आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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ज्वालामुखी
धनाढ्य लेकिन अव्वल दर्जे के शराबी के शव को देख घर चीखों से गूंज उठा था। कविता अतीत में विचरण कर रही थी।ब्याह के चन्द दिनों बाद ही उसने ससुराल जाने से इनकार कर दिया था लेकिन पिता ने नाराजगी जताते हुए कहा :
" सम्पन्न घर में हैसियत से अधिक खर्च कर इसलिये विवाह नहीं किया था की तुम पुनः वापस लौट आओ। अब जैसे भी हो सके निभाओ।अभी तुम्हारी दो बहने बिनब्याही हैं।"
कविता विवश हो ससुराल लौट आयी।हर रात कोठी उसके चीखों से दहल जाया करती थी और घर के सदस्य कानों में तेल ड़ाल सोते रहते थे।
" उठो बेटी एकबार पति को देख लो " किसी वृद्धा ने कहा ,अतीत की गलियों से निकल कविता यंत्रवत चल पड़ी और अचानक आक्रोश का ज्वालामुखी आँखों के साथ -साथ जुबां के रास्ते फट पड़ा :
" अच्छा हो गया तुमने मुझे मुक्त कर दिया लेकिन तुम्हें कभी भी और कहीं भी चैन नहीं मिलेगा। "
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मौलिक एवम् अप्रकाशित
बहुत बढ़िया रचना, एक औरत के आक्रोश की हद थी पंच लाइन में।सुंदर प्रस्तुति, कसा और चयनित शब्दों का उम्दा लेखन।बहुत मुबारक आपको आदरणीय अर्चना दीदी!सादर।
" अच्छा हो गया तुमने मुझे मुक्त कर दिया लेकिन तुम्हें कभी भी और कहीं भी चैन नहीं मिलेगा। "--- आक्रोश की उम्दा प्रस्तुति आदरनीय अर्चना त्रिपाठी जी. बधाई आप को .
एक सताई गई स्त्री का आक्रोश उसकी बद्दुआ बन फूट पड़ा। बहुत सुन्दर कथा आ. अर्चना जी।
बहुत बढ़िया कथा दीदी... स्त्री का सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यही है कि उसका कोई अपना होता ही नहीं.पिता को धन की चिंता रही जो खर्च किया उस पुत्री की नहीं जो पल पल उस घर में खर्च हो रही थी... भावुक कर देने वाली कथा पर ह्रदय से बधाई.
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