Tags:
Replies are closed for this discussion.
श्रद्धेय सौरभ भाई जी , सामयिक जीवन यथार्थ का प्रामाणिक चित्रण लघुकथा की प्रमुख प्रवृति है । आपने अपनी लघुकथा के माध्यम से जीवन के एक छोटे से सत्य को बहुत सूक्ष्मता से पकड़ा है और उसे परिवेशगत यथार्थता के साथ इस प्रकार चित्रित किया है की पाठक का मन विह्वल हो उठता है । निसंदेह आप जीवन यथार्थ के सजग-सचेष्ट लघुकथाकार हो । मैं सादन नमन करता हूं आपकी कलम को । सादर
भाई रवि प्रभाकरजी, क्या ये टिप्पणी तनिक अतिरेकपूर्ण नहीं हो गयी है ? यह सही है कि इस मंच की परिपाटी के अनुसार हम इस गद्य-विधा ’लघुकथा’ पर भी अन्य विधाओं की तरह प्रयास करना चाह रहे थे. लेकिन मेरेप्रयासों को अभी सिद्धहस्त सुधीजनों का अनुमोदन मिलना बाकी है. लघुकथा पर मैं आपकी समझ को अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानता हूँ. फिरभी, लघुकथा पर मेरा अभी लघु प्रयास ही माना जाय. परिणाम कुछ रुचिकर हुआ, यदि ऐसा लगा है तो यह आप सबों की हौसला अफ़ज़ाई मात्र है. अन्यथा इस रास्ते पर अभी जैसी कि मेरी समझ बनी है, अभी बहुत चलना है. देखिये, ऐसी चाल बन भी पाती है या नहीं. अलबत्ता, आपके अनुमोदन से इस ओर प्रयास की गति संभवतः बनी रह सकती है.
इस उदार अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद.
त्रसाद विडंबना हैं बुढ़ापे में अकेले होना | जीवन प्रत्याशा बढ़ गयी हैं युवाओं कीसोच भविष्य तक नही जाती कि उनका आज ही उनका कल बनाएगा | आज पिता अकेला अपने कर्मो से कल यही बेटा भी अकेला होगा अपने ही कर्मो से ......
सादर धन्यवाद आदरणीया नीलिमा शर्मा निवियाजी.
जैसा बोते हैं , वैसा ही काटते हैं | विषय को परिभाषित करती बढ़िया लघुकथा आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए ..
आपको प्रयास रुचिकर लगा, इस हेतु हार्दिक धन्यवादा आदरणीय विनय कुमार सिंहजी
अच्छी लघुकथा है आदरणीय सौरभ जी, योगराज जी से सहमत हूँ कि इस तरह की कथा में अकसर दोनों पक्ष नहीं दिखाए जाते। इस लिहाज से इस लघुकथा के लिए दिली दाद कुबूल कीजिए
स्वीकृति प्रदान करने केलिए धन्यवाद आदरणीय धर्मेन्द्रजी.
आदरणीया शशि बंसलजी, उदार प्रशंसा केलिए धन्यवाद
आदरणीय सौरभ पांडे जी , आपने एक बढ़िया प्रसंग प्रस्तुत किया . यहाँ बेटे को किसी भी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता .कहीं नौकरी करता हुआ मालूम पड रहा है ,पारिवारिक जिम्मेदारी भी समझ आ रही उसकी .वह ना केवल माँ से प्यार से हाल चाल ले रहा बल्कि उसकी आवाज की नरमी भी भांप रहा है .ये तो सुधाकर जी के मन का चोर है जो उन्होंने अपने माँ-बाप के साथ किया था .अंतिम दो शब्द उस गिल्ट की गवाही दे रहें हैं .
जी आपने सही कहा आदरणीया रीताजी. वैसे कुछ वाक्य ऐसे हैं जो बेटे की माँ-बाप के प्रति ’लिप-सर्विस’ की भी चुगली करते हैं. किन्तु शायद वो वाक्य आपका ध्यान समुचित रूप से नहीं खींच पाये.
आपके अनुमोदन के लिए हार्दिक आभारी हूँ.
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |