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ग़ज़ल -- ज़रा सा भी मेरे जैसा नहीं वो ( दिनेश कुमार )

ग़ज़ल की कोशिश
1222--1222--122

ज़रा सा भी मेरे जैसा नहीं वो
मैं इक आईना हूँ पर्दा-नशीं वो

नदी के दो किनारे कब मिले हैं
फ़लक का चाँद हूँ मैं औ'र ज़मीं वो

इसी दो-राहे की अब ख़ाक हूँ मैं
मेरी बाहों से छूटा था यहीं वो

बग़ैर उसके हुआ बे-जान सा मैं
बदन की रूह था दिल का मकीं वो

मैं जिसकी आँख का तारा रहा हूँ
कहाँ गुम हो गई है दूर-बीं वो

अजल से जिस ख़ुदा की जुस्तजू थी
मिला तुझ को 'दिनेश' अब तक कहीं वो

मौलिक व अप्रकाशित।
दिनेश कुमार।
जिला कैथल। हरियाणा।

गलतियों को ignore मत करें।

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 12, 2017 at 9:38am
इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें आदरणीय
Comment by Samar kabeer on February 10, 2017 at 8:53pm
जी नहीं ।
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 6:41pm
आ. मोहम्मद आरिफ़ साहब। हौसला अफ़ज़ाई के लिए तहे दिल से शुक्रिया।
Comment by Mohammed Arif on February 10, 2017 at 6:38pm
आदरणीय दिनेश जी आदाब, बहुत बढ़िया ग़ज़ल के लिए बधाई कुबूल करें । जनाब समर साहब ने अपनी सटीक इस्लाह से अवगत करवा दिया है ।
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 6:34pm
आदरणीय समर साहब। आपकी मुहब्बतों को दिल से सलाम। तहे दिल से शुक्रिया।
कभी मिलते नहीं दोनों किनारे.... बहुत उम्दा मिसरा सुझाया है सर वाह।
क्या यह मिसरा भी ठीक रहेगा सर...

हमारे दरमियाँ ये फ़ासला... उफ़् !!
फ़लक का चाँद हूँ मैं औ'र ज़मीं वो

सादर।
Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 6:30pm
आ. आशुतोष जी। हौसला अफ़ज़ाई के लिय हार्दिक आभार।
शायद आप ठीक कह रहे हैं। पहले आसमाँ रख कर ही मिसरा कहा था। लेकिन कोई अन्य दोष आ गया था। फिर बदल दिया।
Comment by Samar kabeer on February 10, 2017 at 3:41pm
कभी मिलते नहीं दोनों किनारे'
Comment by Samar kabeer on February 10, 2017 at 3:40pm
जनाब दिनेश कुमार'दानिश'साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

'नदी के दो किनारे क़ब मिले हैं
फलक का चाँद हूँ में और ज़मीं वो'

इस शैर के ऊला मिसरे में 'नदी'इसलिये नहीं कह सकते कि सानी मिसरे में 'फलक','चाँद',और ज़मीं की बात है,ऊला मिसरा यूँ ख़ सकते हैं :-
"कभी मिलते नहीं हैं दोनों किनारे
फलक का चाँद हूँ मैं और ज़मीं वो"
Comment by Dr Ashutosh Mishra on February 10, 2017 at 9:42am

आदरणीय भाई दिनेश जी इस सुंदर ग़ज़ल के लिए ढेर सारी बधायी सादर 

नदी के दो किनारे कब मिले हैं
फ़लक का चाँद हूँ मैं औ'र ज़मीं वो.................इन पंक्तियों पर मैं यह सोच रहा हूँ कि नदी के दोनों किनारे एक जैसे होते है और दूर रहते है फलक और जमी की तुलना भी की जा सकती है चाँद और जमी को दो किनारों जैसा...प्रश्न मेरे मन में था इसलिए आप से साझा कर रहा हूँ ..अन्यथा मत लीजियेगा ..

मैं जिसकी आँख का तारा रहा हूँ
कहाँ गुम हो गई है दूर-बीं वो..............इस शेर के लिए बिशेस रूप से बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by दिनेश कुमार on February 10, 2017 at 9:24am
ज़र्रानवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रिया आ. गुरप्रीत सिंह जी।
मकीं = मकान में रहने वाला।

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