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टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ सविता मिश्रा जी
टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ वीर मेहता जी, आपकी उत्साहवर्धक टिप्पणी सुकूनदायक होती है
आदरणीय विनय जी, आपकी लघुकथा में पारिवारिक ’शोषण’ का बड़ा ही सटीक चित्रण हुआ है. तथा उस कश्मकश को भी आपने बखूबी ज़ाहिर किया है. हार्दिक धन्यवाद आदरणीय.
टिप्पणी के लिए बहुत बहुत आभार आ सौरभ पाण्डेय जी
संकल्प
"अरे ! डॉ . साहब कहाँ हैं आप ? मेरे इकलौते बेटे को बचा लीजिये " आगन्तुक की जानी-पहचानी आवाज सुनकर एम्. डी.साहिबा मीता स्वयं बाहर निकल आयी।तब तक मरीज को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया जा चुका था।सांत्वनावश मरीज के परिजनों से कहा -
"धीरज रखिये " आगे के शब्दों ने उनका साथ नहीं दिया और वे मरीज के परिजन राजेश को फटी आँखों से देखती रह गयी और ना चाहते हुए भी वह अतीत के सागर में विचरण करने लगी-
"मैं तुम्हारे साथ और नहीं रह सकता ।खर्चे के लिए तुम्हे मैं पैसा दे दूंगा लेकिन कोई बवाल नहीं चाहिए।"
"राजेश , क्या कह रहे हैं आप ? हमारे बेटे का क्या होगा सोचिये ? हम कहाँ जायेंगे?"
"जाओ अपने नट-बोल्ड बेचने वाले बाप के पास "
"लेकिन ऐसा उसमे क्या हैं जो मुझमे नहीं ? "
"वह पढ़ी- लिखी हैं, सोसायटी में उठना-बैठना जानती है।कोई तुम्हारी तरह जाहिल-गवाँर थोड़े ही हैं ।"
उसके पश्चात लड़ाई- झगड़े और शारीरिक प्रताड़ना से हारकर उसने पिता के घर की शरण ली ।पिता की सहायता से ऑटो-पार्ट्स की दूकान खोली। जीवन की पथरीली राहों पर चलना आसान् नहीं था फिर भी संकल्प लिया बेटे निलय को अच्छी शिक्षा देने के साथ- साथ स्वयं को भी शिक्षित करने का।
कार्डियोलॉजिस्ट बेटे निलय की आवाज सुन वह वर्तमान में लौट आयी वह राजेश से कह रहा था
"आप चिंता ना करिये। वक्त-बेवक्त आपात स्थिति में मैं उपस्थित रहूंगा।"
साथ ही मीता ने जोड़ दिया "आपके इकलौते पुत्र को कुछ नहीं होगा ।मेरे पुत्र पर भरोसा रखिये।"
मौलिक एवं अप्रकाशित
गजब का चित्रण किया है आपने आदरणीया अर्चना जी, ऐसा लगा सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो | इस रचना हेतु कृपया सादर बधाई स्वीकार करें|
परिस्थितियों से हार मान कर सब छोड़ देने से अच्छा है कि आगे देखा जाए । प्रदत्त विषय पर बहुत अच्छी रचना , बधाई आपको
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