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Kanta Roy जी, आपकी टिप्पणी सदा ही उत्साह वर्धक होती है. स्नेह बनाए रक्खें..
आपके स्नेह व उत्साह वर्धन के लिए हृदय तल से धन्यवाद I
आ. पूनम जी . झकझोर सी गयी पंच लाइन .एक पाठक रूप में मुझे कथा शिल्प एवं कसावट बहुत ही सुंदर लगी सादर
आभार व धन्यवाद Sudhir Dwivedi जी I
एक पहचान बनने जा रही थी किन्तु किस कीमत पर ??....बहुत बड़ा सवाल खड़ा करती है लघु कथा ...अपने स्वाभिमान को खोकर नैतिक मूल्यों को खोकर उस पहचान के साथ क्या ख़ुशी से बिता पाएगी जिन्दगी ?हालात और मजबूरी को जीतना होगा आज की नारी को अगर योग्यता है तो इन कीमतों से समझौता क्यूँ ?बहुत विचारणीय मुद्दा है शिक्षा पद्दति ,शोध संस्थानों में नियमों में बहुत कुछ बदलाव एवं पारदर्शिता की आवश्यकता है एक गंभीर विषय पर लिखी सशक्त लघु कथा हेतु बहुत- बहुत बधाई आपको पूनम जी .
आभार व हार्दिक धन्यवाद rajesh kumari जी. उत्साह वर्धन करती रहें I
रचना के साथ "मौलिक और अप्रकाशित लिखना क्यों भूल गए? खैर, सब कुछ बहुत बढ़िया है इस लघुकथा में - सब कुछ। बस फाईन-ट्यूनिंग में मामूली सी कसर रह गई। "पंच लाईन" थोड़ी सी कमज़ोर रह गई। आपकी की एक पंक्ति के क्रम में हेरफेर किया है, देखकर बताएं कि बात बनी कि नहीं आ० पूनम डोगरा जी।
//आज कॉलेज में बड़ा आयोजन था। हॉल में चहुँ ओर मेरे शोध के गहन गंभीर विषय के चर्चे हो रहे थे I सबकी प्रशंसात्मक नज़रें मेरे मुखमंडल को भेद रही थीं I उन नज़रों का सामना करना बहुत भारी पड रहा था मेरे लिए I मन किया कि सब छोड़ छाड कर भाग खड़ी होऊं। मंच पर खड़े मेरे गाइड ,मेरे अथक परिश्रम व एकाग्रता के कसीदे पढ़ रहे थे I तारीफों के पुल बांधते बांधते वे मेरे करीब आये और 'स्नेहवश ' मेरे कंधे पर हाथ रक्खा, आखिरी बार, हाँ आखिरी बार। उनकी अंतिम किश्त मैं कल उतार चुकी थी !!
और आज मेरे नाम के आगे डॉक्टर लग रहा था I//
बहुत सटीक बन पड़ी है कथा अब I आभार योगराज प्रभाकर जी I
यह तो और भी निखर गई है . आप ने कमल कर दिया योगराज प्रभाकर जी
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