आदरणीय साथिओ,
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ढहते किले का दर्द
“आइये पंडितजी, आइये, बैठिये।”
“ठाकुर साहब ये क्या सुन रहा हूँ? आप पुत्री के विवाह के लिए सहमत हो गए हैं। आपको पता है शास्त्रों में प्रतिलोम-विवाह निषिद्ध माना गया है?”
“पता है पंडितजी, लेकिन आजकल दुनियादारी शास्त्रों के अनुसार नहीं चलती।”
“किन्तु ठाकुर साहब जात-बिरादरी की भी सोचिये। आप इस क्षेत्र के एम.एल.ए. भी है।”
“हाँ हूँ लेकिन कुछ समय के लिए ही। इस बार इलेक्शन में अपनी सीट नहीं है, उनकी है। इसलिए मुझे टिकट भी नहीं मिल सकती।”
“तो क्या टिकट अब उनको मिलेगी? शिव शिव शिव.... घोर कलयुग है ये, घोर कलयुग।”
“कलयुग वलयुग सब फिजूल की बातें हैं पंडित जी। वो तो भला हो कि ये सम्बन्ध हो रहा है। कम से कम सत्ता अपने घर की ही रहेगी। इसीलिए तो पार्टी से उनको टिकट दिलवा रहा हूँ।”
“अच्छा.... सही कहा ठाकुर साहब किन्तु मंदिर का ट्रस्ट...? शिव शिव शिव..... वो कोई आपके कहे के बाहर थोड़े ही जायेगा।”
“हम्म....”
पंडितजी को अहसास हो गया था कि ठाकुर साहब की हुँकार में वो पहले जैसा रौब नहीं रहा है।
(मौलिक व प्रकाशित)
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार निवेदित है. आपका बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
हार्दिक धन्यवाद..... प्रतीक्षा रहेगी. सादर
अब जातपात से ऊपर स्वार्थ हो गया हैं जिसमे राजनीति हो तो क्या कहने।बधाई हो आ.मिथिलेश वामनकर जी ,प्रथम एवं बेहतरीन प्रस्तुति के लिए।सादर
आदरणीया अर्चना त्रिपाठी जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार निवेदित है. आपका बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
आदरणीय डॉ. विजय शंकर सर, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार निवेदित है. आपका बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
यानि ठाकुर साहब के रौब का किला ढह गया. बहुत सुंदर लघुकथा आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी. बधाई आप को पहली लघुकथा पोस्ट कर बाजी जीतने के लिए.
आदरणीय ओमप्रकाश जी, इस प्रयास की सराहना और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया हेतु हार्दिक आभार निवेदित है. आपका बहुत बहुत धन्यवाद. सादर
चुनावी गठजोड़ एवं जात-बिरादरी वाली सोंच पर समवेत प्रश्न उठाती कथा के लिए बधाई हो आ. मिथिलेश जी!
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