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कमाल ही कर गए बंधु !!! १२ बजे नहीं - आयोजन खुला नहीं कि हुज़ूर ने रचना पोस्ट भी कर दी I कम से कम मुझे स्वागत शब्द लिखने का मौका तो दिया होता ! मैं और कांता जी कैंची हाथ में पकडे ही रह गए, पर हम दोनों "कारवाँ गुज़र गया - गुबार देखते रहे !"
बहरहाल, लघुकथा हर मायने में बहुत ही बेहतरीन हुई है I संवेदनहीन समाज में एक संवेदनशील रिक्शा वाले का चरित्र बढ़िया तरीके से उभर कर प्रदत्त विषय के साथ पूर्ण न्याय किया है I इसलिए आह और वाह !!
सर जी ,आपके कम्प्यूटर की घड़ी हमारे कम्प्यूटर की घड़ी से ३४ मिनट आगे है सो हम पछुआ गए, नहीं तो इस बार कैची धार बाला पकड़े थे । नमन सर जी।
आ० कांता रॉय जी, बात घड़ी के समय के आगे पीछे होने की नहीं है दरअसल आयोजन "ओपन" करते ही "ओपन" नहीं हो जाता अक्सर २५-३० सेकण्ड का समय लग जाता है I कई दफा इससे भी ज्यादा, इसलिए एकाध मिनट पहले ही "ओपन" करने की प्रक्रिया प्रारंभ करनी पड़ती है I
पिछले पांचो आयोजनो से यही प्रयास था कि आगाज मैं ही करूं। कभी वामनकर भाई और कभी नेटवर्क। इस बार कामयाब हो ही गया। कथा पर आपक अनुमोदन से उत्साह दूना हो जाता है और भविष्य में और बेहतर का प्रयास करने की प्रेरणा मिलती है। सादर धन्यवाद
सॉरी ! ३४ सेकेण्ड आगे है। अबकी हमने घड़ी सर जी के घडी से मिला लिए हैं आदरणीय रवि जी। अगली बार फीता मैं काटूंगी। बस आदरणीय मिथिलेश जी का ही टेंशन रहता है। ये बैतूल का इन्टरनेटवा बड़ी फ़ास्ट है !!!!!
लोग गरीबों को ना तो संवेदना देने की सोचते हैं ना पाने की अपेक्षा रखते है जबकि वो भी इन्सान हैं. शानदार लघुकथा सर. बधाई प्रेषित है.
रचना पर आपके समर्थन हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्रद्धा जी । सादर
आपकी लघुकथाओं में न केवल कथानक तथा संवेदना बल्कि वातावरण भी बखूबी उभर कर सामने आता है, भाई रविजी. यही किसी लघुकथा के विन्यास के मूल हैं भी. इसके बाद के अन्य अवयव सहयोगी हुए लघुकथा को सँवारते हैं. इस कारण लघुकथा की आवश्यकतानुसार उनका होना न होना निर्भर करता है. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि आपकी प्रस्तुतियों का स्वरूप बड़ा ही संयत हुआ करता है. जिस तरह से पुरुष पात्र और महिला पात्र के आचरण और व्यवहार का वर्णन हुआ है वह मुग्ध करता है. ये किसी नव-हस्ताक्षर के लिए ध्यान देने तथा सीखने के विन्दु हैं. ऐसी विवेचना आपकी तीक्ष्ण परख का द्योतक है. वैसे इस प्रस्तुति में तनिक और कसावट की पूरी संभावना है. इसकी तरफ आपका ध्यान जाना था.
कहते-कहते रिक्शा वाला सिसकने लगा .. इस प्रहारक पंक्ति को तनिक और व्यावहारिक बनाया जा सकता था. जैसे, रिक्शा वाले की आँ खें नम हो गयीं, या, गला भर आया, या ऐसा ही कुछ.
आपकी प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई तथा शुभकामनाएँ, रवि भाई.
सर्वोपरि, आपकी प्रस्तुति से आयोजन की शुरुआत हुई है इस हेतु आपको विशेष बधाई.
शुभ-शुभ
श्रद्धेय सौरभ भाई जी, कथा पर आपके अभ्यनुमोदन का ह्दय की गहराईयों से शुक्रगुजार हूं। /वैसे इस प्रस्तुति में तनिक और कसावट की पूरी संभावना है./ आपके कथन से पूर्णरूपेण सहमत हूं। यह कथा मैनें रात ग्यारह बजे लिखी और घंटे भर में ही फाइनल कर पोस्ट कर दी, जबकि मैं आमतौर पर किसी भी रचना को लिखने व पोस्ट करने में कम से कम 20 या 25 दिन का समय अवश्य लेता हूं और कई बार तो कई कई महीने भी कथा से संतुष्ट नहीं होता। आयोजन का श्रीगणेश करने का लालच ही शायद मुझे यह गल्ती करवाने के कारण है। आपकी सार्थक प्रतिक्रिया हेतु सादर धन्यवाद ।
भाई रवि जी, आपकी स्वीकृति मोह गयी.. :-)))
शुभेच्छाएँ
विषय को परिभाषित करती हुयी एक अच्छी लघु कथा कही है आपने आदरणीय रवि प्रभाकर जी ,बधाई स्वीकारें l
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