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मैं ज़िन्दगी का आशिक़, भावों से पिला साक़ी- पंकज द्वारा गजल

221 1222 221 1222

ये जाम अलग रख दे, आँखों से पिला साक़ी
सदियों से अधूरी है, होठों से पिला साक़ी

अंगूर की मदिरा तो, करती है असर कुछ पल
ता उम्र नशा होए, साँसों से पिला साक़ी

गिर जाते जिसे पीकर, वो जाम नहीं चाहूँ
आऊँ मैं नज़र खुद को आँखों से पिला साक़ी

मैं तोड़ भी लाऊँगा कह दे तो सितारे भी
तू इश्क़ को ग़र अपने ख्वाबों से पिला साक़ी

शीशे के ये पैमाने बेजान नहीं भाते
मैं ज़िन्दगी का आशिक़, भावों से पिला साक़ी

मौलिक अप्रकाशित

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 3, 2017 at 12:35am

//,दोनों अशआर में भाव अलग अलग हैं । कभी कभी कुछ ज़मीनें ऐसी मिल जाती हैं कि वहाँ क़ाफिये तंग हो जाते हैं,ऐसी सूरत में दो  दो बार तो क्या तीन बार भी एक ही क़ाफ़िया लिया जा सकता है,'साहिर' के अलावा भी कई उस्ताद शाइरों के यहाँ ऐसी मिसालें मिलती हैं,जो वक़्त आने पर पेश की जा सकती हैं //

यही तो मेरे कहे का इशारा है। संभवतः आपने एकदम से टिप्पणी कर दी, आदरणीय समर साहब।

हमने कहा ही न - //अगर किसी सूरत में किसी शब्द को दो या अधिक दफ़े क़ाफ़िया केरूप में प्रयुक्त करना ही पड़े तो उसके लिए भी कुछ विशेष समझ है. इस ओर निग़ाह बनी रहे. //

सादर

Comment by Samar kabeer on February 2, 2017 at 7:24pm
एक ही क़ाफ़िया को दो बार लेने से ये नहीं कहा जा सकता कि ग़ज़लकार के पास शब्दों का अकाल है, हाँ ये जरूत है कि इससे बचना चाहिये, 'साहिर'लुध्यानवी की ग़ज़ल के ये अशआर देखिये :-

"तंग आ चुके हैं कशमकश-ए-ज़िन्दगी से हम
ठुकरा न दें जहाँ को कहीं बेदिली से हम

उभरेंगे एक बार अभी दिल के वलवले
गो दब गये हैं बार-ए-ग़म-ए-ज़िन्दगी से हम"

"ज़िन्दगी"क़ाफ़िया एक ही ग़ज़ल में दो बार इस्तेमाल हुआ है,क्या इन अशआर को पढ़ कर या सुनकर कोई ये कह सकता है कि 'साहिर'के पास शब्दों की कमी थी ?नहीं कह सकता,क्योंकि एक ही क़ाफ़िया लेने से ये साबित नहीं होता,दोनों अशआर में भाव अलग अलग हैं । कभी कभी कुछ ज़मीनें ऐसी मिल जाती हैं कि वहाँ क़ाफिये तंग हो जाते हैं,ऐसी सूरत में दो बार तो क्या तीन बार भी एक ही क़ाफ़िया लिया जा सकता है,'साहिर' के अलावा भी कई उस्ताद शाइरों के यहाँ ऐसी मिसालें मिलती हैं,जो वक़्त आने पर पेश की जा सकती हैं । उम्मीद है बात स्पष्ट हुई होगी ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 6:29pm
आदरणीय सौरभ सर सादर प्रणाम, यहां समस्या काफिया को लेकर नहीं थी, अपितु रदीफ की वजह से अपितु रदीफ़ की वजह से परेशानी हुई, " से पिला साकी" रदीफ़ होने के कारण समस्या यह हुई कि- साक़ी-आँखों, हाथों, होंठों,ख्वाबों, साँसों, भावों से तो पिला सकती है लेकिन और आंय कोई समुचित माध्यम नहीं दिखा जिससे पीया जा सके, इसलिए काफ़िया कम पड़ गया।। अन्यथा-ओं काफ़िया बहुत आसान होता है। सादर
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 6:29pm
आदरणीय सौरभ सर सादर प्रणाम, यहां समस्या काफिया को लेकर नहीं थी, अपितु रदीफ की वजह से अपितु रदीफ़ की वजह से परेशानी हुई, " से पिला साकी" रदीफ़ होने के कारण समस्या यह हुई कि- साक़ी-आँखों, हाथों, होंठों,ख्वाबों, साँसों, भावों से तो पिला सकती है लेकिन और आंय कोई समुचित माध्यम नहीं दिखा जिससे पीया जा सके, इसलिए काफ़िया कम पड़ गया।। अन्यथा-ओं काफ़िया बहुत आसान होता है। सादर

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on February 2, 2017 at 6:00pm

किसी ग़ज़ल में एक ही शब्द को दो दफ़े क़ाफ़िया के रूप में लेने की मनाही नहीं होने के बावज़ूद यह परिपाटी के रूप में मान्य नहीं है. साथ ही, इसे लेकर यह भी कहा जाता है कि यह ग़ज़लकार के पास शब्दों की कमी को भी दर्शाता है. किसी ग़ज़लकार की ताकत उसके लफ़्ज़ ही होते हैं. क्योंकि ग़ज़ल की विधा किसी ग़ज़लकार की भाषा (ज़ुबान) और शब्द (लफ़्ज़) की ताकत का पैमाना है. 

अब अगर किसी सूरत में किसी शब्द को दो या अधिक दफ़े क़ाफ़िया केरूप में प्रयुक्त करना ही पड़े तो उसके लिए भी कुछ विशेष समझ है. इस ओर निग़ाह बनी रहे. 

प्रस्तुत ग़ज़ल के लिए भाई पंकज जी को हार्दिक बधाइयाँ .. 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 3:22pm
आदरणीय बाऊजी बहुत बढ़िया जानकारी मिली, मैं समझता था कि एक काफ़िया एकदम एक बार ही ले सकते हैं, मगर अब जान गया कि विशेष परिस्थिति में 2 बार एक काफ़िया रख सकते हैं, सादर आभार
Comment by Samar kabeer on February 2, 2017 at 3:10pm
एक क़ाफ़िया दो बार ले सकते हैं,कोई पाबंदी नहीं है,'हाथों'की तुक सही नहीं है न ।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 2, 2017 at 3:06pm
आदरणीय बाऊजी सादर प्रणाम, दर असल यहाँ आँखों ही प्रयुक्त किया था, लेकिन आगे दूसरे शेर में आँखों का प्रयोग किया है, इसलिए हाथों से पिला साकी कर दिया।। काफ़िया नहीं समझ में आ रहा था, उस लिए
Comment by Samar kabeer on February 2, 2017 at 3:01pm
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल अच्छी है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'ये जाम अलग रख दे हाथों से पिला साक़ी'
भाई हाथों से साक़ी कैसे पिलायेगा अगर जाम अलग रख देगा ? क्या ओक से पिलायेगा ? यहां क़ाफ़ियाय 'आँखों'ठीक रहेगा ।
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 2, 2017 at 12:42pm

आ. भाई पंकज जी सूंदर ग़ज़ल हुई है हार्दिक बधाई .

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