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अच्छा प्रयास है आदरणीय प्रदीप नल जी । परन्तु /पढने को तुम हरामजादे पत्रकार छापते ही क्या हो/ इसमें शब्द 'हरामजादे' कुछ अखर रहा है। /पुलिस वाले ने मालिक को ढूंढ कर खोया पर्स लौटाया .../ हमारी व्यवस्था पर गहन तंज कस रहा है। परन्तु मुझे यह 'संकल्प' विषय से न्याय करती रचना प्रतीत नहीं हो रही (क्षमा सहित) । सादर
आपको प्रयास अच्छा लगा ,शुक्रिया रवि जी। दरअसल लघुकथा लिखने का प्रयास 1985 से कर रहा हूँ। कब सफल हो पाउँगा , नहीं जानता।
हरामजादे शब्द सचमुच ही गाली है जिसका प्रयोग सच्चे भारतीय को नहीं करना चाहिए। ( अफ़सोस मेरे मुंह से कभी-कभी निकल जाती है ,क्षमा चाहता हूँ )
यह संकल्प विषय से न्याय करती आपको प्रतीत नही हो रही , सुन कर अच्छा लगा। निवेदन यह कि रचना की अंतिम पंक्ति एक बार फिर पढ़ लें। लीजिए
"आज पिता जी की आँखों में जो तेज आलोक था , वह चश्मे के मोटे लेंस से निकल कर भुवन की आँखों में जा रहा था और उसकी आँखों के जाले साफ़ होते जा रहे थे।"
नेगटिव न्यूज़ छापते रहने वाले पत्रकार बेटे की आँखों के जाले साफ़ हुए होंगे तो उसने क्या संकल्प किया होगा,understood है। फिर भी कोई शंका हो तो अवश्य बताएं। मैंने इस विषय पर एक और शानदार रचना लिखी है मगर OBO के नियमानुसार यहाँ लिंक नहीं दे सकता। संभव हो तो गूगल सर्च में ये शब्द डाल दें -दाढ़ी वाली मल्लिका शेरावत
फिर देखिएगा क्या चीज़ निकल कर आती है। बहुत बहुत धन्यवाद इधर आने के लिए
वाह ,वाह !! प्रेस मीडिया को आइना दिखाती एक सार्थक कथा !! बधाई स्वीकारे आद. प्रदीप नील जी
प्रिय द्विवेदी जी ,
आपका बहुत बहुत शुक्रिया मेरी रचना को अपना अमूल्य समय दिया
इस प्रेम का ऋणी हूँ
आदरणीय नीता जी , अच्छा लगा कि आपने लघुकथा से वह तो समझा ही जो दिख रहा था , वह भी समझा जो मैंने अनकहा छोड़ दिया था -सुधि पाठक के विवेक पर। आपको भुवन का वह संकल्प दिखाई दे गया जिसे मैंने प्रत्यक्ष रूप से नहीं दिखाया था।
सच कहूँ नीता जी , साहित्य मेरे जैसे लेखकों के कारण नहीं बल्कि आप जैसे पाठकों के कारण जिन्दा है , रहेगा भी।
जब लेखक कहता है " एक कुत्ता था " तो यह पाठक की अक्ल पर निर्भर करता है कि वह कुत्ते के रंग की कल्पना खुद कर ले क्योंकि स्वाभाविक है कि रंगहीन कुत्ता तो होता नहीं।
ऐसे में कोई इस वाक्य की प्रशंसा में पूछ बैठे - आपने कुत्ते का रंग तो बताया ही नहीं तो बेचारा लेखक अपना सर ही धुन सकता है।
आप जैसा पाठक ही मुझे चाहिए था
अपना मेसज बॉक्स देखिए। लिंक भेज रहा हूँ
आदरणीय प्रदीप नीलजी, लघुकथा गोष्ठी में आपकी प्रस्तुति का स्वागत है. मंच पर यह पहली गोष्ठी (या आयोजन भी) है जिसमें आपकी रचना प्रस्तुत हुई है.
निस्संदेह आपके पास लघुकथा-रचना के समृद्ध संस्कार हैं. इस मंच के अन्य सदस्य इसे स्वीकारेंगे भी. किन्तु यह मंच मात्र लघुकथा की प्रस्तुति नहीं, बल्कि प्रस्तुत हुई रचनाओं से प्रदत्त शीर्षक की संतुष्टि भी चाहता है. मैं आपकी प्रस्तुति से शीर्षक का कोई सार्थक साम्य नहीं देख पा रहा हूँ. वैसे, कोई कथा अपने विन्यास में किसी न किसी इंगित को प्रभावित तो करती ही है.
ऐसा ही कुछ इंगितों में यहाँ है. मैं आपकी रचनाधर्मिता के गहरे परिप्रेक्ष्य और उसकी समुन्नत संभावनाओं को सम्मान दे रहा हूँ तभी मेरी आपकी रचनाओं से ऐसी अपेक्षा बनी है. विश्वास है, आप मेरे कहे को अन्यथा न ले कर मेरे निवेदन की अंतर्धारा को समझियेगा.
एक बात और; आदरणीय, पिता पुत्र के पारस्परिक संवादों में ’हरामज़ादा’ जैसे शब्द का प्रयोग हमारी ओर अमूमन नहीं होता, अतः ऐसी कोई उक्ति सहजता से स्वीकार्य नहीं हो पायी. बाकी, आपकी रचना का प्रवाह सहज है.
आदरणीय, इस मंच पर रचनाकरों को नहीं बल्कि यहाँ प्रस्तुत हुई रचनाओं को सम्मान देने की परिपाटी है. आप चूँकि अपेक्षाकृत अभी नये हैं अतः ऐसा कह रहा हूँ. आगे आप कई तथ्य स्वयमेव समझ जायेंगे इसकी हमें पूर्ण आश्वस्ति है. आपकी संवेदनशीलता आश्वस्तिकारी है.
सादर
आदरणीय सौरभ जी , टिप्पणी के लिए बेहद शुक्रिया। आप इधर आए , समय दिया , आभारी हूँ।
सादर
सतविंदर भाई ,आपने जो संबल दिया , आभारी हूँ।
लघुकथा असल में अंग्रेजी से आई है short story को हमने हिंदी अनुवाद किया और जुट गए लिखने। पंजाबी में इसे मिनी कहानी कहते हैं ( मिनी शब्द भी अंग्रेजी का ही है,निस्संदेह।
80 के दशक में पत्र-पत्रिकाओं ने इसे हाथों-हाथ लिया। फिर कुछ समय बाद इसकी दुर्गति शुरू हो गई क्योंकि हर कोई , हर कोई का मतलब हर कोई , इसे लिखने लगा। और हर कोई छपने भी लगा। कहाँ तो सारिका और हंस जैसी पत्रिका के संपादक और कहाँ यौवन का परनाला जैसे शीर्षक जैसे अख़बारों के संपादक।चुटकुले और जातक कथाएँ तक लघुकथा के नाम पर छपने लगी। पर दोनों लघुकथा छाप रहे थे. ऐसे में इस विधा की जो दुर्गति हुई पूछे मत।
बढ़िया लोग लघुकथा लिखने से परहेज करने लगे। यह पतन का युग था।
उसके बाद आलोचक आन पहुंचे। उन्होंने साँचे तैयार कर दिए ईंट बनाने के सांचों जैसे। अब सुंदर आकार की ( प्रकार की नहीं ) रचना शुरू हो गई। अब तक चल रही है।
संशय मत रखें। अच्छी रचनाएँ पढ़ें और मन से लिखें। एक प्रण अवश्य कर लें कि घटिया रचना नहीं करूँगा। पाठक जिसे सराहें वही सबसे अच्छी रचना होती है। हम आलोचकों के लिए नहीं पाठकों के लिए लिखते हैं
इति कल्याणम
संकल्प
“कैसे कहूं , कितनी बार कहूं , मांगने की भी कोई हद होती है I इससे तो अच्छा है मैं जाब कर लूं, आखिर मेरी पी-यच0 डी0 कब काम आयेगी ‘
‘यह आख़िरी बार है , एक बार मेरा क्लीनिक बन जाये , फिर मुझे कुछ नहीं चाहिए I ‘
‘क्लीनिक कोई लाख दो लाख में तो बनेगा नहीं , मैं अपने पिता से इतनी बड़ी डिमांड नहीं कर सकती I'
‘सोच लो, अगर तुम्हे मेरे पास रहना है I ‘ -डा0 लोलुप ने भयानक स्वर में कहा I
प्रज्ञा की आँखों में आंसू आ गए I हारकर उसने पिता को फोन मिलाया I
‘सुनिये ‘ -कुछ देर बाद प्रज्ञा ने पति को पुकारा I
‘सुन रहां हूँ , तुम्हारे पिता ने क्या कहा ?
‘वह इस शर्त पर राजी हैं कि क्लीनिक उनके शहर में बनेगा , वहां उनकी अपनी जमीन है I ‘
‘पर वहां बनवायेगा कौन , अभी तो मेरी प्रैक्टिस यहाँ चल रही है I’
‘मुझे ही जाना होगा, तीन चार महीने की बात है, हाँ तुम्हे यहाँ अकेले रहना होगा I मैं तुम्हे सीधे उद्घाटन पर बुलाऊंगी I’
पति ने सोचा, चलो बनवाने के झंझट से भी मुक्ति मिली I उसने स्वीकृति दे दी I छह महीने बाद प्रज्ञा ने पति को उद्घाटन पर आने का निमंत्रण दिया I डा0 लोलुप नियत समय पर नियत स्थान पर पहुंचे पर वह यह देख हैरान थे कि वहाँ कोई क्लिनिक नहीं अपितु एक हाईस्कूल का बोर्ड लगा था I उसने झल्लाकर पूंछा – ‘यह क्या मजाक है, प्रज्ञा ?’
‘यह मजाक नहीं मेरा संकल्प है जो मैंने उस दिन लिया था, जब तुमने अपने क्लीनिक के लिए पिता से पैसे मांगने को कहा था I मैने सोचा जब मांगना ही है तो अपने लिए मांगू तुम्हारे जैसे लालची के लिए क्यों मांगू ? यह स्कूल मेरे उसी संकल्प की तावीर है I ‘
(मौलिक व् अप्रकाशित )
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