For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

कल का किस को पता है

कल का किस को पता है

 

 

तुम कहते थे न

"कल का किस को पता है?"

और मैं इस पर हर बार ...

हर बार हँस देती थी,

इतिहास का वह सम्मोहक टुकड़ा

उढ़ते भूरे सफ़ेद बादल-सा

सैकड़ों कल को ले कर बीत गया,

कब आया, कब बूंद-बूंद रीत गया।

 

असंगत तर्कों के तथ्यों का विश्लेषण करती

सूक्ष्मतम मानसिक वृतियों से भयभीत,

आए-गए अब अपने अकेले में

मैं भी दुरहा दिया करती हूँ...

"कल का किस को पता है?"

 

ज़िन्दगी के दुराहे पर मध्य-रात्रि के सूने में

मैं असन्तुलित खड़ी शिलामूर्ति

उलझे दर्दीले ख़यालों की लड़ी में

अश्रुपूरित, मुठ्ठी-भर हवा को लिए अंजली में,

छोड़ देती हूँ उसे कुछ तुम्हारी तरह,

मज़ाक-मज़ाक में तुम कह देते थे न ...

"लो मुक्त कर दिया तुमको,"

मुझको तो तुमसे कभी भी मुक्ति की नहीं,

तुम्हारी बाहों के बंधन की ज़रूरत थी,

बंधन कि जिसको केवल तुमसे मिलने पर मुखरित

मेरी झुकी पलकों की झलक ही पहचान सकती थी।

 

उस एक झलक के पीछे उमड़ता मेरा स्नेह-सागर --

जो लगता था तुम्हें था संबल तुम्हारे लिए,

और मैं उस सागर की हिल्लोलित लहरों में

तुम्हारे संग बीती उस सिर्फ़ एक शाम में जैसे

अपनी सारी अनछुई ज़िन्दगी को जी लेती थी।

 

अब मैं इस दुराहे पर अकेली खड़ी प्रतीक्षार्थ

ढूँढती हूँ तुम्हारा चेहरा, तुम्हारा हाथ

कि शायद मेरी ज़िन्दगी शोर में भी सुन ले

तुम्हारी बात, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारा प्यार,

और तुम्हारी खुली हुई फैली बाहें कह दें मुझसे,

" यह लो मेरा हाथ, चलो मेरे साथ ...

 .... कल का किस को पता है !"

 

--------

 

-- विजय निकोर

२३ जून, २०१३

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 654

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by vijay nikore on September 6, 2013 at 9:04am

आदरणीया प्रियंका जी:

 

आपके उत्साहवर्धन से उक्त रचना सार्थकता को प्राप्त हुई।

हार्दिक धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by Priyanka singh on September 5, 2013 at 11:01pm

अब मैं इस दुराहे पर अकेली खड़ी प्रतीक्षार्थ

ढूँढती हूँ तुम्हारा चेहरा, तुम्हारा हाथ

कि शायद मेरी ज़िन्दगी शोर में भी सुन ले

तुम्हारी बात, तुम्हारी आवाज़, तुम्हारा प्यार,

और तुम्हारी खुली हुई फैली बाहें कह दें मुझसे,

" यह लो मेरा हाथ, चलो मेरे साथ ...

 .... कल का किस को पता है !"

कोई शब्द नहीं सर ....क्या कहूँ ....कुछ मन का सा कह दिया अपने .....बहुत बहुत बधाई सर ....

Comment by vijay nikore on September 1, 2013 at 4:36pm

आदरणीय केवल प्रसाद जी:

 

//सूक्ष्म रहस्य और गहन अन्तर्तम में संशय पूर्ण जीवन को दर्शाती सुन्दर रचना //

 

यह रचना आपको अच्छी लगी, मैं धन्य हुआ। हार्दिक धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

 

Comment by vijay nikore on September 1, 2013 at 4:33pm

आदरणीय विजय मिश्र जी:

 

//सुंदर भाव लिए एक स्वस्थ कविता जो दो-तीन बिंदुओं पर तो स्पष्ट हृदय स्पर्श करती है//

 

रचना के अनुमोदन के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on September 1, 2013 at 4:31pm

आदरणीय अरून जी:

 

//बहुत ही गहन भाव लिए हुए सुन्दर रचना//

 

इस सराहना के लिए आपका आभारी हूँ।

स्नेह बनाए रखें।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on September 1, 2013 at 4:28pm

आदरणीय शर्दिन्दु भाई:

 

//सम्बंधों की मनमोहक व्याख्या है आपकी इस रचना में....और इस विधा में आप अद्भुत पारंगत हैं. भाव विह्वल करने वाली रचना से हमें आप्लुत करने के लिए हार्दिक आभार.//

 

यह कह कर आपने जो मान मुझको दिया है उसके लिए मैं हृदयतल से आभारी हूँ।

धन्यवाद, आदरणीय।

 

सादर,

विजय निकोर

Comment by vijay nikore on August 30, 2013 at 12:30pm

आदरणीय गिरिराज जी:

 

//बहुत बेहतरीन भाव अभिव्यक्ति , वाह वाह !! दिली बधाई !!!!//

 

आपकी प्रतिक्रिया उत्साहवर्धक और प्रेरक है मेरे लिए।

हार्दिक धन्यवाद।

 

सादर,

विजय निकोर

 

 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 26, 2013 at 8:11pm

आ0 निकोर सर जी, सादर प्रणाम! /असंगत तर्कों के तथ्यों का विश्लेषण करती
सूक्ष्मतम मानसिक वृतियों से भयभीत
आए.गए अब अपने अकेले में/ सूक्ष्म रहस्य और गहन अन्तर्तम में संशय पूर्ण जीवन को दर्शाती सुन्दर रचना। हृदयतल से बहुत-बहुत बधाई स्वीकारें। सादर,

Comment by विजय मिश्र on August 26, 2013 at 5:14pm
"सूक्ष्मतम मानसिक वृतियों से भयभीत,
आए-गए अब अपने अकेले में
मैं भी दुरहा दिया करती हूँ...
"कल का किस को पता है?" -----सुभ्यस्त मन अनमने उहापोह में यूँही यंत्रवत संचलित ह्होता रहता है . सुंदर भाव लिए एक स्वस्थ कविता जो दो-तीन बिंदुओं पर तो स्पष्ट हृदय स्पर्श करती है . हार्दिक बधाई विजयजी .
Comment by अरुन 'अनन्त' on August 26, 2013 at 1:52pm

कल का किसको पता है सत्य कहा आपने आदरणीय बहुत ही गहन भाव लिए हुए सुन्दर रचना हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to मिथिलेश वामनकर's discussion ओबीओ मासिक साहित्यिक संगोष्ठी सम्पन्न: 25 मई-2024
"धन्यवाद"
14 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to मिथिलेश वामनकर's discussion ओबीओ मासिक साहित्यिक संगोष्ठी सम्पन्न: 25 मई-2024
"ऑनलाइन संगोष्ठी एक बढ़िया विचार आदरणीया। "
14 hours ago
KALPANA BHATT ('रौनक़') replied to मिथिलेश वामनकर's discussion ओबीओ मासिक साहित्यिक संगोष्ठी सम्पन्न: 25 मई-2024
"इस सफ़ल आयोजन हेतु बहुत बहुत बधाई। ओबीओ ज़िंदाबाद!"
21 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Dr.Prachi Singh replied to मिथिलेश वामनकर's discussion ओबीओ मासिक साहित्यिक संगोष्ठी सम्पन्न: 25 मई-2024
"बहुत सुंदर अभी मन में इच्छा जन्मी कि ओबीओ की ऑनलाइन संगोष्ठी भी कर सकते हैं मासिक ईश्वर…"
Sunday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a discussion

ओबीओ मासिक साहित्यिक संगोष्ठी सम्पन्न: 25 मई-2024

ओबीओ भोपाल इकाई की मासिक साहित्यिक संगोष्ठी, दुष्यन्त कुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय, शिवाजी…See More
Sunday
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167
"आदरणीय जयनित जी बहुत शुक्रिया आपका ,जी ज़रूर सादर"
Saturday
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167
"आदरणीय संजय जी बहुत शुक्रिया आपका सादर"
Saturday
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167
"आदरणीय दिनेश जी नमस्कार अच्छी ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार कीजिये गुणीजनों की टिप्पणियों से जानकारी…"
Saturday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167
"बहुत बहुत शुक्रिया आ सुकून मिला अब जाकर सादर 🙏"
Saturday
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167
"ठीक है "
Saturday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167
"शुक्रिया आ सादर हम जिसे अपना लहू लख़्त-ए-जिगर कहते थे सबसे पहले तो उसी हाथ में खंज़र निकला …"
Saturday
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-167
"लख़्त ए जिगर अपने बच्चे के लिए इस्तेमाल किया जाता है  यहाँ सनम शब्द हटा दें "
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service