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मुझको अपना कहता है।।

मुझको अपना कहता है।
फिर क्यूँ तनहा रहता है।।

अन्दर का जो दरिया है।
आँखों से अब बहता है।।

मंज़िल तक जाना है गर।
रस्ते को क्यूँ तकता है।।

झगड़े की कुछ वजह न थी।
फिर क्यूँ झगडा करता है।।

खुद में झाँकूँ देखूँ तो।
अन्दर क्या कुछ दिखता है।।

पहले जी भर रोया था।
अब थोड़ा सा हँसता है।।
*****************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on October 31, 2014 at 10:48pm

भाई रामशिरोमणि, आपने ग़ज़ल का काफ़िया ग़लत ले लिया है.  काफ़िया - अहता .. रदीफ़ - है

आगे के शेरों को देखें. 

वैसे कहन खूब है.

Comment by ram shiromani pathak on September 11, 2014 at 12:20am
बहुत बहुत आभार आदरणीय जवाहरलाल जी।। सादर
Comment by JAWAHAR LAL SINGH on September 10, 2014 at 10:32pm

बहुत ही सुन्दर श्री राम शिरोमणि जी!

Comment by ram shiromani pathak on September 10, 2014 at 9:54am
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण जी।।सादर
Comment by ram shiromani pathak on September 10, 2014 at 9:53am
हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज जी।। सादर
Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on September 10, 2014 at 9:51am

सुंदर गीतिका रचना के लिए बधाई श्री राम शिरोमणि भाई 

Comment by ram shiromani pathak on September 10, 2014 at 9:49am
नरेन्द्र जी बहुत बहुत आभार आपका

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 9, 2014 at 8:42pm

खुद में झाँकूँ देखूँ तो।
अन्दर क्या कुछ दिखता है।। ----------बढ़िया ग़ज़ल कही भाई राम शिरोमणी जी आपने , बधाइयाँ |

Comment by ram shiromani pathak on September 8, 2014 at 1:48pm
मेरा प्रयास आपको अच्छा लगा मेरा लिखना सफल हुआ।। सादर
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 8, 2014 at 1:03pm

शिरोमणि जी

बहुत बेहतर प्रयास i

मुझको अपना कहता है।
फिर क्यूँ तनहा रहता है।।

अन्दर का जो दरिया है।
आँखों से अब बहता है।।

 

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