पूछता है द्वार
चौखट से --
कहो, कितना खुलूँ मैं !
सोच ही में लक्ष्य से मिलकर
बजाता जोर ताली
या, अघाया चित्त
लोंदे सा,
पड़ा करता जुगाली.
मान ही को छटपटाता,
सोचता--
कितना तुलूँ मैं !
घन पटे दिन
चीखते हैं -- रे, पड़ा रह तन सिकोड़े..
काम ऐसा क्या किया, पातक !
कि व्रत में रस सपोड़े !
किन्तु, ले शक्कर हृदय में
कुछ बता
कितना घुलूँ मैं !
शब्द के व्यापार में हैं रत
किये का स्वर
अहं है
इस गगन में राह भूला वो
अटल ध्रुव
जो स्वयं है !
अब मुझे, संसार,
कह आखिर.. .
कहाँ कितना धुलूँ मैं !
*****************
--सौरभ
*****************
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीया गीतिका वेदिकाजी, एक अरसे बाद आपको मंच पर देख कर मन खुश है.
इस रचना और मेरे रचनाकर्म को मान देने के लिए हार्दिक धन्यवाद
//आपके द्वारा अब तक रचे गये नवगीतों में पान, सुपारी के बाद मैं इसे दूसरे नम्बर पर रखूँगा //
आपने बहुत बड़ा कॉम्प्लिमेण्ट दिया है, आदरणीय धर्मेन्द्रजी. ’पान-सुपारी’ कई मायनों में मेरी न केवल दुलारी बल्कि हस्ताक्षर-रचना भी है.
प्रस्तुत रचना को इतना मान देने के लिए पुनः आभार.
सादर
आदरणीय सौरभ जी, आपके द्वारा अब तक रचे गये नवगीतों में पान, सुपारी के बाद मैं इसे दूसरे नम्बर पर रखूँगा। हार्दिक बधाई स्वीकारें।
सहयोग बना रहे. इसी अपेक्षा के साथ हार्दिक धन्यवाद, जितेन्द्र भाईजी.
हार्दिक धन्यवाद, भाई केवल प्रसादजी, रचना आपको प्रभावशाली लगी.
आदरणीय आशुतोषजी, आपकी साफ़गोई विस्मित तो करती ही है, तनिक उदास भी करती है कि हम रचनाओं को किस रूप में लेते हैं. कविताओं की विधा कोई हो, उसका मूल इंगितों से ही मुखर होता है. सपाटबयानी कभी कविता नहीं होती. इंगितों को डिकोडिफाइ करने के क्रम में पाठक अपनी तैयारी करता है. ये तैयारियाँ ही पाठक की पहुँच हुआ करती हैं.
आप स्वयं एक संवेदनशील रचनाकार हैं. आपकी रचनाधर्मिता का मैं सम्मान करता हूँ, जिसका एक पहलू पाठक-धर्म भी है.
सादर
बस यों ही एक विचार आया कि क्यों न प्रस्तुत नवगीत में तनिक परिवर्तन किया जाय.
विश्वास है, इस परिवर्तन पर सुधीजनों की दृष्टि पड़ेगी.. :-))
सादर
मान ही को छटपटाता,
सोचता-
कितना तुलूँ मैं !
बहुत सुंदर ,मन को बहुत करीब से छू जाते हुए भाव. बधाई स्वीकारें आदरणीय सौरभ जी
आ0 सौरभ सर जी, वाह..//इस गगन में राह भूला वो
अटल ध्रुव
जो स्वयं है !//.....बहुत सुन्दर भाव पूर्ण नवगीत। हार्दिक बधार्इ स्वीकारें।
सादर
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