उपनिषदो से जीवात्म रहस्य खंगालना - एक कोशिश
डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव
जीवात्म पर हमें विचार वेद, वेदांत, उपनिषद, मनुस्मृति, सांख्य, न्याय, योग, वैशेषिक एवं मीमांसा के साथ ही निरुक्त, भगवद्गीता तथा प्रशस्तपाद, शंकर और दयानन्द के भाष्यों में मिलता है I ये विचार आपस में कुछ मिलते जुलते हो सकते हैं परन्तु उनमे पर्याप्त अन्तर भी है I उपनिषदों में कठोपनिषद और ईश्वास्योपनिषद में जीवात्मा का व्यापक वर्णन है I हम सभी जानते है कि आत्मा कोई सूक्ष्म ऊर्जा है जो इस पंचभूत के भैरव-मिश्रण को संचालित करती है और उसे चेतन अवस्था में रखती है I यह ऊर्जावान सूक्ष्म शक्ति जब शरीर को छोड़ देती है तब शरीर मृत माना जाता है I उसकी चेतन अवस्था समाप्त हो जाती है I तब शरीर सड़ने लगता है I
उपनिषदो में जीवात्म का ऐसा कोई वर्णन नहीं है जिससे आत्मा को सहज ही समझ लिया जाय I आत्मा यदि ईश्वर का अंश है तो उसमे भी वही प्रापर्टीज होंगी जो ईश्वर में है और हम आज तक ईश्वर के बारे में कितना समझ पाए है I यहाँ तक की कबीर भी लोगो को समझा नहीं पाते और हारकर कह उठते है –
सो है कहौ तो है नहीं , नाहीं कहो तो है I
हाँ नाहीं के बीच में, जो कछु है सो है II
आत्मा के बारे में उपनिषदों में सब कुछ संकेतो, उदाहरणो और आत्मा के वैशेषिक गुणों के ब्याज से समझाया गया है I इसलिये सामान्य पाठक इससे दूर भागता है I कठोपनिषद कहता है है-
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु I
बुधिन्तु सारथिम विद्धि मनः प्रग्रहमेव च II कठ० 3 /3
यहाँ रूपक द्वारा समझाने का प्रयास किया गया है कि आत्मा को रथी जानो I शरीर रथ तुल्य है I बुद्धि सारथी है और मन लगाम है I तात्पर्य यह है कि शरीर रूपी रथ से आत्मा रूपी रथी का कुछ लेना देना नहीं है I रथी कभी भी रथ का परित्याग कर सकता है I यहाँ स्पष्ट किया गया है कि जीवात्मा शरीर से पृथक एक स्वतंत्र सत्ता है I
कठोपनिषद में नचिकेता यम से पूंछते है कि आत्मा की सत्ता क्या है तब यम उन्हें इसकी निगूढ़ता का परिचय देते हुए समझाते है –‘देवैरत्रापि विचिकित्सितम पुरा न हि सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः’ कठ० 1/21 अर्थात आत्मा विषयक ज्ञान के सम्बन्ध में देवो को भी संदेह रहता है I
आत्मा की नित्यता के संबंध में गीता में कहा गया है – ‘ न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः I अजो नित्यः शाश्वतो अयम पुराणो, न हन्यते न हन्यमाने शरीरे II’ –गीता 2 /20 यही बात हू –बहू कठोपनिषद में शब्दों के किंचित हेर-फेर से कही गयी है - ‘ न जायते म्रियते वा विपशिचन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित् I अजो नित्यः शाश्वतो अयम पुराणो, न हन्यते न हन्यमाने शरीरे II’ – कठ0 2 /18 यहाँ पर जीवात्मा के स्वरुप का वर्णन हुआ है कि यह आत्मा न उत्पन्न होती है और न मरती है I यह नित्य है, अजन्मा है, शाश्वत है, अत्यंत प्राचीन है और शरीर के नष्ट होने पर भी इसका विनाश नहीं होता I ईशावास्य उपनिषद भी यही कहता है – ‘शाश्वतीभ्यः समाभ्यः’ ईशावास्य0 मंत्र 8, यानि कि जीवात्मा शाश्वत सनातन है I
कठोपनिषद और ईशावास्योपनिषद दोनों ही यह मानते है कि जीवात्मा भोक्ता है I यदि जीवात्मा न हो तो हम तन्मात्राओ (रूप, रस, गंध, शब्द व स्पर्श) की अनुभूति कैसे कर सकते है I इसी से सिद्ध होता है कि जीवात्मा ही विषयों का ज्ञाता और भोक्ता है I कठ कहता है-
येन रूपं रसं गंधं शब्दन स्पर्शास्च मैथुनान I
एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते II इत द्वैतत II कठ० 4 /3
उक्त मान्यता की पुष्टि ईशावास्योपनिषद का प्रथम महामंत्र भी करता है I ऋषि कहता है-
“ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्.
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विध्दनम्.” ईश0 1/1
इस महामंत्र के चार टुकड़े हैं, और हर टुकडे का एक-एक शब्द कोहिनूर से भी अधिक बहुमूल्य है I हर टुकड़ा वेद की ऋचा है I अपने आप में एक महाकाव्य है I ऋषि का कथन है- जगत् मे जो कुछ स्थावर-जङ्गम है, वह सब ईश्वर के द्वारा व्याप्त है। उसका त्याग-भाव से उपभोग करना चाहिए I किसी के धन की इच्छा नहीं करनी चाहिए । अर्थात-
All this, whatsoever exists in the universe, should be covered by the Lord, in other words by perceiving the Divine Presence everywhere. Having renounced (the unreal), enjoy (the Real). Do not covet the wealth of any man.
लेकिन प्रश्न यह उठता है कि ईश्वर यानि क्या ? ऋषि ईश्वर किसे कह रहा है और ऋषि का ऐसा कहना कि “हर चीज में ईश्वर का वास है” का तात्पर्य क्या है ? ऋषि हमे क्या दिखाना चाहता है और इस सब से भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि क्या हम सचमुच वही देख रहें है जो ऋषि हमे दिखाना चाह रहा है या फिर हम वह देख रहें है जो हम वस्तुतः देख सकते है या जो हमारी देखने की क्षमता है I यहाँ हमारा पथ गोस्वामी तुलसीदास प्रशस्त करते है –
सो अनन्य जाके अस मति न टरइ हनुमंत I
मै सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत II
भगवान राम हनुमान को समझाते है कि अनन्य भक्त वह है जो यह समझता है कि मै सेवक हूँ और यह जगत का सारा सचराचर रूप ही हमारा भगवान् है I उपनिषद ने प्रकृति में ईश्वर की व्याप्ति मानी परन्तु तुलसी ने सारोपा लक्षणा शब्द शक्ति से स्पष्ट कर दिया कि प्रकृति ही ईश्वर है I कहना न होगा कि हमारा सनातन धर्म कण-कण में भगवान की मान्यता के सुदृढ अधिकरण पर अवस्थित है I
गीता की भांति ही उपनिषदों की भी यही मान्यता है कि जीवात्मा का पुनः अवतरण होता है I कठोपनिषद कहता है कि अन्न की भांति मनुष्य जन्म लेता है, पचता है और नष्ट हो जाता है I तब वह पुनः जन्म लेता है I ऋषि कहते है –‘सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिववाजायते पुनः’ -कठ०1/6 कठोपनिषद में स्पष्ट किया गया है कि ईश्वरीय व्यवस्था पर विश्वास न करने वाला जीवात्मा बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा रहता है I इसी प्रकार जो जीवात्मा मोक्ष नहीं प्राप्त कर पाते उन्हें भी भव-चक्र में फंसना पड़ता है I ईशावास्य कहता है कि जो आत्मघाती होते है वे प्रेत योनियो में जाते हैं I इससे भी पुनर्जन्म की अवधारणा को बल मिलता है I
कठोपनिषद के अनुसार मानव शरीर में अंगुष्ठ परिमाण वाला ह्रदय एक स्थान है जिसमे आत्मा का निवास रहता है I इसे ब्रह्मपुर कहते हैं I यही से वह प्राण-वायु को ऊपर तथा अपान वायु को नीचे फेंकता है I मन आदि सभी देव उसके अधीन एवम उसके नियंत्रण में कार्य करते है I ह्रदय के समीप एक सौ एक नाडिया है i इनमे सुषुम्ना नाडी ब्रह्मरंध्र की ओर जाती है I इससे होकर जीवात्मा ब्रह्मरंध्र में जाकर उत्क्रमण कर मोक्ष प्राप्त करता है I जो ऐसा नहीं कर पाता वह कर्मानुसार अन्य योनियों में भटकता फिरता है I कबीर के हठयोग की भी यही परिणति है I उसमे भी मूलाधार चक्र से कुण्डलिनी जाग्रत की जाती है और सुषुम्ना से होकर ब्रह्मरंध्र तक कुण्डलिनी को ले जाना होता है तब सहस्रदल कमल खिलता है और दिव्य प्रकाश दिखाई तथा अनहद नाद सुनायी देता है I ऐसी सिद्धि विरलों को मिलती है I यह तो कबीर ही कर सकते है कि –
‘दास कबीर जतन ते ओढी ज्यो की त्यों धर दीनी चदरिया’
उपनिषदो में ब्रह्म जीव में क्या अंतर है और इन दोनों के बीच क्या सम्बन्ध है इसे भी बड़े काव्यात्मक ढंग से रूपायित किया गया है I श्वेताश्वतर उपनिषद में ऋषि कहते है -
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वादवत्त्यनश्ननन्यो अभिचाक शीति॥ -श्वेत० 4 /6
अर्थात दो पक्षी सुंदर पंखों वाले, साथ-साथ जुड़े हुए, एक दूसरे के मित्र हैं। एक वृक्ष को वे सब ओर से घेरे हुए हैं । उनमें से एक, वृक्ष के फल को बड़े स्वाद से चख रहा है, दूसरा बिना चखे, सब कुछ साक्षी भाव से सिर्फ़ देख रहा है । जीवात्मा परमात्मा ही ये दो पक्षी हैं, प्रकृति वृक्ष है, कर्मफल इस वृक्ष का फल है, जीवात्मा को कर्मफल मिलता है, परमात्मा प्रकृति से आसक्त हुए बिना, साक्षी भाव से जीव और प्रकृति को देख रहा है यानि दृष्टा मात्र है ।
उक्त निदर्शन से पता चलता है कि जीवात्मा और ब्रह्म सामानधर्मा है तभी परस्पर मित्र है परन्तु जीवात्मा रूपी पक्षी फल चखता है यानि कि वह कर्मादि बन्धनों से बंधता है I परन्तु ईश्वर बेलौस है I वह केवल साक्षी या द्रष्टा है I सही मायने में वह तटस्थ परीक्षक है और समय आने पर शुभाशुभ कर्मो का फल भी वही देता है
I
व्रह्दारण्यक उपनिषद में ब्रह्म को जीव के समान नहीं दर्शाया गया I इसके अनुसार ब्रह्म अतीव सूक्ष्म होने के कारण जीवात्मा से भी व्यापक है I जीवात्मा अविद्या ग्रस्त रहता है I अतः वह ईश्वर को जान नहीं पाता I यहाँ जीवात्मा को परमात्मा का शरीर बताया गया है और उनमे व्याप्य-व्यापक भाव सम्बन्ध है I यथा –
‘य आत्मनि तिष्ठन आत्मनोsन्तरो यमात्मा न वेद I
यस्य आत्मा शरीरम I’
तैत्तरीय उपनिषद ने जीव और ब्रह्म के बीच एक नया अन्तर बताया I ऋषि कहते है – ‘रसं ह्येवायम लब्ध्वानन्दी भवति I’ अर्थात परमात्मा आनंदस्वरूप है पर जीव नहीं I जब जीव योगादिक साधनों से सुद्ध होकर अथवा ज्ञान प्राप्तकर परमात्मा का स्वरुप जान लेता है तब उसे परमानन्द की अनुभूति भी होती है I यहाँ प्राप्य-प्रापक भेद से जीव और ब्रह्म के बीच की भिन्नता प्रकट की गयी है I
ईशवास्योपनिषद के आठवे मंत्र में परमात्मा के स्वरुप का वर्णन है I तदनुसार परमात्मा सर्व शक्तिमान, सर्व व्यापक, सब शरीरो से रहित, बंधन में न आने वाला, सर्वग्य, सर्वदा शुद्ध गुणों वाला है I इन गुणों से भिन्न होने के कारण ही जीवात्मा और परमात्मा में विभेद है I जीवात्मा एकदेशीय शरीर का धारण करने वाला, अविद्यादि दोषों से ग्रस्त, अल्प सामर्थ्य वाला और अल्पज्ञ है I
प्रायशः सभी उपनिषदों में मोक्ष प्राप्ति के उपायो पर व्यापक चर्चा हुयी है I कठोपनिषद के अनुसार जिसने ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों में आहवनीय, गार्ह्यपत्य और दक्षिणाग्नि का चयन किया है I जिसने माता-पिता व् आचार्य की सेवा कर ज्ञान प्राप्त कर लिया है और जो यज्ञ, अध्ययन तथा दान इन तीन कर्मो को प्रतिदिन करता है , वह उपासना के योग्य परमात्मा को जानकर दुःख से रहित मोक्ष को प्राप्त कर लेता है I जो इस ग्यारह द्वार वाले शरीर से आश्रमों के अनुरूप कर्त्तव्य करताहै और मिथ्या ज्ञान से रहित होकर पितृ ऋण ,ऋषि ऋण तथा देव ऋण से मुक्त हो जाता है वह भी मोक्ष का अधिकारी है I ईशावास्योपनिषद के चौदहवे मंत्र में मोक्ष प्राप्ति के लिए अविद्या व् विद्या से भिन्न कर्म व् उपासना को तथा ज्ञान को आवश्यक बताया गया है I परमेश्वर को जाने बिना जीवात्मा का अज्ञान नष्ट नहीं होता और उसको जानने के लिए ज्ञान, कर्म, उपासना तीनो आवश्यक है , तभी मोक्ष प्राप्त होता है I ‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद लिखते है-
‘ज्ञान दूर कुछ क्रिया भिन्न इच्छा क्यों पूरी हो मन की I
एक दूसरे से न मिल सके यह विडंबना जीवन की II
केनोपनिषद् में कहा गया है कि आत्मज्ञान से जीवो को कई प्रकार की सामर्थ्य प्राप्त होती है और विद्या से मोक्ष की प्राप्ति संभव है I यथा –
‘आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेsमृतम I” –केनो 0 2 /4
मुंडकोपनिषद 1/2/11 में ऋषि का कथन है –वे मनुष्य परमात्मा के समीप वास करते है जो तप –धर्माचरण और अत्यंत श्रद्धा से शुद्ध ह्रदय रूपी वन में स्थिर हो जाते है I जो अधर्म के परित्याग से शांत मन वाले वेदादि सत्य शास्त्रों के विद्वान है, वे भिक्षा करते हुए भी विरज (सब अविद्याओ से छूटे हुए )प्राण द्वार से परमानन्द मोक्ष को प्राप्त करते हैं I इसके साथ ही जो सत्याचरण, तपस्या, ज्ञान तथा ब्रह्मचर्य द्वारा दोषमुक्त हो चुके है, ऐसे शुद्ध अंतःकरण वाले धर्मात्मा, ज्ञानी, सन्यासी लोग परमात्म ज्ञान कर सकते है और मोक्ष प्राप्त करने के अधिकारी बन जाते है I यथा –
अन्तः शरीरे ज्योतिर्मयो हि
शुद्धो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः II मुंडक0 3 /1 /5
इस प्रकार हम देखते है कि उपनिषदों में जीवात्मा और परमात्मा के संबंधो पर काफी मंथन हुआ है I जीव और ब्रह्म के बीच में स्थित माया पर कोई विचार नहीं हुआ है I इसका प्रमुख कारण यह ही की मायावाद की अवधारणा वेदों की रचना के युगों के बहुत बाद में प्रथम बार आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा हुयी थी I सम सामयिक संदर्भो में माया का उल्लेख किये बिना यह अध्यात्म चर्चा अधूरी लगती है I हम यहाँ गोस्वामी तुलसीदास का स्मरण करते है जिन्होंने एक ही अर्धाली में माया की स्थिति स्पष्ट कर दी है –
‘उभय बीच सिय सोहति कैसे I
ब्रह्म जीव बिच माया जैसे I’
ई एस I/436, सीतापुर रोड योजना
(मौलिक व अप्रकाशित) अलीगंज, सेक्टर-ए , लखनऊ
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वस्तुतः प्रस्थानत्रयी --यानि, उपनिषद, श्रीमद्भग्वद्गीता तथा ब्रह्मसूत्र-- जीवात्मा और प्रकृति के अंतर्सम्बन्धों पर ही केन्द्रित हैं. इन तीनों वाङ्मयों में अंतर्सम्बन्धों की व्याख्याओं के परिप्रेक्ष्य में फिर वो समस्त बातें समाहित हैं जो कर्म, कर्मफल तथा तदनुरूप जीवन-मरण को परिभाषित करते हैं. यह सही है कि जीवात्मा की अवधारणा जैसे विषद ज्ञान को एक लेख में समेटना संभव नहीं है. या तो आलेख की गुरुता ही असंतुलित हो जाती है या आलेख सपाटबयानी में उद्धरणों की भरमार हो जाता है.
आदरणीय गोपालनारायनजी, आपके आलेख में इन दोनों स्थितियों के मध्य संतुलन बनाने का भरसक प्रयास किया गया है. वैसे तनिक और स्पष्टता अपेक्षित थी. लेकिन कहते हैं न, और-और की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला.
एक उदाहरण -
आलेख कहता है - मानव शरीर में अंगुष्ठ परिमाण वाला ह्रदय एक स्थान है जिसमे आत्मा का निवास रहता है I इसे ब्रह्मपुर कहते हैं I यही से वह प्राण-वायु को ऊपर तथा अपान वायु को नीचे फेंकता है.
इसे और स्पष्ट करते हुए पंचप्राणों में क्रमशः उदान प्राण और अपान प्राण की संज्ञा दी जाती तो स्पष्टता व्यापक होती. वैसे भी, यह बस एक इंगित मात्र है न कि कोई तथ्य.
कोई संदेह नहीं कि इस लेख के क्रम में आपने आवश्यक उपनिषदों को छाना अवश्य है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी
मै अभिभूत हूँ कि आपने कम से कम इस पर दृष्टि डाली i आपके कथन से सहमत हूँ i मै क्या और मेरी औकात क्या -जिमि पिपीलिका सागर थाहा i इस निरीह की यही तक गति है i मेरे लिए यह आश्वासन ही काफी है कि कुछ तो पढा मैंने i आप द्वारा उद्धृत मधुशाला की पंक्तियों को नमन i प्यास तो कभी घटती नहीं i सादर वन्दन i
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