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बगावत

बगावत की है कलम ने
उसे भी अब आरक्षण चाहिए-
कुछ भी लिख दे
पुस्तकाकार में छपना चाहिए!
मैं अड़ गया अपना ईमान लेकर
तो
कलम ने अट्टहास किया,
तोड़ा, मरोड़ा, उखाड़ फेंका
उन शब्दों की पटरी को
जिन पर भूले-भटके
मेरी कल्पना की रेलगाड़ी
कभी-कभी खिसकती महसूस होती थी
और मैं बंद खिड़की के भीतर से
अनायास देखता रहता था पीछे सरकते
लहलहाते हुए, सूखाग्रस्त या
बाढ़ के गंदे पानी में डूबते उतराते
साहित्य के नए-पुराने खेतों को,
एक अनजान सफर में जाते हुए.
पर,
अब सब कुछ ठहरा हुआ है
क्योंकि किसी ने आरक्षण माँगा है.
कलम अपने वश में नहीं
मैं सोच रहा हूँ
वह इतना शुष्क,
संवेदनहीन कैसे हो गया
कि अंदर की चिनगारी से
इतनी बड़ी आग लगा दी!
स्तब्ध कर दिया
जन-जीवन की धारा को
बस एक अर्थहीन, तर्कहीन आरक्षण के लिए –
आज कुछ साँसें थम जाने के बाद
पता चला है
कि पटरियों की मरम्मत शुरू की गयी है.
शायद कल्पना की रेलगाड़ी
फिर से चल पड़े -
क्रमश: अदृश्य होते खेतों में
कौन सी फसल उगायी जा रही है
मैं कह नहीं सकता-
लेकिन आप सब निश्चिंत रहें
मैंने अपनी कलम को समझा दिया है
‘ऐसे भिखमंगे की तरह
हाथ मत फैलाया करो,
तुम्हें
मुझसे कोई आरक्षण नहीं मिलेगा.'
(मौलिक व अप्रकाशित रचना) ------शरदिंदु/लखनऊ/25.02.2016

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 26, 2016 at 9:29pm

लेकिन आप सब निश्चिंत रहें
मैंने अपनी कलम को समझा दिया है
‘ऐसे भिखमंगे की तरह
हाथ मत फैलाया करो,
तुम्हें
मुझसे कोई आरक्षण नहीं मिलेगा.'-------vaahvaah dadaa shree

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