2222 2222 2222 22
चलते चलते इन राहों में जब मिल जाते हो तुम
जाने क्या हो जाता है जो यूं सकुचाते हो तुम
तेरी आँखों में लगता है काला कोइ जादू
जिसपे नजरें पड़ जाती उसको भरमाते हो तुम
इक पल को आते हो छत पर फिर गुम हो जाते हो
क्या बच्चो के जैसा ही हमको बहलाते हो तुम
उजला उजला योवन तेरा फूलों सा है भाये
क्यूँ छुईमुई जैसा छू लेने पर मुरझाते हो तुम
तेरी इन मादक आँखों से मदिरा छलका करती
हम जैसे सीधे सादो को क्यूँ बहकाते हो तुम
गुल बागों की रौनक हैं उनको महकाया करते
घुलकर साँसों में जीवन को महकाते हो तुम
सागर लहरों में इक नैया ज्यों हिचकोले खाए
पागल हो मन जब इक नागिन सा लहराते हो तुम
चंचल मन मदमाता योवन नीली नीली आँखें
तिरक्षी नजरों से प्रेमी तन को ललचाते हो तुम
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय लक्ष्मण जी ..आपकी उत्साह बढाने वाली इस प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल बधाई सादर
आदरणीय जीतेन्द्र जी ..आपने मेरी रचना बार बार पढी ..मुझे बेहद सुखद अहसास मिला ..इन्ही हौसलों से मैं उड़ने की कोशिस करूंगा सादर
आदरणीया मंजरी जी ..रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए तहे दिल धन्यवाद सादर
आदरणीय गोपाल सर ..आपके इन शब्दों ने मेरी रचनाधर्मिता को नव उर्जा से लवरेज किया है ..आपका आशीष यूं हे मिलता रहे ..सादर प्रणाम के साथ
उजला उजला योवन तेरा फूलों सा है भाये
क्यूँ छुईमुई जैसा छू लेने पर मुरझाते हो तुम
वाह... क्या कहने आ० भाई आशुतोष जी l इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई l
बहुत ही सुंदर गजल आदरणीय डा.आशुतोष जी, बार-बार पढ़ी बहुत खूब, आपको दिली बधाई
मित्र आपकी
सुकुमार कविता से प्रसाद जी याद आगये - वे कहते है - तुम कनक किरण के अन्तराल में लुक-छिप कर रहते हो क्यों ? हे ! लाज भरे सौन्दर्य बता दो मौन बने रहते हो क्यों ?
सादर i
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