आदरणीय साथिओ,
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कुछ हद तक नहीं, बल्कि हद से भी ज्यादा होते हैं आ० कल्पना जीI
सच कहूँ तो आपने बेहद गंभीर बातें कह दीं भाई मिथिलेश जीI घोस्ट राइटर/राइटिंग के बारे में हम बहुत समय से सुनते आ रहे हैं, बस यही बात ज़ेहन में बहुत बरसों से घूम रही थी कि कुछेक महीने पहले इस लघुकथा का ख़ाका कागज़ पर उतार लियाI
दरअसल, मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ जो रिश्ते में मेरी एक दूर की बुआ का बेटा थाI गीतकार और कहानीकार था, 60 के दशक अंत में अपना फ़िल्मी केरिअर बनाने का सपना लेकर मुंबई (तब बम्बई) पहुंचाI ख़ूब संघर्ष किआ, शुरू में एकाध बड़े डायरेक्टर ने उनको काम भी दियाI मगर बड़े मगरमच्छों ने उसके पाँव नहीं जमने दिएI यहाँ तक कि धर्मेन्द्र और माला सिन्हा पर फिल्माए गए एक बेहद खूबसूरत गीत को फिल्म से हटवा भी दियाI बहरहाल, इससे पहले कि वह सड़क पर आ जाता किसी ने उन्हें घोस्ट-राइटर बनने की सलाह दी जो उन्होंने मजबूर होकर मान भी लीI हालाकि काम उनको अपने नाम से भी मिला मगर घर-गृहस्थी चलाने लायक कमाई उन्हें दूसरों की सेरोगेसी करने से ही होती थीI उनके लिखे गीतों पर दूसरे एवार्ड जीतते रहे, और वह भाई साहिब अपनी ठंडी आहें शराब में घोलकर पीते पीते इस दुनिया को खैराबाद कह गएI लघुकथा लिखते हुए कहीं न कहीं उन भाई साहिब का अक्स मेरे आस पास मंडराता रहाI
आपने कुछ लोगों की मठाधीशी और उसके बरअक्स ओबीओ पर हो रहे उत्साहवर्धन की बात की हैI मुझे एक बहुत पुराना वाक़या याद आ गयाI कॉलेज के ज़माने में ग़ज़ल लिखने का शौक़ चर्राया, क्योंकि लोगबाग तारीफ भी कर दिया करते थे तो ग़ज़ल सीखने की इच्छा और बलवती हुईI एक बार मैं उर्दू के एक बुज़ुर्ग शायर से मिला और उन्हें अपनी इच्छा बताकर उनसे कुछ पॉइंट्स पर जानकारी हासिल करने की (कु) चेष्टा कीI मेरी डायरी से कुछेक ग़ज़लों पर सरसरी निगाह डालकर उन्होंने फ़रमाया - "ग़ज़ल का घर बहुत दूर है छोकरे, ये हरेक के बस की बात नहींI" ऐसा नही कि उन्होंने जो कहा वह गलत था, लेकिन जिस तरीके से कहा वह एक 18-19 साल के लड़के का दिल तोड़ने के लिए काफी थाI अत: ओबीओ पर सीखने-सिखाने की परिपाटी प्रारंभ करने के पीछे एक कारण यह घटना भी रहीI
बहरहाल, आपने रचना के मर्म को समझकर उसके परिपेक्ष्य में इतनी विस्तृत चर्चा की और मेरी तुच्छ सी रचना पर बहुत मनोयोग से श्लाघात्मक टिप्पणी कर मेरा उत्साहवर्धन किया, उसके लिए मैं तह-ए-दिल से आपका शुक्रगुज़ार हूँI
आदरणीय योगराज सर, आपने बिलकुल सही कहा है. आपके आदरणीय भाईसाहब जैसे ही आज भी मुम्बई में कई युवाओं को समझौता करना पड़ता है. इसी तरह के जुमले -//"ग़ज़ल का घर बहुत दूर है छोकरे, ये हरेक के बस की बात नहींI"// आज भी नव अभ्यासियों को सुनने मिल जाते है. मेरे कहे पर आपका अनुमोदन पाकर आश्वस्त हुआ हूँ. सादर नमन
भाई मिथिलेश जी, मुझे ख़ुशी है कि कम से कम हमारे ओबीओ पर तो ऐसे जुमलों के लिए कोई स्थान न कभी रहा है और न ही कभी रहेगाI
जय जय भाई महेंद्र कुमार जी.
शुक्रिया आ० ओमप्रकाश क्षत्रिय भाई साहिबI
जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,"अब जिगर थाम के बैठो मेरी बारी आई"वाह बहुत ख़ूब, क्या कहने,कहाँ कहाँ से आप अपनी लघुकथा का कथानक लाते हैं,मैं तो सोच कर हैरान हो जाता हूँ,वाक़ई कमाल करते हैं आप ।
एक मासूम शाइर के हालात पर कितनी सुंदर और सर्थक लघुकथा लिख दी आपने,मज़ा आ गया,आयोजन की शान में चार चाँद लगा दिये आपने,मेरी तरफ़ से इस बेमिसाल लघुकथा के लिये दिल से ढेरों दाद के साथ ढेरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
"अल्लाह करे ज़ोर-ए-क़लम और ज़ियादा"
आमीन |
यह आपकी पारखी नज़र और बेलौस मोहब्बत का कमाल है आ० समर कबीर साहिब, वर्ना ये हक़ीर की क्या औकात? आपकी इस मुक्तकंठ प्रशंसा ने मेरा हौसला दोबाला कर दिया है, बहुत बहुत शुक्रिया आली जनाबI
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