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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
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मनती नहीं है होली अब रंग बिरंगे रंगों से,
पर कुछ लोग अब भी ख़ुद को रंगदार कहें।
बहुत ही ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति,पर इसको मुकम्मल
का ख़िताब तभी मिलता जब ये दिये गये छंद का पालन
मुकम्मल रूप से करती।
ब्रिज साहिब बहुत खूब , ख्यालात अच्छे है , सुंदर ग़ज़ल कही है आपने , संजय भाई की बात भी ध्यान देने योग्य है , गिरह के शे'र में हुबहू तरही का मिसरा रखना चाहिए था |
सब मिलाकर प्रशंसनीय प्रस्तुति है |
उड़के जाने वाले पंछी, तू सुनते जाना .....
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है
दर्द-ए-गम में कोना-कोना डूबा लगता है
फिर रोकर रात गुजारी जाने क्यूँ परिंदे ने
मुझको तो आशिक वो कुई पुराना लगता है
जब भी छूकर लौटी है तुमको ये सबा कभी
आईने में फिर उदास इक चेहरा लगता है
भीगा सा है अखबार आज फिर ये हाकर का
हुआ कोई सरहद में फिर धमाका लगता है
क्या पता कहाँ ले जाकर जिंदगी तू मारेगी
मौत का तो यहाँ गली-गली मेला लगता है
उड़के जाने वाले पंछी, तू सुनते जाना .....
साथ 'हीर' का हो तो सफ़र सुहाना लगता है
हरकीरत 'हीर'
guwahat
जब भी छूकर लौटी है तुमको ये सबा कभी
आईने में फिर उदास इक चेहरा लगता है
waah harkirat ji....bahut hi badhiya gazal.... bahut bahut badhai...
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