"बूँद बूँद सागर" (लघुकथा संकलन)
संपादक: डॉ जीतेंद्र जीतू/डॉ नीरज सुधांशु
प्रकाशक: वानिका पब्लिकेशन्स, बिजनौर (उ.प्र.)
मूल्य: 250 रुपये
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पुस्तक प्रकाशन आज के समय में एक महंगा सौदा है I हिंदी लघुकथा में तो वैसे ही प्रकाशकों का ज़बरदस्त अकाल है, तो ऐसे में साझा लघुकथा संग्रह का विचार न केवल उत्तम है अपितु व्यवहारिक भी हैI "बूँद बूँद सागर" 47 नवोदित एवं स्थापित रचनाकारों की 188 लाघुकथाओं का ऐसा ही एक साझा संग्रह है जिसका संकलन व संपादन डॉ जीतेंद्र "जीतू" जी तथा डॉ नीरज सुधांशु जी द्वारा किया गया है I मुझे भी दिल्ली 10 जनवरी २०१६ को दिल्ली में विश्व पुस्तक मेले के दौरान इस संकलन के विमोचन समारोह में शामिल होने का गौरव हासिल हुआ थाI
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इस संग्रह की रचनायों को पढ़ना किसी फूलों की नर्सरी में घूमने जैसा अनुभव रहा, जहाँ विभिन्न आकार, प्रकार, रंग और सुगंध के पुष्प अपनी अलग पहचान के साथ खिली और अधखिली अवस्था में विभिन्न आकार के गमलों में मौजूद हैंI जहाँ हर तरफ भांति भांति के बेल-बूटे हैं, कुछ छतनार तो कुछ इकहरे, कुछ कमज़ोर तो कुछ हाल ही में बीज फोड़ कर बाहरी जगत से रू-ब-रू होते हुएI जहाँ अनुभवी एवं पुरोधा लघुकथाकारों, सर्वश्री बलराम अग्रवाल जी, सुभाष नीरव जी, रामेश्वर हिमांशु काम्बोज जी, सुकेश सहनी जी, मधुदीप गुप्ता जी, डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति जी, श्याम सुन्दर अग्रवाल की रचनाओं ने इस संग्रह में चार चाँद लगाए वहीँ नवोदित रचनाकारों की काफी लघुकथाएँ भी प्रभावित करती हैंI ऐसे सुमेल को तो स्तुत्य ही कहा जा सकता हैI मेरे विचार में यह नवोदित लघुकथाकारों के लिए यह जानने और समझने का एक सुनहरी अवसर भी है कि लघुकथा वास्तव में होनी कैसी चाहिएI
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हमारी रोज़मर्रा की जिंदगी में जो घटित हो रहा होता है उसे तो सभी देख और महसूस कर सकते हैं, किन्तु एक सफल व अनुभवी लघुकथाकार उस "दिख रहे" में से "अनदिखे" को उभार कर सामने ले आने का सामर्थ्य रखता हैI यही लघुकथा की विशेषता भी है और सुन्दरता भीI एक अनुभवी रचनाकार निजी पीड़ा को जब समाज से जोड़कर उसको वृहद आकार दे देता है तो वह पाठक के साथ एक करीबी रिश्ता जोड़ लेता है तथा रचना पढने वाले के दिल और दिमाग में घर कर जाती हैI यदि रचनाकार और पाठक की फ्रीक्वेंसी मैच नहीं करती, तो माना जाना चाहिए कि रचना अपने उद्देश्य में सफल नहीं रहीI
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सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ बलराम अग्रवाल की "पूजा वाली जगह" इस संकलन की एक अविस्मर्णीय लघुकथा है, जिसकी लेखन शैली से मंटो की खुशबू आती हैI उनकी एक अन्य लघुकथा "बीती सदी के चोचले" का विषय देखते ही बनता है, ऐसे नयेपन की आज लघुकथा को बेहद आवश्यकता है I इस लघुकथा के कथानक को जिस प्रकार लीक से हटकर ट्रीटमेंट दिया गया है, वह हर किसी के बूते की बात नहीं हैi मधुदीप की लघुकथा "हाँ मैं जीतना चाहता हूँ" एक बिलकुल ही अलग फ्लेवर की लघुकथा हैI रश्मि प्रणय वागले की लघुकथा "महादान" का विषय चौंकाता है, न केवल चौंकाता ही है बल्कि एक महत्वपूर्ण सन्देश भी देता हैI राजेन्द्र सिंह यादव की संवाद शैली में लिखी हुई लघुकथा "सूत्रधार" का प्रवाह देखते ही बनता हैI रामेश्वर हिमांशु काम्बोज की "धर्म निरपेक्ष" इस संकलन की बेहतरीन लघुकथाओं में से एक है जोकि साम्प्रदायिक सोच के मुँह पर एक करार तमाचा हैI रोहिताश्व शर्मा की लघुकथा "केमिस्ट्री" एक सशक्त लघुकथा है, जो विधा के सभी तकाज़े पूरे करती हैI विभा रश्मि की रचना "कंगाल" मन में वितृष्णा भर देती है, और पाठक उस सेठानी से नफरत करने लग जाता हैI वीरेन्द्र वीर मेहता की लघुकथा "बच्चे जवान हो गए न" में बंगलों में रहने वाले बच्चों की मानसिकता से शराफत के मुखौटों को नोच नोच कर उतारा गया हैI श्याम सुन्दर अग्रवाल की "राह में पड़ता गाँव" एक अतुलनीय कृति है जिसमे बेटे की हिकारत भरी मानसिकता और माँ की ममता के रूपों को बाकमाल तरीके से कलमबंद किया गया हैI डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति की लघुकथा "लैपटॉप" उम्र के आखरी पड़ाव से गुज़र रहे वृद्ध दंपत्ति की मन:स्थिति का मार्मिक चित्रण है, ऐसी लघुकथा किसी भी संकलन को एक अलग ही ऊंचाई देने में सक्षम होती हैI इसके इलावा यह लघुकथा इस तथ्य को भी पूर्णतय: सही सिद्ध करती है कि "किसी लघुकथा का "आकार" उसके "प्रकार" पर निर्भर करता हैI सुकेश साहनी की लघुकथा "जागरूक" एक कालजयी रचना है जिसमे एक कुत्ते को प्रतीक बनाकर मानव जाति की अकर्मण्यता पर निशाना साधा गया हैI मानव संवेदनायों की रेकी करती हुई सुभाष नीरव की लघुकथा "सहयात्री" पढ़कर पता चलता है कि एक सफल और सार्थक लघुकथा कैसी होनी चाहिएI
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सुभाष सलूजा की मात्र 6 पंक्तियों की लघुकथा "ज़मींदारी" अपने अन्दर एक पूरा उपन्यास समोए हुए हैI एक किसान से उसकी ज़मीन छिन जाने की पीड़ा से लबालब यह लघुकथा बेहद अर्थगर्भित हैI इस संकलन की जिन लघुकथाओं ने मुझे चौंकाया है उनमे से अव्वल है हरिवंश प्रभात की "तीसरा बेटा", ऐसी उत्कृष्ट लघुकथा का निर्माण बेहद संवेदनशील सोच एवं जीवन के गहन अनुभव के बगैर होना असंभव हैI डॉ सुधांशु नीरज की "खरीदी हुई औरत" का अंत मन मस्तिष्क को झझकोर देने वाला हैI प्रवीण झा की "अंतहीन इंतज़ार" एक बेहद सधी हुई प्रस्तुति है जो हमें उनके लेखन के परिपक्व पक्ष से परिचित करवाती हैI अनीता जैन की लघुकथा "आस" से उनके लेखन कौशल से रू-ब-रू करवाती है, इस लघुकथा में फ्लैशबैक तकनीक का इस्तेमाल कर जिस प्रकार रचना को कालखंड दोष से बचाया गया है, वह प्रशंसनीय हैI कांता रॉय की लघुकथा "जिंदगी का मोह" दृश्य चित्रण करने में सफल रही, इसे पढ़ते हुए पाठक सबकुछ अपनी आँखों के सामने घटित होते हुए देखता हैI इसके इलावा तेजवीर सिंह की "हिंदी का अखबार", निशि शर्मा की "असमंजस" राजेन्द्र गौर की "दूसरी पारो", रूपसिंह चंदेल की "मानसिकता", वीरेन्द्र वीर मेहता की "गुनाह" तथा सुधीर द्विवेदी की "सपना अम्मा का" भी इस संकलन की बेहतर लघुकथाएँ हैंI
साझा संकलन जहाँ रचनाकार के लिए अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर हुआ करता है वहीँ अक्सर ऐसे संकलनों में गुणवत्ता कहीं पीछे छूट जाने का खतरा भी बना रहता हैI हरचंद कोशिश के बावजूद भी कुछ ऐसी रचनाओं को स्थान मिल जाता है, जिन्हें संकलन में नहीं होना चाहिए थाI नवोदित लघुकथाकारों को बतकहनी और लघुकथा में अंतर को समझना होगाI विषयों में नयापन तथा शैली में कसावट लानी ही होगीI सौ की एक बात, नवोदित रचनकारों को यह समझना होगा कि लघुकथा विधा आसान नहीं हैI लेकिन यह विधा कोई हौव्वा है, यह कहना भी सरासर गलत होगाI सतत प्रयास, अध्ययन और अभ्यास से इस विधा में प्रवीणता प्राप्त की जा सकती है, क्योंकि मेहनत ही हर सफलता की कुंजी हैI बहरहाल, इतने लघुकथाकारों को एक साथ एकत्रित करना तथा उनकी रचनाओं को संकलित/सम्पादित कर उन्हें पुस्तक रूप देना भी एक महती कार्य हुआ करता है, जिस हेतु सम्पादक द्वय साधुवाद एवं प्रश्स्तिवाद के सुपात्र हैंI मुझे पूर्ण आशा है कि लघुकथा विधा में इस संकलन के माध्यम से इनका यह प्रयास अवश्य सराहा जाएगाI
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(मौलिक और अप्रकाशित).
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बहुत विस्तृत, सुन्दर व सटीक समीक्षा। हार्दिक आभार आ. योगराज जी।
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