आदरणीय साथिओ,
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jhoothi shan ka dhahta kila behtareen katha ..
मुक्ति
"बाबूजी, हम सदस्यों ने निर्णय लिया है ।" बड़ी बहू शारदा ने अपना पक्ष आत्म विश्वास से रखते हुए कहा ।
"कौन-सा निर्णय बेटी ?"ससुर रमेश जी ने आश्चयर्य से पूछा ।
"अधिकार का ।"
"कौन-सा अधिकार, मैं समझा नहीं ?"
"यही कि हम घर के सदस्य अपने मताधिकार का प्रयोग स्वतंत्र और किसी के दबाव के बिना करना चाहते हैं । अब तक हम किसी के कहने में वोटिंग करते थे । उस सत्ता को खत्म करना चाहते हैं ।"
रमेश जी ने अपनी प्रगतिशील , उच्च शिक्षित बहू के विचारों को अच्छी तरह से भाँप लिया था ।जिस दल के वे बरसो से विश्वास-पात्र बनें थे और घर के सदस्यों से थोकबंद वोट डलवाते आ रहे थे वह क़िला उन्हें ढहता नज़रआ रहा था और पीड़ा भी हो रही थी ।
मौलिक और अप्रकाशित
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी, वर्तमान समय में निर्वाचन के अंतर्गत केवल उम्मीदवार दलों में ही परिवारवाद नहीं है बल्कि मतदाताओं में भी इसका प्रभाव है. विशेष तौर पर ग्रामीण इलाकों में. 10-20 सदस्यों वाले संयुक्त परिवारों में घर के प्रथम पुरुष की इच्छा अनुसार ही पूरा घर मतदान करता है. वहाँ स्त्रियों की चाहना तो जैसे होती ही नहीं. कई बार तो गाँव के प्रमुख और प्रभावकारी लोगों के इशारों पर गाँव का एक बड़ा हिस्सा दल विशेष को मतदान करता है. इसके पीछे जातिगत समीकरण और आर्थिक लाभ दोनों जुड़े होते हैं. ऐसे में एक आशा की किरन की तरह यह लघुकथा उभरी है. इस प्रस्तुति पर बहुत बहुत बधाई. सादर
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