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कल से बहुत व्यस्त थी अभी नेट पर आना हुआ देरी से आने का खेद है राजनीति की चकाचौंध अच्छे खासे संकल्प को ले डूबी होता भी है यही लालच अच्छों अच्छों को कमजोर बना देता है फिर वो तो निर्धन था कब तक अडिग रहता प्रतीकात्मक तरीके से सुसज्जित एक सफल लघु कथा के लिए हार्दिक बधाई आ० कांता जी |
कब से इंतज़ार कर रहे थे हम सभी आपका यहां मंच पर।
आदरणीय मिथिलेश जी की भी अनुपस्थिति ने इस बार मंच को जरा सुना कर दिया है।
भले देर से आई लेकिन बहुत ही सुखद हवा का प्रवाह साथ लेकर आई है।
कथा पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर अभिभूत हुई हूँ। हृदयतल से आभार आपको आदरणीया राजेश कुमारी जी।
चांद को बेदाग करने का ... !!! हाय -हाय नेहा जी , आपने तो मेरी दुखती रग पर हाथ रख दी है।
पोथी पढ़ -पढ़ कर भी मेरा पंडित होना नहीं होगा लगता है और हिंदी साहित्य , प्रेम और भाव का नहीं , उचित शब्द , सही वाकया -विन्यास का भूखा है , सही सम्प्रेषण का भूखा है , आखिर ,मैं अकेली ,छोटी सी जान ,कितना सारा संकल्प पूरा करुँगी।,
आप सब भी न नेहा जी , अब जाने ही दीजिये , दुखी आत्मा हूँ , अधिक संकल्पों के भार से दब न जाऊं। हा हा हा हा........ सादर।
मेरा संकल्प
"बेटा मेरा अब कोई भरोसा नही और कितने दिन की मेहमान हूँ , तू गुड्डो के लिए कोई लड़का देख जल्दी से उसके हाथ पीले कर दे ।" माँ ने नीरज से कहा तो नीरज मंद ही मंद मुस्कुरा कर बोला "माँ पिछले चार पांच साल से यही सुन रहा हूँ ।"
"मेरी आखिरी इच्छा है कि ये काम मेरे जीते जी ही हो जाये ।"
"हां माँ , मैं भी सोच रहा हूँ कि अपनी इच्छा पूरी हुए बिना तू भी कहीँ नही जाने वाली और तब तक शायद मेरा संकल्प भी पूरा हो जाये ।"
"पहेली ना बुझा , सही से बता क्या है तेरे जी में ?" माँ ने पूछा तो नीरज ने कहा "माँ ! मैंने सोचा है कि पढ़ी लिखी नौकरी वाली बेटी ही विदा करूँगा और बहू भी ऐसी ही लाऊंगा ।"
"तेरी बात मैं समझु हूँ बेटा लेकिन चल बेटी को तो पढ़ा ले लेकिन ज्यादा पढ़ी लिखी बहू का क्या करेगें कल को फिर वो ही म्हारे सिर पे नाचेगी ।"
"हां , जब तो तुझे बड़ा भला लग है जब तेरी बहू सब दवाइयों के नाम पढ़ पढ़कर तुझे सही दवाई दे देव है , भला हो वो प्रौढ़ शिक्षा वाली बहनजी का वर्ना तुने तो मेरे मत्थे भी अनपढ़ ही बाँध दी थी ।"
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मौलिक और अप्रकाशित
//भला हो वो प्रौढ़ शिक्षा वाली बहनजी का वर्ना तुने तो मेरे मत्थे भी अनपढ़ ही बाँध दी थी ।"//वाह !!! बहुत खूब तंज कस है आपने अपनी कथा में रूढ़िवादी मानसिकता पर। समय के साथ सोच भी परिवर्तित होती है ये बखूबी निर्वाह हुआ है यहां। पिता का संकल्प बेटी और बहू के लिए सार्थक हुई है। बधाई स्वीकार करें आप आदरणीया नीता सैनी जी।
//बेटी न तो पढ़ा ले लेकिन ज्यादा पढ़ी लिखी बहू का क्या करेगें कल को फिर वो ही म्हारे सिर पे नाचेगी ।"// आम सोच समाज की जिससे जकडे है हम आज भी.लेकिन भला हो वो प्रौढ़ शिक्षा वाली बहनजी का जो सोच बदल गई.सार्थक रचना नीता जी
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