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लघुकथा कहने का अच्छा प्रयास हुआ है आ० राजेश कुमारी जी। लेकिन कथानक में मसनूईपन की झलक है। मैं स्वयं बहुत सी बुनियाद/भूमि पूजन का साक्षी हूँ (अपने चार घरों सहित), किन्तु कभी भी किसी "उत्तराधिकारी" को नहीं बुलाया गया। बल्कि सब से पहले कन्यायों को ही कलावा बँधवाने हेतु बुलाया गया। बल्कि भूमि के मालिक को सबके बाद कलेवा बाँधा जाता है। आपकी तरफ ऐसा कोई रिवाज़ हो, तो उसका मुझे ज्ञान नहीं। छ: साल की चारू के दिल में नई बुनियाद रखने की बात भी बेहद अस्वाभाविक लग रही है, बच्ची १२-१३ साल की भी होती तो बात स्वाभाविक लगती।
आ० योगराज जी,आपको ये प्रयास अच्छा लगा जिसके लिए दिल से बहुत बहुत आभार आपका|रही बात कथानक की तो वास्तविकता के धरातल पर हुई कई घटनाओं की प्रत्यक्षदर्शी गवाह होने के नाते मेरी कलम ने ये विषय चुना यहाँ तो सिर्फ भूमि पूजा की बात लिखी है हमारे यहाँ तो ग्रह प्रवेश तक में उत्तराधिकारी अर्थात पुत्र को पूजा में पिता के पास बिठाते हैं जो गाँव में आज भी होता है छ वर्ष की बच्ची लड़का लड़की अर्थात भाई और अपने लिए घरवालों के व्यवहार में फर्क को बखूबी महसूस करने लगती है इसका उदाहरण मैं खुद हूँ हमने पिछले साल एक कार्यशाला का आयोजन किया था जिसमे नन्ही नन्ही बच्चियों ने अपने घर के इस वातावरण का खुल के जिक्र किया था | सादर .
मुझे इस घटना की सत्यता पर कतई संदेह नहीं है आ० राजेश कुमारी जी। बात ये है कि तरकारी कितनी ही ताज़ी अथवा दिखने में सुन्दर क्यों न हो, बिना अच्छी तरह पकाये वह खाने योग्य नहीं बन पाती। उसमें नमक मिर्च मसाला डाला है, आग पर चढ़ाया जाता है, तेल घी का तड़का भी लगाया जाता है। इसी प्रक्रिया को यदि लघुकथा लेखन के सन्दर्भ में देखा जाए तो इसको "कथानक में अपनी कल्पनाशीलता का पुट" डालना कहा जाता है। इसके बगैर कोई भी घटना (बेशक सत्य ही क्यों न हो) साहित्यिक कृति नहीं बन सकती। किसी अपराधी का थाने पहुँच कर आत्मसमर्पण करना एक महत्वपूर्ण घटना है। लेकिन थाना इंचार्ज अपनी रिपोर्ट में ऐसा कभी नहीं लिखता, वह अपनी रिपोर्ट में उस अपराधी को पकड़ने के लिए नाके लगाता है, उसका पीछा करता है। और कड़े मुकाबले के बाद उसको गिरफ्तार करने की बात लिखता है। यह है उसकी कल्पनाशीलता। (मैं ऐसी कार्रवाई का समर्थन कतई नहीं कर रहा हूँ।) यही कल्पनाशीलता लघुकथा को प्रभावशाली, मारक और दीर्घजीवी बनती है, मेरा इशारा केवल इस तरफ था आदरणीया।
जी आपने जिस सहजता सरलता से समझाया अब कोई संशय रहा ही नहीं आपका बहुत- बहुत आभार आ० योगराज जी|
संभवतः मसनूईपन यानी अवास्तविक कृत्रिमता होता है. सादर
बहुत बढ़िया लघुकथा आदरणीय राजेश कुमारी जी, लिंगभेद की बुनियाद जब तक रखी जायेगी, तब तक सामाजिक असंतुलन रहेगा ही रहेगा| इस शानदार रचना के लिये बधाई स्वीकार करें|
आ० चंद्रेश कुमार जी,आपने सही कहा ये लिंगभेद की बुनियाद तो घरों से ही रखी जाती है आपको लघु कथा ने प्रभावित किया इसके लिए आपका दिल से आभार |
यूँ तो लघुकथा बहुत अच्छी है और बुनियाद विषय को पूर्णतः परिभाषित करती हुई भी किन्तु एक बात मुझे खटक रही है कि छः वर्ष की उम्र उत्तराधिकार को समझने के लिए कम होती है. यदि बच्ची की उम्र कुछ अधिक हो तो कथा स्वीकार्य हो जाये.
श्रद्धा जी ,आपको लघु कथा पसंद आई दिल से आभार आपका बच्चे अवसर समझे न समझे इतना तो समझते हैं कि कोई चीज है ऐसी जो उससे पहले उसके भाई को दी जा रही है नन्हा दिल बहुत कोमल होता है भेदभाव के फर्क को पहचानने लगता है |
प्रदत्त विषय को आपने एक अलग कलेवर के साथ प्रस्तुत किया है, अच्छी लघुकथा हुई है बधाई आदरणीया राजेश जी.
आ० गणेश जी ,लघु कथा पर आपकी उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया से हर्षित हूँ तथा लेखन के प्रति आश्वस्त भी हुई दिल से बहुत बहुत आभार आपका |
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