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आँधियाँ ( लघु-कविता ) - डॉo विजय शंकर

ये कुदरत है ,
रुख , दाब हवा का संतुलन
बिगाड़िये मत , बना रहने दीजिये।
आँधियाँ किसी के बुलाये ,
लाये से , नहीं आतीं ,
और आ जाएँ तो
किसी के भगाये से नहीं जातीं।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on December 29, 2016 at 6:56am
आदरणीय महेंद्र कुमार जी , रचना पर आपके आगमन और उसे मान देने के लिए आपका ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on December 29, 2016 at 6:56am
आदरणीय सुरेंद्र नाथ कुशक्षत्रप जी , रचना को मान देने के लिए आपका ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on December 29, 2016 at 6:56am
आदरणीय डॉo गोपाल नारायण जी , आपकी उपस्थिति स्वयं महत्वपूर्ण होती है , मान देने के लिए आभार एवं धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on December 28, 2016 at 11:59am
आदरणीय समर कबीर साहब , नमस्कार , मेरी चार पंक्तियों को आपने इतना मान दिया , यह आपका सर्व परिचित बड्डपन है. आपने इसमें निहित विषय को महत्त्व दिया , उस पर विचार और चिंतन किया ,यह आपके पर्यावरण,प्रकृति , संसाधन ,जीवन के प्रति एक अत्यंत परिपक्कव , उच्च , गंभीर अनुभवी ज्ञान का हम सभी को अमृत लाभ है। मैं किन और कितने ही शब्दों में आभार व्यक्त करूं , वह कम ही होगा।
मैं आपकी इस बात को दोहराने की अनुमति भी चाहूँगा कि प्रकृति किसी भी संसाधन की कमी छोड़ती नहीं है , यह हमारी अपनी व्यवस्था की कमी होती है कि हम उसकी कमी बना लेते हैं और उस कमीं में व्यापारिक और राजनैतिक लाभ लेने लगते हैं और क्षति पूरे मानव समाज को उठानी पड़ती है। विश्व के बहुत बड़े हिस्से में अभी भी मकानों में बहुतायत से इमारती लकड़ी का प्रयोग होता है ,विशेषतः शीत जलवायु वाले देशों में। अमेरिका में स्ट्रीट लाईट हेतु लोह स्तंभों की जगह बड़े बड़े पेड़ों के तने प्रयोग किये जाते हैं , लोग अभी भी कुछ न कुछ लकड़ी जलाने में ( घर गरम करने में ) प्रयोग करते हैं।लकड़ी के फर्नीचर का प्रयोग हमसे कहीं बहुत अधिक करते हैं , फिर भी उनके वन वृक्षों से भरपूर हैं। हमारा पड़ोसी देश भूटान शून्य कार्बन की स्थिति को प्राप्त कर पर्यावरण की दृष्टि से प्रथम स्थान की ओर तेजी से बढ़ रहा है। शायद इन तमाम बातों के लिए राजनीति नहीं एक परिपक्कव सूझबूझ और ठोस शैक्षिक चेतना की आवश्यकता है जो पूरी कार्य शैली को सही मार्ग पर ले जाए। केवल स्कूल / कॉलेजों में वृक्षारोपण कार्यक्रम चला कर वांछित लक्ष्य कभी पूरे नहीं सकते हैं। यही बात अन्य प्राकृतिक सम्पदाओं के उपयोग सही ढंग से प्रयोग न हो पाने के बारे में भी कही जा सकती है। विषय गंभीर है , मौसमी कष्ट बढ़ रहे। प्राकृतिक समस्याएं टी वी सीरियलों की भांति क्रम से वर्ष भर आते हैं।
कुछ प्रयास इसी मंच से हो जाए।
आपका पुनः ह्रदय से आभार और धन्यवाद। सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on December 28, 2016 at 11:03am
आदरणीय तेजवीर सिंह जी , उपस्थिति एवं सुन्दर प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद। सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on December 28, 2016 at 11:03am
प्रिय मिथिलेश वामनकर जी , खूबसूरत प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभार एवं धन्यवाद। सादर।
Comment by Mahendra Kumar on December 28, 2016 at 2:50am
आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी, लघु कविताएँ कितनी शक्तिशाली होती हैं यह आदरणीय समर सर की टिप्पणी से आसानी से समझा जा सकता है। आपको नमन जो आपने ऐसी ही एक रचना मंच पर प्रस्तुत की। मेरी तरफ से आपको बहुत-बहुत बधाई। सादर।
Comment by नाथ सोनांचली on December 27, 2016 at 10:35pm
आद0 डॉ विजय शंकर जी आप की कविता पर बहुत कुछ मन में भाव उत्पन्न हो रहे है। आप ने चंद पन्क्तियो में जो बाते कह दी, निशब्द हो गया मैं, आपको कोटिश बधाइयाँ।
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 27, 2016 at 9:32pm

आ० विजय सर ! आ० समीर कबीर साहिब ने इतना कुछ कह दिया कि अब मैं क्या कहूं . शानदार . जानदार  कम शब्दों में . सादर .

Comment by Samar kabeer on December 27, 2016 at 9:16pm
आली जनाब डॉ.विजय शंकर जी आदाब,बहुत ख़ूब वाह, इस कविता को सुब्ह ही देख लिया था,और सारा दिन इसकी गहराई में तेरने के बाद अब कुछ लिखने के क़ाबिल हुआ हूँ ।
क़ुदरत के साथ खिलवाड़ करना इंसान की फितरत में शामिल है,और वो इसके नताइज भी भोगता रहा है,एक ज़माना था जब हमारी माँ चूल्हे में लकड़ियाँ जलाया करती थी,और हमारे कई कामों में लकड़ी की अहम भूमिका रहा करती थी,उस वक़्त लकड़ी का इस्तेमाल हमारी अहम ज़रूरत हुआ करता था,उस वक़्त भी पेड़ काटे जाते थे,लेकिन वो ज़रूरत के लिये काटे जाते थे इसलिये उसका असर पर्यावरण पर नहीं पड़ता था,ख़ूब बारिशें होती थीं,हर तरह की फसलें किसान पैदा करता था,हर तरफ हरयाली ही हरयाली थी,आज हमारे यहाँ चूल्हे गैस से चलते हैं,पानी गर्म करने के लिये बिजली का इस्तेमाल किया जाता है,फर्नीचर जो पहले सिर्फ़ लकड़ी के बनते थे,अब उनकी जगह प्लास्टिक,स्टील आदि के बनने लगे हैं,अब नई इमारतों में भी लकड़ी नहीं लगाई जाती,फिर भी जंगल बराबर काटे जा रहे हैं,लेकिन उनकी पैदावार बिलकुल नहीं,ये इसलिये हो रहा है कि इंसान अपनी फ़ितरत के मुताबिक क़ुदरत से खिलवाड़ कर रहा है,और इसके नतीजे में हम कई बीमारियाँ पाले बैठे हैं,पर्यावरण पर इसका इतना गहरा असर हुआ है,ये बताने की ज़रूरत नहीं,इस पस-ए-मंज़र में जब आपकी कविता देखी तो सोचने पर मजबूर हो गया "संतुलन बिगाड़िये मत,बना रहने दीजिये"इस पंक्ति ने जब से ये कविता पढ़ी है, मुझे बांध रखा है,और ये लिखने की प्रेरणा भी इसी पंक्ति की देन है,पता नहीं में जो कह रहा हूँ,वो आपको बताने में कामयाब भी हूँ या नहीं ?
बहरहाल कहना ये चाहता हूँ कि ज़रूरत से ज़ियादा की तलब ने आज हमें जिस जगह पर खड़ा कर दिया है वहाँ से वापसी का सफ़र मुमकिन नहीं,और ये सब संतुलन बिगड़ जाने के कारण ही हो रहा है,ऐसे में आपकी कविता का संदेश बहुत अहम हो जाता है और इसे सरसरी तौर पर नहीं देखा और महसूस किया जा सकता,इस सन्देश को रग रग में उतारने की ज़रूरत है बहुत सोचने और गहराई में उतरने की ज़रूरत है ।
इस शानदार प्रस्तुति पर दिल की गहराइयों से देरों दाद के साथ देरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं"अल्लाह करे ज़ोर-ए-क़लम और ज़ियादा" ।

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