सद्यः समाप्त हुए ’चित्र से काव्य तक’ प्रतियोगिता-सह-आयोजन (अंक - १०) में अनुष्टुप छंद पर भी प्रविष्टि आयी. ऐडमिन के सुझाव के अनुसार उक्त प्रविष्टि के साथ छंद पर लिखे फुट-नोट को पाठकों की सुविधा के लिये इस ग्रुप में डाला जा रहा है.
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श्रीमद्भग्वद्गीता का ही एक विशिष्ट श्लोक का उदाहरण दे रहा हूँ, तीसरे अध्याय से तीसरा श्लोक -
लोकेऽस्मिन द्विधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्म योगेन योगिनां ॥
प्रथम पंक्ति के सम चरण में मयानघ संधि-शब्द अत्यंत सटीक उदाहरण है, जहाँ ’घ’ पर पाठ के क्रम में स्वर-बल दिया जाता है किन्तु, इस ’घ’ से कोई दीर्घ स्वर नहीं जुड़ा है.
अन्य उदाहरण -
धर्म सर्वसमाही हो, कर्म धारे विशालता
गूढ़ बातें नहीं हैं ये, किन्तु बेशक जानिये --
होंगे राम अजानों में, दिखे कान्हा सलीम का
तभी समाज में व्यापे, आत्मीयता, उदारता
विश्वास है, प्रायस करने से छंद में कहना सरल हो जायेगा. सुधि-पाठकों की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है.
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--सौरभ
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आदरणीय सौरभ बड़े भईया अनुष्टुप छंद के सम्बन्ध में जानने के पश्चात अभी श्री मदभगवत गीता के श्लोक पढ़ने में अलग ही आनंद आ रहा है.... इस मनोहारी छंद के सम्बन्ध में सुन्दर/सहज/तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध करा कर विस्तार से समझाने के लिए सादर आभार....
जय ओ बी ओ
इस भगीरथ प्रयास हेतु आपको हार्दिक आभार व कोटिश: बधाई माननीय सौरभ सर।
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