For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए(ग़ज़ल 'राज')

221  2121  1221  212

 

उनके खजाने जैसे ही वोटों से भर गये                                                                                                                                       नकली लगे हुए वो मुखौटे उतर गये

आकाश में उड़े न उड़े फिक्र क्या उन्हें

,जाते हुए गरीब के वो पर कुतर गए

 

उनका उभर गया है जमीर आईने में क्या,

जो  लोग आज अक्स से अपने ही डर गए.

 

हर सिम्त दर्द-ओ-गम का समंदर उमड पड़ा,

माकूल हसरतों के जजीरे बिखर गए

 

मायूस ढूँढती फिरें सरहद की बुलबुलें,

अब देश भक्ति के वो तराने किधर गए.

 

गलती करें तो सोचते किसका पड़ा असर

,बच्चे हमारे अपने हैं तो अपने पर गए

 

वो दूसरों के अश्क सदा देखकर हँसे

,ठोकर जो जिन्दगी में मिली तो सुधर गए

 

करते रहे सितम पे सितम बे जुबानो  पर,

उनकी खुली जुबान तो क्यूँ कर अखर गए.

 

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,

परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.

 

रंगीनियाँ बिखेरती कातिल अदा से वो                                                                                                 सैय्याद की गिरफ्त में सारे हुनर गए.

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Views: 840

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 4, 2015 at 8:37am

आ० श्री सुनील जी ,आपको ये अशआर पसंद आये दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .

Comment by shree suneel on November 3, 2015 at 10:31pm
करते रहे सितम पे सितम बे जुबानो पर,
उनकी खुली जुबान तो क्यूँ कर अखर गए.... बहुत बढि़या

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,
परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.... व्वाहह वाकई उम्दा शे'र बहुत ख़ूब
बधाई आपको आदरणीया, इन अशआर के लिए.

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 3, 2015 at 8:09pm

आ०  गिरिराज जी,आपको  ग़ज़ल अच्छी लगी मेरा लिखना सफल हुआ हार्दिक आभार आपका  


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 3, 2015 at 6:13pm

आदरणीया राजेश जी , अच्छी गज़ल कही है , दिली मुबारकबाद कुबूल करें ।

अपने मकाँ बना के बड़ा खुश हुआ बशर,

परवाह उसको है कहाँ कितने शज़र गए.  -- इस शेर के लिये हार्दिक बधाइयाँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 3, 2015 at 9:53am

आपके कहने  के अनुसार  ग़ज़ल को एडिट किया है आ० मनन जी  तथा अनुस्वार  भी हटा  दिए  हैं  | इस्स्लाह  के लिए मिथिलेश भैया ,आ०  रवि शुक्ल जी व्  आपका तहे  दिल  से  शुक्रिया.  

Comment by Manan Kumar singh on November 2, 2015 at 8:54pm
मेरा भी आशय अनुस्वार से ही था राजेश कुमारी जी।हाँ,क्यूँ आखर गए पुल्लिंग की तरफ इंगित करता है,जुबान की तरफ नहीं;मेरा अहि आशय था।विशेष तौर पर आप को जो माकूल लगे।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 2, 2015 at 8:27pm

हाँ,मायूस ही रहना चाहिए मायूसं नहीं,मात्रा भी बाधित हो रही है और शुद्धि भी ??? आ० मनन कुमार जी ,मैं आपके कहने का आशय नहीं समझ पाई मायूस में कहाँ मात्रा बाधित हो रही है मायूस को २२१ में ही बाँधा है कृपया बताएं शुद्धि में कहाँ गड़बड़ है ?? इसे पोस्ट को करने में कुछ तकनीकि गड़बड़ हुई  कहीं कहीं बिंदु खुद ब खुद लग गए अशआर भी आगे पीछे हो गए आपका मतलब  बिंदु से है अर्थात मायूसम कोई शब्द ही नहीं होता उसे लेने का क्या लोजिक होगा इतना तो आप भी समझ सकते हैं आप इसे टंकण त्रुटी भी कह सकते थे | दूसरी बात अखर गए इसमें क्या  अर्थ बाधा आपको प्रतीत हुई मैं नहीं समझ पा रही हूँ ---उसकी खुली जुबान तो क्यूँ कर अखर गए----अर्थात उनका बोलना क्यूँ बुरा लगा ?  आपका बहुत- बहुत शुक्रिया 

Comment by Manan Kumar singh on November 2, 2015 at 8:12pm
अच्छी गजल,भावों से ओत-प्रोत आदरणीया।हाँ,मायूस ही रहना चाहिए मायूसं नहीं,मात्रा भी बाधित हो रही है और शुद्धि भी;फिर 'उनकी खुली जुबान तो .....अखर गए' कुछ अर्थ-बाधा प्रतीत होती है,वैसे आप खुद देख लें,बहुत बहुत बधाई आपको।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 2, 2015 at 7:17pm

आ० डॉ ० आशुतोष जी ,आपको ग़ज़ल के अशआर पसंद आये मेरा लिखना सार्थक हो गया आपका तहे दिल से बहुत- बहुत आभार |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 2, 2015 at 7:16pm

आ० रवि शुक्ल जी ,आपकी शेर दर शेर समीक्षा से उत्साहित हूँ आपकी इस्स्लाह भी स्वागत योग्य है ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ ..दरअसल ये एक फिलबदीह ग़ज़ल थी जो सिर्फ दर पंद्रह  मिनट में लिखी थी जो जैसी की तैसी ही पोस्ट कर दी अपनी मूल प्रति में अवश्य संशोधन कर लूँगी बहुत- बहुत आभार |

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Ashok Kumar Raktale replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"कह-मुकरी * प्रश्न नया नित जुड़ता जाए। एक नहीं वह हल कर पाए। थक-हार गया वह खेल जुआ। क्या सखि साजन?…"
10 hours ago
pratibha pande replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"कभी इधर है कभी उधर है भाती कभी न एक डगर है इसने कब किसकी है मानी क्या सखि साजन? नहीं जवानी __ खींच-…"
15 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Aazi Tamaam's blog post तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या
"आदरणीय तमाम जी, आपने भी सर्वथा उचित बातें कीं। मैं अवश्य ही साहित्य को और अच्छे ढंग से पढ़ने का…"
18 hours ago
Aazi Tamaam commented on Aazi Tamaam's blog post तरही ग़ज़ल: इस 'अदालत में ये क़ातिल सच ही फ़रमावेंगे क्या
"आदरणीय सौरभ जी सह सम्मान मैं यह कहना चाहूँगा की आपको साहित्य को और अच्छे से पढ़ने और समझने की…"
21 hours ago
Sushil Sarna replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"कह मुकरियाँ .... जीवन तो है अजब पहेली सपनों से ये हरदम खेली इसको कोई समझ न पाया ऐ सखि साजन? ना सखि…"
21 hours ago
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"मुकरियाँ +++++++++ (१ ) जीवन में उलझन ही उलझन। दिखता नहीं कहीं अपनापन॥ गया तभी से है सूनापन। क्या…"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"  कह मुकरियां :       (1) क्या बढ़िया सुकून मिलता था शायद  वो  मिजाज…"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 171 in the group चित्र से काव्य तक
"रात दिवस केवल भरमाए। सपनों में भी खूब सताए। उसके कारण पीड़ित मन। क्या सखि साजन! नहीं उलझन। सोच समझ…"
yesterday
Aazi Tamaam posted blog posts
Friday
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post लौटा सफ़र से आज ही, अपना ज़मीर है -लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई,  भाई लक्ष्मण सिंह 'मुसाफिर' साहब! हार्दिक बधाई आपको !"
Thursday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय मिथिलेश भाई, रचनाओं पर आपकी आमद रचनाकर्म के प्रति आश्वस्त करती है.  लिखा-कहा समीचीन और…"
Wednesday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर commented on Saurabh Pandey's blog post कापुरुष है, जता रही गाली// सौरभ
"आदरणीय सौरभ सर, गाली की रदीफ और ये काफिया। क्या ही खूब ग़ज़ल कही है। इस शानदार प्रस्तुति हेतु…"
Tuesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service