगीत (लिरिक) की रचना किसी एक ही विचार भावना अथवा परिस्थिति से संबंधित होती है तथा उसकी रचना शैली संक्षिप्त तथा भावरंजित होती है।’ शैली एवं आकार की दृष्टि से प्रगीत के छः स्वरूप हैं-

1. सॉनेट (चतुष्पदी)

2. ओड (संबोधन प्रगीत)

3. एलिजी (शोक प्रगीत)

4. सेटायर (व्यंग्य प्रगीत)

5. रिफ्लेक्टिव (विचारात्मक प्रगीत)

6. डाइडेक्टिव (उपदेशात्मक)

     

सॉनेट

       सॉनेट इटैलियन शब्द sonetto का लघु रूप है। यह छोटी धुन के साथ मेण्डोलियन या ल्यूट (एक प्रकार का तार वाद्य) पर गायी जाने वाली कविता है।

जन्म

       सॉनेट का जन्म कहाँ हुआ, इस पर मतभेद हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सॉनेट का जन्म ग्रीक सूक्तियों (epigram) से हुआ होगा। प्राचीन काल में epigram का प्रयोग एक ही विचार या भाव को व्यक्त करने के लिए होता था। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि इंग्लैण्ड और स्कॉटलैंड में प्रचलित बैले से पहले सॉनेट का अस्तित्व रहा है। यह भी मान्यता है कि यह सम्बोधिगीत (ode) का ही इटैलियन रूप है। एक मान्यता कहती है कि इस विधा का जन्म सिसली में हुआ और इसे जैतून के वृक्षों की छॅंटाई करते समय गाया जाता था।

इतिहास और स्वरूप

       सॉनेट को विशेष रूप से तीन आयामों में देखा-परखा गया है-

1. आकृति की विशिष्टता

2. भाव की विशिष्टता के साथ वैयक्तिक अभिव्यक्ति।

3. सर्वांगपूर्णता, कल्पना, प्रेरणा और माधुर्य।

 

इटली

       तेरहवीं शताब्दी के मध्य में सॉनेट का वास्तविक रूप सामने आया। फ्रॉ गुइत्तोन को सॉनेट का प्रणेता माना जाता है। इटली के कवि केपल लॉप्ट ने सॉनेट की खोज के लिए फ्रॉ गुइत्तोन को ‘काव्य साहित्य का कोलम्बस’ कहा है। फ्रॉ गुइत्तोन ने स्थापित किया कि सॉनेट की प्रत्येक पंक्ति में दस मात्रिक ध्वनियाँ होना चाहिए। गुइत्तोन के सॉनेट में कुल चौदह चरण होते हैं जो दो भागों में बॅंटे होते हैं-

 

1- अष्टपदी- अष्टपदी में पहली से चौथी की, चौथी से पाँचवीं की और पाँचवीं से आठवीं पंक्ति की तुक मिलायी जाती है। इसी तरह दूसरी से तीसरी की, तीसरी से छठवीं की और छठवीं से सातवीं पंक्ति की तुक मिलती है।

2- षष्ठपदी- षष्ठपदी में प्रायः पहली से चौथी की, दूसरी से पाँचवीं की और तीसरी से छठवीं पक्ति की तुक मिलायी जाती है। यह तीन-तीन चरणों में विभाजित रहती है। इसकी तुकान्त योजना में कुछ भिन्नताएँ भी हो सकती हैं।

       गुइत्तोन और उसके पहले के सॉनेट रचनाकारों ने Guido Bonatti द्वारा ग्यारहवीं सदी में स्थापित सांगीतिक अनुशासन को अपनाकर सॉनेट की संरचना को गढ़ा। गुइत्तोन का मानना था कि कोई भी सॉनेट लेखक अपनी सांगीतिक पद्धति भी बना सकता है।

       इसके बाद इटली के ही पेट्रार्का ने सॉनेट लिखे। पेट्रार्का की मान्यता थी कि सॉनेट का अन्त शुरूआत से अधिक लयात्मक होना चाहिए। पेट्रार्का और दान्ते ने गुइत्तोन सॉनेट में बदलाव भी किये। पेट्रार्का ने इसके लिए तीन तुकें निर्धारित की हैं। बाद में सॉनेट को तासो और अन्य कवियों ने भी अपनाया। इटली में प्रमुखतः सॉनेट के पाँच रूप मिलते हैं-

1. Twelve-syllabled lines (द्वादश मात्रिक सॉनेट)- इसमें एक पंक्ति में द्वादश मात्रिक ध्वनियाँ होती हैं। स्वर पर जोर नहीं होता, अन्त्याक्षर से तुक मिलायी जाती है।

 

2. Caudated or Tailed (पुच्छल सॉनेट)- इसमें दो या पाँच या इससे अधिक पंक्तियों का अनपेक्षित विस्तार होता है ।

3. Mute- यह एकाक्षरी तुकान्त वाला सॉनेट हास्य और व्यंग्य के लिए उपयुक्त होता है। इसमें दो अक्षर के तुकान्त भी होते हैं।

4. Linked or Interlaced (अन्तर्ग्रथित सॉनेट) - इसमें कोई कथा, भाव या विचार संगुम्फित होता है।

5. Conutinuous or Iterating (अविच्छिन्न सॉनेट)- इसमें ज़्यादातर एक ही तुक की सप्रवाह पुनरावृत्ति होती है। कभी दो तुकें भी मिलायी जाती हैं।

इंग्लैण्ड

       सॉनेट को फ्रांस के कवियों, इंग्लैंड में सरे और स्पेन्सर तथा स्पहानी कवियों ने भी अपनाया। जर्मनी में पेट्रार्कन शैली के सॉनेट रचे गये। अंग्रेजी में इसे सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन, वर्डसवर्थ और कीट्स ने रचा।

       सोलहवीं सदी में सर्वप्रथम Thomas wyat और Henry Howord (सरे) ने अँग्रेज़ी में सॉनेट लिखे। ये दोनों इटली में निवास के दौरान पेट्रार्का की कविताओं से प्रभावित हुए। Thomas wyat इटैलियन मॉडल को अपनाकर सॉनेट लिखते रहे। Henry Howord ने चौदह पंक्तियों की इतालवी शैली के साथ प्रयोग करते हुये दो तुकान्त संरचना अपनायी जो कि अँग्रेज़ी भाषा के लिए अधिक उपयुक्त थी-

A-b-A-b

C-D-C-D

F-F-F-F

G-G

       स्पेन्सर, शेक्सपियर और मिल्टन तीनों के सॉनेट इतालवी स्वरूप से भिन्न हैं। इनमें अष्टपदी और षष्टपदी के बीच अन्तराल दिखाई पड़ता है, लेकिन दोनों बँटे हुए नहीं है।

       स्पेन्सर ने इटैलियन और आरंभिक अँग्रेज़ी सॉनेट संरचनाओं को मिलाकर नया सॉनेट फॉर्म तैयार किया और इसी बदले रूप के साथ उन्होंने प्रेम सॉनेट ‘Amoretti’ शीर्षक से लिखे। एलिजाबेथ काल में बड़ी संख्या में लेखकों ने सॉनेट लिखे। फिलिप सिडनी ने इन्हें पूर्णता और सुन्दरता प्रदान की।

       स्पेन्सर के फॉर्मेट को शेक्सपियर और मिल्टन ने नहीं अपनाया क्योंकि इसमें छांदिक स्वान्त्रय नहीं था। शेक्सपियर ने डेनियल और ड्राइटन के सॉनेट ढाँचे को अपनाया। शेक्सपियर के सॉनेट अष्टपदी और षष्टपदी के बजाय तीन चतुष्पदियों और एक द्विपदी लय से बँधे हैं। शेक्सपियर की 'Sonnet 116' में से कुछ पंक्तियाँ संदर्भ के लिए प्रस्तुत हैं।

‘Let me not to the marriage of true minds (a)
Admit impediments, love is not love (b)*
Which alters when it alteration finds, (a)
Or bends with the remover to remove.’ (b)*


       मिल्टन के सॉनेट अष्टपदी और षष्टपदी के बीच नैरन्तर्य के लिए जाने जाते हैं। मिल्टन की एक रचना 'On His Blindness' की कुछ पंक्तियां यहाँ उदाहरण के रूपमें प्रस्तुत हैं जिससे इतालवी प्रारूप का आभास मिलता है-

‘When I consider how my light is spent (a)
 Ere half my days, in this dark world and wide, (b)
 And that one talent which is death to hide, (b)
 Lodged with me useless, though my soul more bent’ (a)


       इस प्रकार अंग्रेजी सॉनेट रचना की चार कोटियाँ निर्धारित की जा सकती हैं-

1. पेट्रर्कन

2. स्पेन्सरियन

3. शेक्सपीरियन

4. मिल्टानिक

भारत

       भारतीय उपमहाद्वीप में सॉनेट असमी, बंगाली, डोंगरी, अंग्रेजी, गुजराती, हिन्दी, कश्मीरी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, सिन्धी, उर्दू आदि सभी भाषाओं में लिखे गये।

उर्दू

       ऐसा माना जाता है कि अज़मतुल्ला खान ने बीसवीं सदी के प्रारम्भ में इस विधा से उर्दू साहित्य का परिचय कराया। अख्तर जूनागढ़ी, अख्तर शीरानी, नून मीम राशिद, मेहर लाल सोनी, ज़िया फतेहबादी, सलाम मछलीशहरी, और वाज़िर आगा ने इस विधा पर हाथ आजमाए। ज़िया फतेहबादी के संग्रह ‘मेरी तस्वीर’ के एक सॉनेट, जो कि शेक्सपियर के सॉनेट के बहुत करीब है, की पंक्तियाँ देखें-

‘नज़र आई न वो सूरत, मुझे जिसकी तमन्ना थी (c)

बहुत ढूंढा किया गुलशन में, वीराने में, बस्ती में (d)

मुनव्वर शमा ऐ मेहर ओ माह से दिन रात दुनिया थी (c)

मगर चारों तरफ था घुप अंधेरा मेरी हस्ती में’ (d)

हिन्दी

       हिन्दी में सॉनेट बीसवीं सदी में आया। हिन्दी के कुछ कवियों ने इसे अपनाया जरूर लेकिन इस विधा पर बहुत अधिक ध्यान केन्द्रित नहीं किया गया।

       त्रिलोचन शास्त्री हिन्दी काव्य में सॉनेट के स्थापक माने जाते हैं। त्रिलोचन ने लगभग ५५० सॉनेटों की रचना की है।  त्रिलोचन ने इस विधा का भारतीयकरण किया। इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोकरंग में रंगने का काम किया। उनके सॉनेट में 14 पंक्तियाँ होती हैं और प्रत्येक पंक्ति में 24 मात्रायें। सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया। त्रिलोचन द्वारा इस विधा पर किए गए प्रयोगों की बानगी इन उदाहरणों में देखें-

'विरोधाभास' 
‘संवत पर सवत बीते, वह कहीं न टिहटा,
पाँवों में चक्कर था। द्रवित देखने वाले
थे। परास्त हो यहाँ से हटा, वहाँ से हटा,
खुश थे जलते घर से हाथ सेंकने वाले।‘

आरर-डाल

‘सचमुच, इधर तुम्हारी याद तो नहीं आयी,

     झूठ क्या कहूं। पूरे दिन मशीन पर खटना,

बासे पर आकर पड़ जाना और कमाई

     का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना।‘

बिल्ली के बच्चे

‘मेरे मन का सूनापन कुछ हर लेते हैं

     ये बिल्ली के बच्चे, इनका हूं आभारी।

     मेरा कमरा लगा सुरक्षित, थी लाचारी,

इनकी माँ ले आई। सब अपना देते हैं’

प्रभो, पुत्र वह माँग  रही है

‘प्रभो, पुत्र वह माँग रही है।‘ ‘लिखा नहीं है।‘

फिर गोस्वामी तुलसीदास और क्या कहते।

तो भी दासी की विनयों में बहते-बहते।

तीन बार पूछा। प्रभु बोले, ‘लिखा नहीं है।‘

नामवर सिंह की एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें।

‘बुरा जमाना, बुरा जमाना, बुरा जमाना

लेकिन मुझे जमाने से कुछ भी तो शिकवा

नहीं, नहीं है दुख कि क्यों हुआ मेरा आना

ऐसे युग में जिसमें ऐसी ही बही हवा’

       त्रिलोचन की एक पूरी सॉनेट यहाँ उदाहरण के रूप् में प्रस्तुत है जो इसके स्वरूप, गेयता और तुकांत के लिए अच्छा उदाहरण हो सकती है-

सॉनेट का पथ

इधर त्रिलोचन सॉनेट के ही पथ पर दौड़ा;

              सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट, सॉनेट; क्या कर डाला

             यह उस ने भी अजब तमाशा। मन की माला

गले डाल ली। इस सॉनेट का रस्ता चौड़ा

 

अधिक नहीं है, कसे कसाए भाव अनूठे

     ऐसे आएँ जैसे क़िला आगरा में जो

           नग है, दिखलाता है पूरे ताजमहल को;

गेय रहे, एकान्विति हो। उस ने तो झूठे

ठाटबाट बाँधे हैं। चीज़ किराए की है।

    स्पेंसर, सिडनी, शेक्सपियर, मिल्टन की वाणी

    वर्ड्सवर्थ, कीट्स की अनवरत प्रिय कल्याणी

    स्वर-धारा है, उस ने नई चीज़ क्या दी है।

 

    सॉनेट से मजाक़ भी उसने खूब किया है,

    जहाँ तहाँ कुछ रंग व्यंग्य का छिड़क दिया है।

       त्रिलोचन के बाद इस विधा पर बहुत कम काम देखने को मिलता है। आज जरूरत है इस विधा को हिन्दी में स्थापित करने की।

                                                              - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

 

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Replies to This Discussion

आपका फिर से आभार केवल भाई!
आप विषय पर चर्चा में सतत प्रतिभागिता दें और अपने मत रखें जिससे इस विधा को आगे ले जाने के सार्थक प्रयास हो सकें।
आपकी सतत उपस्थिति की कामना के साथ!
सादर!

हाइकु और ग़ज़ल के आगे भी इसी क्रम में सूची जाती है. यथा, कव्वाली, नात, कत्अ, हाइगा, तांका आदि-आदि

आदरणीय केवल जी!

//एक प्रश्न मेरा और है- हिन्दी में सानेट का नामकरण हुआ? यदि नहीं तो क्यों ? यदि भविष्य में होगा तो क्या होगा? //
 इस तरह के असंबंधित प्रश्न उठाना कोई बुद्धिमत्ता नही।  अगर आप सॉनेट विधा से सम्बन्धित जानकारी रखते है तो कृपया लेख को समृद्ध करने में सहायक बने।
 
आपके माध्यम से मंच पर एक बात रखना चाहती हूँ- जैसा की आदरणीय बृजेश जी के प्रतिक्रिया से जाहिर हो रहा है की मंच से ही उनको अनुरोध आया था सॉनेट विधा पर लेख लिखने के लिए। यदि यह लेख अनुपयुक्त होता तो अब तक आदरणीय एडमिन जी द्वारा हटा दिया जाता।
अनुरोध है की स्वयं भी साहित्य सम्बन्धित वार्ताओं का लाभ लेवें और पाठकों को भी लाभान्वित होने दें।  

सादर !    

आ0 गीतिका जी, सादर प्रणाम!  यहां लाभ पाने की ही ललक है।  यदि पूर्व में ही इतना अच्छा लेख पढ़ने को मिल जाता तो शायद मैं भी किसी एक सानेट विधा में रचना पोस्ट कर चुका होता।  मैं तो प्रारम्भ से ही आ0 बृजेश जी का समर्थन कर रहा हूं।  बात बुध्दिमत्ता की नहीं बल्कि बात है अपने जिज्ञासु मन को समझाने की, और ऐसे में जो भी प्रश्न उठते हैं वह ज्ञान बढ़ाने का ही कार्य करते  हैं।   आपका हार्दिक आभार।  सादर,

आदरणीय केवल जी!

// यदि पूर्व में ही इतना अच्छा लेख पढ़ने को मिल जाता तो शायद मैं भी किसी एक सानेट विधा में रचना पोस्ट कर चुका होता।//

तो क्या किसी रचना को लिखने के लिए आप हमेशा किसी लेख का इन्तजार करते हैं, और अभी तक इक भी सॉनेट न लिख पाने का दोष भी ये लेख लिखने वाले के सर थोप देते है ??? आपको नही लगता की अगर कोई विधा विशेष रचना करना है तो नेट पर सम्बन्धित जानकारियां खोजी जा सकतीं है

जब से लेख प्रकाशित हुआ है, तब से अगर आप ये व्यर्थ के वाद विवाद में न शामिल होते तो आप शायद अब तक एक नही, दो सॉनेट लिख चुके होते !!

और आप जिस सॉनेट को लिखने में रूचि ले रहे है अगर आपको स्मृति में हो तो मेरी पहली सॉनेट रचना में आपके यही विचार थे न ......

//

आ0 वेदिका जी,  सादर प्रणाम!     एक अच्छा प्रयास।  आपको तहेदिल बहुत-बहुत शुभकामनाएं।  आ0 प्राची मैम जी की बात

//हिन्दी में इतने सुन्दर सुन्दर लालित्यपूर्ण छंदों को छोड़ कर एक अस्थापित विधा का मोह मेरी समझ से परे है..// में बहुत दम है। सादर  //

क्या कहा जाये जब आप स्वयम ही विरोधाभास का बिम्ब रच रहे है| 

सादर !!

इस परिचर्चा में उपस्थित समस्त सुधी वृन्द मेरा सादर अभिनन्दन स्वीकारें!
आदरणीय बृजेश महोदय यह शोधात्मक लेख प्रस्तुत करने के लिए आपको बहुत धन्यवाद!इस बोधगम्य लेख में आपका परिश्रम स्पष्ट दिख रहा है आदरणीय।
क्या मुझे सही आभास हो रहा है कि परिचर्चा में कुछ-कुछ आवेश की बू आने लगी है! आप सभी से निवेदन है कि यदि इस विधा को हिन्दी में लाने के प्रयास को गति देने की पहल की ही है तो सकारात्मकता बनाए रखें।
सानेट एक ऐसी विधा है जिसने इटैलियन,फ्रेच,रूसी,आस्ट्रेलियन आदि विश्व की अनेक भाषाओं में महत्वपूर्ण स्थान बनाया। लेकिन सदियाँ बीत गईं हिंदी में यह विधा क्यों आगे नहीं बढ़ पा रही है रही है??
एक भाषा से दूसरी भाषा सानेट स्थान्तरित होने पर में कुछ न कुछ परिवर्तन अस्तित्व में अवश्य आए। जैसे एक मोटा सा एक उदाहरण है कि इटैलियन सानेट्स मुख्यतय: henecasyllables में लिखी जाती थीं, फ्रांसीसी में alexendrine में और तब अंग्रेजी में pentameter में लिखीं गईं। 20वीं सदी में एक और भेद अस्तित्व में आया जो कि pushkin stanza में था, इसका श्रेष्ठतम् उदाहरण विक्रम सेठ जी की उपन्यास 'गोल्डेन गेट' है।
इसके अतिरिक्त भी अनेक विसंगत प्रयोग हमारे समक्ष हैं,जो सानेट के मूलभूत सिद्धान्तो से बहुत हटकर हैं(उनकी चर्चा करना शायद यहाँ प्रासंगिक नही है)।
आदरेया प्राची जी आपकी रोचकतापूर्ण टिप्पणी प्रणम्य है। आपको थोड़ा सा टोकते हुए निवेदन करना चाहूंगी कि अंग्रेजी हाइकूज़ syllables के आधार पर लिखे जाते हैं पर हिंदी में इनके लिखने का आधार बदला है,ऐसे ही त्रलोचन जी ने भी थोड़ा-थोड़ा परिवर्तन करते हुए लगभग सभी भाषाओं के प्रयोग किये हैं,वों उन्होने सानेट की क्लिष्टता समझे विना तो नहीं किये होंगे न?
रही बात स्ट्रेस्ड/unstressed की तो मुझे लगता है,हिन्दी में भी इसका पालन अवश्य करना चाहिए,लेकिन अभी तक मैने त्रिलोचन जी की कुछ सानेट्स पढी हैं,उनमें ऐसे सिद्धान्त का पालन मेरे संज्ञान में नहीं आ पाया।
जबकि आपके द्वारा संदर्भित किये गये किये गये मुख्य नियम-
*Iambic Pentameter/ pentameter(not 'Iamb')
*Forteen lines
*Volta (यद्यपि ये मैं अभी बहुत अच्छी तरह नहीं समझ पाई,उन्होंने मोड़ तो दिये हैं सानेट्स में,ऐसा अनुभव स्पष्ट मुझे हो रहा है)
से कहीं अधिक नियम उन्होने अपनी सानेट्स में शामिल किये हैं।
इसलिए आप सभी से निवेदन है कि त्रलोचन जी को समझते हुए इस विधा को आगे बढाने मे सब मिल कर प्रयास करें।
त्रिलोचन जी नकारने से पहले उन्हें समझने का अवश्य प्रयास करना चाहिए,ऐसा मुझे लगता है।
सादर

आदरणीय वंदना जी आपका हार्दिक आभार!

मैं वोल्टा (Volta) को जैसा समझ पाया हूं वह यह कि पहली आठ लाइन में आपने अपनी बात कही और फिर नवीं लाइन से आपने कथन मोड़ लिया कथन के निष्कर्ष की ओर।

जैसे ‘सॉनेट का पथ’ में आप देखें त्रिलोचन ने सॉनेट पर अपने कार्य का जिक्र करते हुए उसकी विशेषताएं गिनाते हुए नवीं पंक्ति से एक हल्का मोड़ लिया है यह कहते हुए कि उन्होंने नया काम क्या किया है?

//उस ने तो झूठे

ठाटबाट बाँधे हैं।//

आदरणीय,
सबसे पहले आपको प्रणाम करता हूँ

यह ओ बी ओ मंच की परिपाटी है कि यहाँ पर ऐसी विधाओं पर काम होता है जिसमें समकालीन काव्य शुष्कता ही नहीं बंजरपाने को झेल रहा होता है

ओ बी ओ पर ऐसी जमीनों को फिर से हरा भरा करने का काम होता रहा है जिसमें छन्न पकैया और कहमुकरियों को पुनर्जीवित करने का काम भी हुआ है और छंदों की ओर लौटने का एक अभियान भी छेड़ा गया है ...
इस लेख को मैं इस अभियान की एक नवीन कड़ी के रूप में देखता हुआ और आह्लादित हूँ,
जिस प्रकार तथ्यों को प्रस्तुत करते हुए चर्चा की गई है वह आपकी अथक परिश्रम को शब्दचित्र के रूप में प्रस्तुत कर रहा है

और लेख की शुरुआत अहा !!!
भूमिका स्वरूप प्रस्तुत किये गये वाक्य ऐसे सार्वभौमिक हैं कि किसी भी भाषा में आए किसी भी काव्य विधा का परिचय देते हुए भूमिका के रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं ...

मजेदार बात ये है कि त्रिलोचन जी के चतुष्पदी में मैंने एक मजेदार बात देखी .. एक मतला लिखिए फिर उसके दोनों मिसरों के बीच एक और मतला लिख दीजिए .. बस् सानेट तैयार :)))))) हाँ मात्राओं का ध्यान देना होगा :)))))))))) खैर ये तो हास परिहास की बात हुई

जिस प्रकार आपने ओबीओ पटल पर एक नया अध्याय जोड़ा है ऐसे ही अध्याय हम सब साद प्रयासों से जोडते रहें, इसी शुभकामना के साथ ...
सादर

आदरणीय वीनस जी आपका हार्दिक आभार! आपके शब्दों से बहुत प्रोत्साहन मिला।हिंदी में इस विधा के लिए फिर से जमीन तैयार करने की जरूरत है। अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में धूम मचा चुकी इस विधा से हिंदी की दूरी हजम नहीं हो रही है।

आपकी टिप्पणी के इस अंश ने एक रास्ता सुझाया है हिन्दी सानेट के लिए। मैं चाहूंगा कि इस पर आगे चर्चा हो।

//एक मतला लिखिए फिर उसके दोनों मिसरों के बीच एक और मतला लिख दीजिए.. बस् सानेट तैयार: हाँ मात्राओं का ध्यान देना होगा://

आपका हार्दिक आभार!

:)))))))))))))

मतले वाली बात ये तो मैंने हास परिहास के लिए कही थी, इसमें से कोई रास्ता निकाल रहे हैं ये आपकी नवाज़िश है

वीनस भाई आपके हास परिहास से भी रास्ते निकल आते हैं।

वैसे लिखने के लिए मुझे यह सूत्र काफी उपयोगी लग रहा है। 'मतले के दो मिसरों के बीच एक और मतला'। समझने में भी लोगों को बहुत आसानी होगी।

ओह  !!!
आप तो सीरियस हैं .. :))))))))))

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