समीक्षा - सौरभ पाण्डेय
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गीत आत्मीय भावों की गहनता के शाब्दिक स्वरूप होते हैं । इसी कारण, गीतों में प्रेम, वेदना, करुणा, आध्यात्म आदि के विभिन्न आयामों की नितांत वैयक्तिक अनुभूतियों का स्थान सर्वोपरि हुआ करता है । वस्तुतः गीतों के हो जाने का कारण उक्त भावनाओं के विभिन्न आयामों की सान्द्र स्वानुभूतियाँ ही हुआ करती हैं । इस तथ्य को पुनर्प्रतिस्थापित करता है अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से सद्यः प्रकाशित भावना तिवारी का गीत-संग्रह ’बूँद बूँद गंगाजल’ ! हालाँकि, यह गीतकार का पहला गीत-संग्रह है, किन्तु, इस तथ्य को सहज ही स्थापित कर देने में सक्षम है, कि भावना तिवारी के पास अंतर्मन को खँगालने की नैसर्गिक क्षमता है । संग्रह के माध्यम से गीतकार की नितांत वैयक्तिक भावनाएँ, सुख, दुख, प्रेम, भोग, टूटन, उल्लास, आनन्द, पीड़ा आदि अभिव्यक्तियाँ शब्द-मार्ग पा गयी हैं । साथ ही, अधिकांश रचनाओं का स्वरूप सर्वसमाही संप्रेषण का ऐसा उदाहरण बन कर सामने आया है, जिसके परिवेश में आमजन की तदनुरूप भावदशाएँ संतुष्टि पाती हैं । आजके साहित्य की माँग भी यही है कि गीत अपने नये कलेवर में वैयक्तिक मनोदशा के क्लिष्ट तत्त्वों को सहजता से अभिव्यक्त कर पायें, ताकि वे आमजन और प्रभावित वर्ग की अभिव्यक्ति बन पायें - अधर पर पहरे हज़ारों हैं लगे, / प्रीति के अब पत्र, / कौन बाँचेगा ? या फिर - संघर्षों के बीच न जाने / कैसे यौवन काटा / याद नहीं कितने हिस्सों में / मैंने खुद को बाँटा / कोने-कोने दहक रहे हैं / बेगाने अंगार / कबतक ढोऊँ इक तरफा / इन सम्बन्धों का भार ?
अंतर्मन की सूक्ष्म अनुभूतियों को परख कर उसे शाब्दिक करना एक क्लिष्ट प्रक्रिया है । इसके लिए असीम धैर्य, सहृद पारखी दृष्टि और उत्कट प्रेषण क्षमता चाहिए होती है ।
बाह्य-जगत की प्रतीतियों से प्रभावित इस गीतकार का अंतर्मुखी स्वरूप उन प्रतीतियों के प्रभावी कारणों को अपने भीतर अपने अर्जित ही नहीं वायव्य अनुभवों में भी ढूँढता है । कैसे ? कठोपनिषद की उद्घोषणा के सापेक्ष इस दशा को हम समझें -
पराञ्चिखानि व्यतृणत् स्वयम्भूः तस्मात् पराङ्पश्यति नान्तरात्मन् ।
कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मनं ऐक्षत् आवृत्तचक्षुः अमृतत्वं इच्छन् ॥ [कठ. २.१.१]
उपर्युक्त कहे का निहितार्थ यही है कि परमसत्ता ने श्रोत्रादि इन्द्रियों को विषय-प्रकाशक रचा है । इसी कारण सभी बाह्य जगत से प्रभावित हुए बाहर की ओर देखते हैं । कोई धैर्यवान ही मूल तत्त्व को जानने की इच्छा से अपने भीतर झाँकता है ।
केदार नाथ सिंह के शब्दों में - गीत कविताकर्म का एक अत्यंत ही निजी स्वर है, जिसमें कवि सारे बाह्य अवरोधों और असंख्य तहों को भेद कर सीधे अपने आप से बात करता है । देखा जाय तो अपने आप से हुई इस भावमय बातचीत की अनुगूँज ही शाब्दिक हो कर गीत के रूप में प्रस्फुटित होती है । इस विन्दु पर संग्रह का गीतकार भी अपने स्वर साधता हुआ दिखता है - हृदय-पाट खुल-खुल जाता है, / साँकल काम न करती / धरती बादल के अधरों को / छूकर दुगुना तड़पी / बाँध रही कितनी आशाएँ / आने वाले कल की / विरह-मिलन के खाते खोलूँ, आँसू का व्यापार करूँ / मैं इक नदिया जनम-जनम से, इक सागर से प्यार करूँ !
वस्तुतः गीति-भावाभिव्यक्तियों में भौतिक संसार के ऊहापोही संजाल और उलझनों के बावज़ूद जी सकने के सूत्र हुआ करते हैं । अवगुंठित वैचारिकता इन्हीं सूत्रों से प्रकाश एवं प्रवाह पाती है, जहाँ आत्मतुष्टि के विन्दु सहलाते और सहारा देते हुए संबल की तरह व्यवहार करते हैं । गीत-दायित्व पलायन कत्तई नहीं हैं, बल्कि स्थापित मान लिये गये व्यवहार एवं दशा से प्रत्यक्ष संवाद हैं – हाथ पसारे काल निरंतर / एक छोर से बाँधे तन को / एक छोर मुझसे न छूटा / कौन हटाये सम्मोहन को / .. / किधर मुक्ति है, मोक्ष किधर है / है अज्ञात क्षितिज का मिलना / साँसे शिथिल, हौसला घायल / पर प्राणान्त-प्रलय तक चलना / इधर मोह का नभ विस्तारित / उधर भूमि किसकी बतला दो !
प्रियतम से संयोग की दशा वायव्य ही क्यों न हो, यह गीतकार इन चरमानुभूतियों को गीति-अभिव्यक्ति के माध्यम से संप्रेषित होता है । ऐसे में अपेक्षित आनन्द में किसी तरह के व्यवधान के विरुद्ध गीतकार का चीत्कार उठना उसके अति सान्द्र प्रेमभाव का ही मुखर परिचायक है । स्वाभाविक है, प्रेमी-भाव को जीता हुआ गीतकार उपालम्भ भरे स्वर में अपने प्रथम पुरूष को उलाहने देता दिख रहा है, जो उसके आनन्दमार्ग का ही स्थूल सहभागी-यात्री है ! - तुम सबने समझा हम खुश हैं / क्यूँ भीतर की पीर न जानी / अपलक आँसू झरे नयन से / मुखर नहीं हो पायी बानी / पास हमारे कहने का हक / होता तो / सब कुछ कह लेते .. या फिर, .. प्यार बहुत है इस धरती पर / दूर क्षितिज तक अपनापन है / लेकिन जिस पर किया भरोसा / वही सगा छल जाता मन है / मन की दुखती रग़ छू जाये / मिलन अगर हो तो ऐसा हो .. या, इस गीतांश को देखें - मुझ बिन चैन न आये पलभर / तुमको शाप लगे जीवन का / विरही मन को छलने वाले / तुमको शाप लगे विरहन का !
ऐसा नहीं कि, उस पुरुष के प्रति गीतकार का उत्कट किन्तु अवचेतनीय अनुराग किसी तौर पर किसी संदेह के दायरे में है । बल्कि, यह अनुराग कई बार उस पुरुष के वायवीय सान्निध्य में भी आनन्द की सर्वोच्च दशा को प्राप्त होकर विशिष्ट भावदशा की आवृतिजन्य सतत अनुभूतियों का आनन्दमय कारण बन जाता है - तुम आये प्रिय लेकर प्यार / सिन्दूरी लगता संसार / दुखद क्षणों में विहँस मिले तुम / महक उठे ज्य़ूँ हरसिंगार ..
कहना न होगा, हरसिंगार के फूलों के टपक पड़ने का बिम्ब अन्यतम निस्सरण-अभिव्यक्ति के बिम्ब प्रस्तुत करता है । हो सकता है, उक्त पुरुष का वायव्य स्वरूप भौतिक स्वरूप से सर्वथा भिन्न हो ! चाहे जो हो, परन्तु ऐसा आम तौर पर होता रहा है । प्रथम पुरुष के भौतिक स्वरूप और पारस्परिक यथार्थ से गीतकार कई बार असहज दिखता है, परन्तु, अपने अंतर्मन में उसीकी अभिन्नता के चरम को भोगता भी है – जनम-जनम की प्यास अधूरी / सही निरंतर तुमसे दूरी / मैं घुल जाऊँ हो विलीन प्रिय / मिटूँ, चाहना हो ये पूरी / बंध तोड़ दो, मुझे बुला लो, निज साँसों के गाँवों में / रात-रात भर जगूँ न आये, नींद पनीली आँखों में !
भावदशा की ऐसी प्रवहमान धारा ही आध्यात्मिक पहलुओं की अभिव्यक्ति का कारण भी हुआ करती हैं – अब न कोई शेष इच्छा, अब न कोई भावना / अब न कोई आस मन में, अब न कोई याचना / एक चाहत है तुम्हारे पंथ में साथी बनूँ .. गीतकार का यही स्वरूप पाठकों की भावमय तृषा को संतुष्ट करता है और साहित्यांगन को आशान्वित !
भावना तिवारी के गीतों से गुजरते हुए एक बात जो बार-बार परिलक्षित होती है, वह ये, कि उनके अनवरत उत्कट आह और चिर अतृप्त चाह के बावज़ूद भावाभिव्यक्तियों में नैराश्य किसी सूरत में स्वर नहीं पाता । गीतकार बार-बार व्यवहार संतुलन की बात करता हुआ जीवन को भोगने एवं बरतने की बात करता है । इनके गीतों में मिट जाने या निसार हो जाने के भाव अद्वैत समर्पण के भाव का निरुपण अधिक हैं – अधरों से गीत मिल जाने दो / सांसों से प्रीत घुल जाने दो / मेरी पीड़ा में आज प्राण / निज दर्द विलय हो जाने दो / प्रिय, आज प्रणय हो जाने दो
या आशा का यह भावरूप देखें – रात जागेंगे नयन फिर / प्यास उपजेगी पुनः / और व्याकुल हो उठेगा / मन उसी भुजबन्ध को !
मनुष्य के संप्रेषण अंतर्मुखी हों अथवा बहिर्मुखी, प्रत्येक दशा में प्रकृति विद्यमान ही नहीं, रुपायमान भी रहती है । प्रकृति अपने वर्तमान स्वरूप में भी मानव की जीवनदशा को प्रभावित करती है । प्रकृति पर आश्रित ग्रामीण परिवेश की पुरानी जीवन-दशा से इतर लगातार रुक्ष होते हुए गाँव के विद्रूप माहौल हों अथवा ईंटों के जंगलनुमा शहर, इनमें जीने को बाध्य आज का आमजन अपने प्रतिदिन के संघर्ष में इसी के अव्यवस्थित स्वरूप को जीता हुआ प्रकृति की मौज़ूदग़ी को महसूसता है । कोई संवेदनशील गीतकार बिना प्रभावित हुए रह ही नहीं सकता – पौधे सूख गये हैं / पानी नहीं पड़ा है / जूही, बेला, गेंदा / सब पर गर्द चढ़ा है / नहीं कहीं से आती . गंध-लवेंडर वाली / तुमसे मिलना / हुआ असंभव / गया कलेण्डर खाली । कलेण्डर के बिम्ब से जिन इगितों को जीता हुआ नारी-मन अभिव्यक्ति पाता है, वह आजकी नारी के आत्म-विश्वास का ही परिचायक है – किस पराजय से डर / चाह किस जीत की / व्यर्थ है लालसा / राह में मीत की / काल नित समर / लड़ते रहना अथक / थम न जाना कहीं / मृत्यु का ध्यानकर / रुक न जाना कहीं, मीत तुम हार कर
गेय होना गीत की अनिवार्य शर्त है । गेयता की अंतर्धारा के बिना गीत की कल्पना हो ही नहीं सकती । परन्तु, यह भी उतना ही सही है कि हर गेय रचना गीत नहीं हो सकती । अर्थात, अभिव्यक्ति के गीत के होने में कमनीय उद्वेलन के साथ-साथ भावमय संगठन का भी बहुत बड़ा हाथ होता है । इस विन्दु पर हम यह भी समझते चलें कि कोई संगठन बिना अनुशासन और विधाजन्य अनुपालिका के संभव नहीं है । इसका अर्थ यही हुआ कि गीत की सरसता से प्रभावित होने के पूर्व गीतकारों को यह समझना ही होगा, कि गीत सरस, प्रवहमान भावाभिव्यक्ति होने के पूर्व शैल्पिक रचनाधर्मिता के अनुपालक हैं । उन्हें अनुशासन की कसौटी से अवश्य गुजरना चाहिए, अन्यथा गीतों को अन्यान्य कई कारकों के साथ-साथ विधा को ले कर अपनायी गयी अनुशासनहीनता से भी भयंकर चोट लगती है । कारण यह है, कि अनायास प्रयास से कुछ अभिव्यक्त भले हो जाय, गीत प्रस्फुटित नहीं होते । इस सम्बन्ध में प्रखर जनवादी गीतकार नचिकेताजी को सुनना समीचीन होगा - ’गीतकार रचना के माध्यम से केवल अपने को अभिव्यक्त नहीं करता, वरन्, अपने अनुभवों को समाज के अनुभवों से संश्लेषित कर, (या) अपने भीतर निहित आत्म को सामाजिक सम्बन्धों के साँचे में स्थिर कर सामाजिक दृष्टि से एक अत्यंत ही मूल्यवान वस्तु का ही निर्माण नहीं करता, अपितु वह अपने आत्म को ही नये साँचे में ढाल कर एक नयी सृष्टि करता है ।’’ नचिकेताजी ने सहज ही गीतों के भाव, उनकी दशा, उनकी पहुँच, उनके अर्थ और उनके स्वरूप को भी निरुपित कर दिया है । इस विन्दु पर आगे कहा जाय, तो शैल्पिक शिथिलता अभिव्यक्तियों की व्यापकता को संकुचित करती है, जो गीत के आचरण के विरुद्ध है ।
प्रस्तुत संग्रह में कई स्थानों पर इस प्रखर गीतकार की अभ्यास-प्रक्रिया का असहजपन उभर आता है । इस असहजपन का कारण विधासम्मत नियमादि तो हैं ही, पद्य साहित्य के अपने स्थूल विन्दु भी हैं, जिनका अनुपालन किया जाना बिना शर्त आवश्यक हुआ करता है । मंचीय प्रेषणीयता को कई विधाजन्य विन्दु आवश्यक न भी लगें, भले ही गीतकार द्वारा किया जाता भावविभोर रचना-पाठ कई ऐसे विन्दुओं को सहेजता-समेटता हुआ प्रवहमान होता जाये, जिनका साहित्यिक पक्ष लसर हो, किन्तु उन अभिव्यक्तियों की साहित्यिक ग्राह्यता और उनके प्रति सुधी पाठकों की स्वीकृति अवश्य असहज हुआ करती है । मंच और साहित्य के बीच का यह अंतर जितना शीघ्र कम हो, सारस्वत-विस्तार उतना ही निरभ्र होगा । इस निरभ्रता का लाभ उसी समाज को मिलना है जो साहित्य का हेतु है, यानी आमजन । अतः इस ओर सभी गीतकारों को सचेत हो कर सोचना ज़रूरी है । यही चेतना जनसाहित्य की अपेक्षा भी है । भावना तिवारी की संप्रेषणीयता के अन्यान्य पहलू इतने प्रखर हैं कि रचनाकर्म में ऐसी कोई विधाजन्य कमी बड़ी दिखने लगती है । परन्तु, आश्वस्ति है कि उनका गीतकार इसे बखूबी समझता है । वह इस ओर न केवल संवेदनशील है, बल्कि सम्यक चिंतित भी है – सारा जीवन / शिल्प प्रेम का / गढ़ नहि पाये / पंथ था दुष्कर / भटक कर / हाथ आई वेदनाएँ / ... / व्याकरण में ही उलझ कर / रह गयी सब भावनाएँ
वर्तमान परिस्थितियों में गीतों में यदि प्रगतिशीलता के तत्त्व न हों, तो वे एक विन्दु के बाद लगभग अप्रासंगिक हो जाते हैं । पाठक-श्रोता के तौर पर आमजन भी उनका लगातार आस्वादन नहीं कर पाता । पाठक को भावुकता की कोरी शब्दावलियाँ देर तक बाँधे नहीं रह सकतीं । गलदश्रु भावनाओं के निवेदनों का अतिरेक ही तो गीतों के हाशिये पर चले जाने का कारण बना था । यह प्रणय-निवेदनों और कमनीयतापूजन का जुगुप्साकारी अतिरक ही था, कि जिस समाज में सनातन काल से जीवन का हर प्रक्रम पीढ़ी-दर-पीढ़ी गीतों पर आश्रित रहा हो, हर तरह की भावना को अभिव्यक्त करने के लिए उसके पास गीतों का सरस आधार रहा हो, स्त्री-पुरुष, आबालवृद्ध गीतों की स्वरावृतियों से संजीवनी पाते रहे हों, उस समाज में गीतों को ही त्याज्य समझने की कुत्सित मुहीम चलायी गयी । कुछ हद तक यह वर्ग सफल भी रहा ।
वस्तुतः आजका पाठक वायव्य भाव-भावना और अति महिमामण्डित विगत की गाथा से देर तक बँधा नहीं रह सकता । छायावादी प्रतीकों और बिम्बों का रहस्य आजके पाठकों को देर तक नहीं लुभा सकता, जितना कि यथार्थवादी, वस्तुपरक, समाज सापेक्ष बिम्ब और कथ्य आमजन को बाँध सकते हैं । वस्तुतः यही गीत-यात्रा की नयी शुरुआत है । आजके पाठकों को तो गतिशील यथार्थ का बहुवादी स्वरूप अधिक आकर्षित करता है ! जहाँ जाति, सम्प्रदाय, भाषा, प्रान्त आदि की सीमाएँ अपने पारम्परिक संकीर्ण स्वरूप के कारण टूट रही हैं और गीत व्यापकता को अंगीकार कर नये समाज की संरचना के लिए आग्रही दिखता है । आवश्यक है, देश, काल, परिस्थिति और समाधान पाठक ही नहीं, गीतकार के लिए भी अधिक अर्थवान होने चाहिए । इस हिसाब से यह देखना आवश्यक हो जाता है कि रचनाकार इन अपेक्षाओं के सापेक्ष कितना संवेदनशील है । इस विन्दु पर आजका पाठक आजकी दशा, आजके बिम्ब और विडंबनाओं के विरुद्ध सामयिक समाधान चाहता है । अब गीतकारों को सचेत हो जाना चाहिए । गीति-काव्य आज अपने कई पहलुओं को साथ लिए साहित्यकर्म के केन्द्र में है ! भावना तिवारी के पास इस चेतनाबोध से उपजी उर्वर समझ अवश्य है । आवश्यकता है तो इस दृष्टि को तीक्ष्ण करने की तथा अभिव्यक्ति हेतु प्रयुक्त शब्दों को और प्रभावी बनाने की, जिनका स्वरूप वायव्य हो ही नहीं सकता । भावना तिवारी की सचेत दृष्टि को अनुमोदित करते प्रस्तुत संग्रह का एक गीतांश देखें – धूल, धुआँ, धूप के साये / कंकरीट-से रिश्ते पाये / हवा विरोधी, आपाधापी / छाया में भी तन जल जाये / क्या पाना था, क्या पाया है ? / खुद को कहाँ ढकेला है ? / ऊँचे टीले पर बैठा / मन-पंछी बहुत अकेला है !
फिर, एक आम गहिणी की लस्त दशा को प्रस्तुत करती इन पंक्तियों को देखना समीचीन होगा – हर दिन कटे मशीनों जैसा / साँझ सलोनी सपन हुई / चैन कहाँ गिरवी रख आये / रात सजीली हवन हुई / फूलों की अभिलाषा करते / बीज शूल के बोते हो ? या फिर, बेटियों की आज की सामाजिक दशा के प्रति संवेदनशीलता की एक बानग़ी देखें – बाबा के सत्कार-सी / मर्यादा परिवार की / क्यों लगती हैं भार-सी / थोथा देती फटक, सूप, होती हैं बेटियाँ / भोर लजीली भक्तिरूप होती हैं बेटियाँ ! कहना न होगा. कई प्रस्तुतियों के जातीयबोध का अंतर्निहित भाव अपने संकुचित दायरे से बाहर, सम्पूर्ण मानवीयता को स्वर देता हुआ प्रतीत होता है ।
कुल बहत्तर गीतों के इस संकलन में कई गीत भावना तिवारी के रचनाकर्म के प्रति असीम संभावनाएँ जगाते हैं । विश्वास है, उनका गीतकार अपनी सारस्वत क्षमता को परिमार्जित कर इस दिशा में और सचेष्ट, और आग्रही, और व्यापक होगा । इस संग्रह के माध्यम से गीतकार को डॉ. शिवओम ’अम्बर’, श्री मनोज कुमार ’मनोज’, श्री सतीश गुप्ता की सापेक्ष शुभकामनाएँ मिली हैं, जो संग्रह में भूमिकाओं के रूप में संग्रह का हिस्सा हैं । साथ ही, हार्ड-कवर के फ्लैप पर गीत-चितेरे पद्मभूषण गोपालदास ’नीरज’, डॉ. कुअँर बेचैन तथा डॉ. पंकज त्रिवेदी की प्रेरक शुभेच्छाएँ हैं । इन सभी का गीतकार भावना तिवारी के प्रति आत्मीय अनुराग सहज ही अभिव्यक्त हुआ है ।
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काव्य-संग्रह : बूँद बूँद गंगाजल
गीतकार : भावना तिवारी
कलेवर : हार्ड कवर
पुस्तक-मूल्य : रु. 200/
प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद.
ई-मेल : anjumanprakashan@gmail.com
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आदरणीय धर्मेन्द्रजी, आपने इस समीक्षा को अपनबहुमूल्य समय दिया और इसके मत को अनुमोदित किया, यह मेरे प्रयास को आवश्यक बल प्रदान कर रहा है.
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय.
पढती गई एक साँस में , पल भर को लगा की समीक्षा नहीं , बल्कि किताब को ही पढ़ रही हूँ । गीतात्मक भावप्रवणता के साथ आपने पुस्तक के कथ्य का सार ,महीन संवेदनशील पहलुओं को उजागर किया है ।आपकी यह समीक्षा इस पुस्तक रूपी ताले की चाभी सी प्रतीत हुई है जिसनें पुस्तक में निहित सभी काव्य रसों के रसास्वादन का एक चटकार सा एहसास दिया है । मन में पुस्तक के प्रति चाहना व कौतूहल का जाग उठना और मन को इसको पढने के लिए उद्वेलित करना , यह व्याकुलता ही आपकी इस समीक्षा की सार्थकता को सिद्ध करती है ।
सादर अभिनंदन आपको आदरणीया सौरभ जी ।
इसमें कोई संदेह नहीं, आदरणीया कान्ताजी, कि भावना तिवारी का यह पहला गीत-संग्रह है. भावना तिवारी आज साहित्यिक-सारस्वत मंचों पर तेज़ी से उभरता हुआ नाम है. उनकी प्रेषण क्षमता सुबोध ही नहीं आकर्षक भी है. समाज के सामने उनके द्वारा गीतों के गुच्छे ले आना गीत विधा के लिए भी हितकारी है. गीतों के बरअक्स मेरा निवेदन आपको प्रेरक और रोचक लगा यह मेरे लिए भी उत्साहवर्द्धन है.
आपका हार्दिक धन्यवाद. आदरणीया.
शुभ-शुभ
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