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गुनगुनाते हुए ज़िन्दगी की ग़ज़ल

२१२  २१२   २१२   २१२

गुनगुनाते हुए ज़िन्दगी की  ग़ज़ल

मैं चला जा रहा राह अपनी बदल

हुस्न को देख दिल जो गया था मचल

आज उसको भी देखा है मैंने अटल

वो  घने गेसू गुल से हसीं लव कहाँ

है मुकद्दर खिजाँ तो खिजाँ से बहल

उनके कूचे में मेरा जनाजा खड़ा

सोचता अब भी शायद वो जाए पिघल

शक्ल में गुल की ये मेरे अरमान हैं

नाजनी इस तरह तू न गुल को मसल

चैन मुझको मिला कब्र में लेटकर

शोरगुल भी नहीं न किसी का खलल

घुट रहा दम मेरा शहर में आजकल

गाँव के हाल देखे तो आँखें सजल

मूल्य सब बेंचकर जो तिजोरी भरे

उसको ही मानती आज दुनिया सफल

हुस्न को देख आँखें ये भौचक हुयी

मन मचलने लगा तो गया दिल फिसल 

अब न तहजीब है न अदब कायदा

है नयी सभ्यता है नयी अब फसल

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 11, 2015 at 12:38pm

आदरणीय पवन जी ..रचना पर आपकी उत्साहित करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से धन्यवाद सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 11, 2015 at 12:37pm

आदरणीय गिरिराज भाईसाब ..मैंने जब से इस मंच से जुड़ कर लिखना शुरू किया ..तबसे लगातार आप का स्नेह और मार्गदर्शन मुझे हमेशा मिला ..आपकी प्रतिक्रिया का मुझे हमेशा इंतज़ार रहता है ..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 11, 2015 at 12:27pm

आदरणीय रवि सर ..आप जैसे विद्वतजनो के मार्गदर्शन , स्नेह और हौसला अफजाई से लेखन को उर्जा मिलती है ..सादर प्रणाम के साथ

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 11, 2015 at 12:24pm

आदरणीय रवि सर ..आप जैसे विद्वतजनो के मार्गदर्शन , स्नेह और हौसला अफजाई से लेखन को उर्जा मिलती है ..सादर प्रणाम के साथ 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 11, 2015 at 12:22pm

आदरणीय मिथिलेश जी . .. आपकी प्रतिक्रिया से मुझे बहुत हौसला मिलता है .ग़ज़ल के इस सफ़र पर मैं चलता हुए अपनी ग़ज़लों को निखार सकों इस हसरत के साथ सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 11, 2015 at 12:19pm

आदरणीय लक्ष्मण जी ..रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिर्किया के लिए ह्रदय से धन्यवाद सादर 

Comment by Pawan Kumar on August 11, 2015 at 10:57am

मूल्य सब बेंचकर जो तिजोरी भरे

उसको ही मानती आज दुनिया सफल

आदरणीय, हकीकत को गजल मे इतने अच्छे तरह से पिरोने के लिए हार्दिक बधाई।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 11, 2015 at 9:22am

आदरनीय आशुतोष भाई , क्या खूब ग़ज़ल कही है , हर शे र काबिले दाद है , मुबारकबाद  कुबूल करें ।

Comment by Ravi Shukla on August 10, 2015 at 1:24pm

आदरणीय आशुतोष जी बहुत बढ़िया दाद कुबूल फरमाएं.

उनके कूचे में मेरा जनाजा खड़ा

सोचता अब भी शायद वो जाए पिघल... उम्‍मीद की इंतिहा क्‍या बात है 

चैन मुझको मिला कब्र में लेटकर

शोरगुल भी नहीं न किसी का खलल... इस हकीकत को केवल एक शायर ही बयान कर सकता है । अच्‍छा कथ्‍य है

अब न तहजीब है न अदब कायदा

है नयी सभ्यता है नयी अब फसल ..... पाये का शेर है जनाब

दाद कुबूल करें ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 10, 2015 at 11:53am

आदरणीय आशुतोष जी बहुत बढ़िया ग़ज़ल हुई है, गुनगुनाते हुए आनंद आ गया. इस ग़ज़ल पर शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं.

अब न तहजीब है न अदब कायदा

है नयी सभ्यता है नयी अब फसल

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