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न जानूँ मैं

न जानूँ मैं
तुम निराकार को
तुम्हारे आकार को
मूर्ति बन कहीं होते हो
कहीं होते हो एक प्रतीक बनकर
कोई कहता है
हो तुम ह्रदय में
कोई खोजता है
तुम्हें मन्दिर मस्जिद में
तुम गरीब में तुम ही अमीर में
तुम ही वन
तुम ही सागर
हर परिंदे की उड़ान तुम ही
हर जगह हो तुम
फिर भी ओझल हो आँखों से
न जानूँ तुमको मैं
प्रेम हो बस यह मानूँ मैं ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 6, 2016 at 8:28pm
आदरणीय सुशिल जी आप सही कह रहे हो ।अन्यथा लेने वाली कोई बात ही नहीं है सर आप सभी के बीच सीखना मिल रहा है ।सौभाग्य है यह मेरा । जी त्रुटियों के लिए क्षमा चाहती हूँ सादर
Comment by Sushil Sarna on August 6, 2016 at 8:21pm

आदरणीया कल्पना भट्ट जी बहुत ही सुंदर भावों को आपने अपनी इस रचना में पिरोया है। क्षमा सहित कहीं कहीं इसमें भावों का तारतम्य टूटता प्रतीत होता है। इस दार्शनिक भाव की प्रस्तुति में निराकार और साकार में तारतम्य बिठाने का प्रयास किया गया। ' तुम गरीब तुम ही अमीर 'पंक्ति को अगर तुम गरीब में तुम अमीर में ' कहा जाता तो उचित होता। प्रतिक शब्द प्रतीक है। .. कृपया देख लें। इस प्रस्तुति की अंतिम पंक्ति'' न जानूँ तुमको मैं
प्रेम हो बस यह मानूँ मैं '' इस प्रस्तुति का सार है। हार्दिक बधाई आदरणीया जी। कृपया मेरी किसी बात को अन्यथा न लेवें।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 6, 2016 at 12:28pm
धन्यवाद आदरणीय सर ।

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