श्रद्धेय सुधीजनो !
"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-76 जोकि दिनांक 11 फरवरी 2017, दिन शनिवार को समाप्त हुआ, के दौरान प्रस्तुत एवं स्वीकृत हुई रचनाओं को संकलित कर प्रस्तुत किया जा रहा है.
इस बार के आयोजन का विषय था – "झुग्गियाँ".
पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.
सादर
मिथिलेश वामनकर
मंच संचालक
(सदस्य कार्यकारिणी)
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1. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
ग़ज़ल
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बेघरों के सपने और अरमान झुग्गियाँ।
हर भूखे और गरीब की पहचान झुग्गियाँ।।
मतदाता भोले भाले बड़े काम आते हैं।
नेताओं के हैं तीर्थ चारो धाम झुग्गियाँ।।
अरबों की योजनाएं पर गरीब हैं वहीं।
साहब के लिए होती हैं वरदान झुग्गियाँ।।
नेता हैं चालबाज औ’ अधिकारी भ्रष्ट हैं।
दोनों की जुगलबंदी से हैरान झुग्गियाँ।।
खाली करो ये बस्तियाँ आदेश आ गया।
इज्जत बचायें कैसे परेशान झुग्गियाँ।।
बुद्धिजीवी दर्प में देते वतन को गालियाँ।
करते ना कभी देश का अपमान झुग्गियाँ।।
दंगे फसाद हों कभी मौसम की मार हो।
चुपचाप सहतीं झेलतीं नुकसान झुग्गियाँ।।
स्टेडियम कॉलोनी बने पार्क और बाजार।
हर योजना पे देतीं हैं बलिदान झुग्गियाँ।।
जय हिंद सदा कहते गाते वंदे मातरम्।
करती हैं दिल से देश का सम्मान झुग्गियाँ।।
नोचे खसोटे लूटे फिर आजाद कर गए।
अंग्रेजों के आतंक की पहचान झुग्गियाँ।।
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2. आदरणीया सीमा मिश्रा जी
झुग्गियाँ (अतुकान्त)
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आसमान से बहुत नीचे, जमीं पर
शहर के बीच में, नाले के मुहाने पर
छोटी-बड़ी, आड़ी-तिरछी, कहीं भी बेतरतीब
खेत-खलिहान बाड़े, चौड़े खुले आँगन का अतीत
सीलन भरी घुटन लिए वर्तमान अवैध, उपेक्षित, भयभीत
वृष्टि कभी करती थी आह्लादित, अमृत का वरदान
अब चिंता की लकीरें उभरतीं, काले पानी में आये उफान
चारों ओर हाहाकार, बहता है शहर
झाग की मानिंद तैरती ज़िंदगी, इधर-उधर
फिर रेल की पटरियों सी, थमी-सी थामे जमीं
साथ देती दौड़ने में, पर स्वयं वहीँ की वहीँ!
अब पनघट पर नहीं चमकती-खनकती चूड़ियाँ
नाम से क्या? बस काम वाली बाइयाँ!
दिन भर की कमाई शाम को खा जाता नशा
रात कसैली, कलपती कलह से, बस चोट खा
नौनिहालों के रुदन से काँपती हैं दीवारें
प्रेम से कोई खटखटाए, राह तकते हैं द्वारे
काला-मटमैला, तरसता, झगड़ता बिसूरता बचपन
तारों पर अटकी-लटकी फटी पतंगों-सा छटपटाता जीवन
दो घरों के बीच बहती निराशा और उनसे उपजी गालियाँ
हालातों की रस्सी पर टंगे बदरंग पजामे, शर्ट और साड़ियाँ
कभी खिड़की से छनकर आती फुहारों की आशा
और फिर फर्श पर कीचड़ मचा जाती हताशा
फूटी बाल्टियों में खिलते-सकुचाते फूलों-सा यौवन
गुलाबी सपनों को रौंद जाती नियति निर्मम
धड़कता नहीं, बस कट जाता है समय
विवशता की बाँह में कसमसाते, जकड़े हुए
नाक-भौं सिकोड़े चाहे कितना भी शहर
पर अब स्वार्थवश हो गया है निर्भर
दिखता है भले उपेक्षित, अनचाहा, विलगता-सा
पर महीन रेशों सी जुड़ी है शहर की आवश्यकता!
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3. आदरणीय पंकज कुमार मिश्रा ‘वात्सायन’ जी
ग़ज़ल
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ज़िन्दगी का दर्द मिल कर बांटती हैं झुग्गियाँ
इस तरह पर्वत सा हर दिन काटती हैं झुग्गियाँ
झुग्गियाँ मंदिर हैं मस्ज़िद चर्च गुरुद्वारा भी हैं
खाइयाँ कुछ इस तरह से पाटती हैं झुग्गियाँ
राजधानी से उठा कर फेंक देनी चाहिए
शह्र को दीमक के जैसे चाटती हैं झुग्गियाँ
वात अनुकूलित भवन के सारे बाशिंदों को तो
आँख में गड़ती हैं मानों काटती हैं झुग्गियाँ
यार पंकज बे सबब इन के लिए कुछ मत लिखो
गन्दगी सोसाइटी पर साटती हैं झुग्गियाँ
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4. आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी
विषय आधारित क्षणिकाएँ
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(1) झुग्गियाँ
लिखती है रोज़
नयी इबारत
गंदगी , बीमारी
और कचरे की स्याही से
लेकिन पढ़े कौन ।
(2)झुग्गियाँ
खुले में शौच
नंगे बदन नहाती है
विकासशील भारत को
जैसे मुँह चिढ़ाती है ।
(3) कालिख पोतती है
शहर के चेहरे पर
मगर देखें कौन
झुग्गियों के अंदर की
बेबसी की कोढ़ ।
(4) रोज़ बिलखती है
झुग्गियाँ
ग़रीबी , बेरोज़गारी
भुखमरी से
खुद सुनती है
ग़रीबी , बेरोज़गारी
भुखमरी इनकी आवाज़ को ।
(5) शहर की
चकाचौंध से
आँख चुराकर
कुछ भेड़िये
झुग्गियों में घुस जाते हैं
वासना की भूख मिटाने ।
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5. मिथिलेश वामनकर
सरसी छंद आधारित गीत
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मैं झुग्गी के बीच बैठकर, रहता चिंतनशील
निर्धन कैसे दुख को सुख में, करते हैं तब्दील?
मटियाले मद्धम आलम में, हँसता है अंधियार
छितरा-बिखरा आँगन देखे, तम का तम से प्यार
बेबस है सीलन कोने की, छत करती संघर्ष
दीवारों को स्वप्न सरीखा, लगता है उत्कर्ष
बिजली आते ही डर जाए, छोटा सा कंदील
बीड़ी-बोतल की दलदल में खाँस रही है रात
बर्तन की आवाज़ जता दें, हर घर के हालात
भिनसारे तक खूब सिसकते, चूड़ी वाले हाथ
पनियल चाय सुबह की लाती बासी रोटी साथ
फिर जागे अपनापन लेकर, संबोधन अश्लील
दमघोटू सी तंग गली में, छुक-छुक चलती रेल
चलते धूल अँटे बच्चों के, कई जुगाड़ू खेल
अक्सर नाक सिकोड़े आती, सभ्य जनों की कार
कन्नी काट निकल जाती है, कोस हजारों बार
टूटे-फूटे छप्पर झाँके, फिर महलों की चील
खुशियों ने यह आस लगाकर छोड़ी गलियाँ तंग
महानगर से अपने हिस्से के चुन लेंगी रंग
कंकरीट के मरुथल में बस मृगतृष्णा का जाल
जकड़न तब महसूस हुई जब, कष्ट हुआ विकराल
बदल गई बहते नालो में फिर सपनो की झील
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दूसरी प्रस्तुति: बह्र-ए-रमल आधारित गीत
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जिस गली के भाग्य में बस वेदनाएँ म्लान सी
राजपथ पर अब चलेगी वह गली सुनसान सी
भिनभिनाती नालियों में वह बसा संसार भव
हाँफतें दिन, खाँसती रातें बनी आधार नव
भूख तृष्णा का सदा जब प्रश्न रहता पक्षधर
तब नए खरपात सी उगती नगर के वक्ष पर
झुग्गियों में बस रही जो ज़िन्दगी अवसान सी
सभ्यजन करते कबाड़ा, वे करें निस्तार सब
जीविका साधन यही उनका यही व्यापार अब
बीनते कचरा, यहाँ बचपन घिसटता शाम तक
वे मनुज हैं, यह ख़बर कब कौन भेजे आम तक
व्यर्थ यह निस्तब्धता होती सदा अपमान सी
श्रम करे उपकार क्या? ऊँचे मकानों को पता
किन्तु सब बरबस जताएंगे सदा अनभिज्ञता
मान दो श्रम को, करो उत्थान, दो अधिकार तक
या कि कल ज्वाला उठेगी हर महल के द्वार तक
अब समझ जाएँ तनिक सब बात यह आसान सी
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6.आदरणीय डॉ. विजय शंकर जी
यकीनन शहर आ गया (अतुकांत)
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कार गाँव से निकली
सड़कों का कोलाहल ,
भागती भीड़ , वाहनों का शोर
हवा खुश्क-भारी सी लगने लगीं हैं ,
रास्ता शहर का आ गया , लगता है।
कुछ धुंध , धुंआ-धुंआ
सा दिखने लगा ,
शहर आ गया , लगता है।
ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं
दूर से , धूमिल सी, दिखने लगी ,
शहर सच में नज़दीक आ गया।
एक अजीब सी घुटन,
सांस सांस में भारीपन
ऊंचीं ऊंचीं , वीरान सी ,
अट्टालिकाएं पास आने लगीं ,
देखो , शहर आ गया .....
पास में , किलकारियां मारता ,
आधा , अधूरा , उल्लासित ,
कूदता फाँदता बचपन ,
शहर को बनाने वाला
अस्त-व्यस्त परिवारों का जीवन ,
झुग्गियों की दूर तक फ़ैली
लंबी कतारें , जे जे कॉलोनी ,
यकीनन , बड़ा शहर आ गया।
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7. आदरणीया राहिला जी
झुग्गियाँ (हाइकू)
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सीलन भरी
पैबंद से संवरी
चूती झुग्गियाँ।।
कीचड़ घिरी
बदबू के भभके
मैली झुग्गियाँ।।
झूठन पली
मकोड़ो सी ज़िन्दगी
भूखी झुग्गियाँ।।
भूख,बेबसी
देह व्यापार लिप्त
नंगी झुग्गियाँ।।
विकृत सोच
अपराध जननी
गन्दी झुग्गियाँ।।
अभाव ग्रस्त
लड़ती झगड़ती
लुटी झुग्गियाँ।।
नयी सुबह
स्वच्छता अभियान
लक्ष्य झुग्गियाँ।।
बीड़ा उठाती
नौजवानों की पीढ़ी
साफ़ झुग्गियाँ।।
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8. आदरणीय मनन कुमार सिंह जी
ग़ज़ल
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हो गयीं बेकल अभी हैं झुग्गियाँ
आस का दंगल बनी हैं झुग्गियाँ।
फूल खिलते हैं मनोरथ के यहाँ
नेह से भरसक पगी हैं झुग्गियाँ!
आसरों की आड़ में फिर से बसीं
पूछते सब क्यूँ जली हैं झुग्गियाँ।
कुनमुनातीं हैं यहाँ पे चाहतें
पर तवों पर ये तली हैं झुग्गियाँ।
वक्त लगता है यहाँ कुछ भी नहीं
जब कहो पल में पटी हैं झुग्गियाँ।
यत्न करते हैं भगीरथ,घर बनें,
आँक लो कितना घटी हैं झुग्गियाँ।
हर दफा यूँ दम बढ़ाने के लिये
बस रसायन की वटी हैं झुग्गियाँ।
रुकतीं बिगड़ी हवाएँ भी यहाँ
आसमानों से ऊँची हैं झुग्गियाँ।
दाग कुरतों पर कभी लगने न दें
किस सरोवर में धुली हैं झुग्गियाँ!
बंद होती हैं कपाटों से भले
हर दफा मिलती खुली हैं झुग्गियाँ।
कारनामे कर गयीं अबतक बहुत
और करने पर तुली हैं झुग्गियाँ।
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दूसरी प्रस्तुति: ग़ज़ल
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जल गयी हैं झुग्गियाँ
फिर बनी हैं झुग्गियाँ।
सिर चढ़ाने के लिये
ही तनी हैं झुग्गियाँ।
मिल रही कुर्सी तुझे
जब खड़ी हैं झुग्गियाँ।
कर नहीं इनको खतम
मतभरी हैं झुग्गियाँ।
कौन करता है रहम?
रेवड़ी हैं झुग्गियाँ।
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तीसरी प्रस्तुति: झुग्गियाँ कहने लगीं(अतुकांत)
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झुग्गियों से बात करतीं झुग्गियाँ-
आदमी करता बहुत एहसान है,
फूस-तिनके सब बदल देता भले,
पूर्ण करता देख लो अरमान है।
घाव भरने को बड़ा- सा घाव करता
दर्द चाहे सोच लो कितना भी बढ़ता
नित नये निर्माण का नशा है चढ़ता
खुद के सपन से वह रहा अनजान है।
अपनी ओर सदा उसका ध्यान है।
धूल मिट्टी उठते गगन
बदला जाता आज चलन
उन्नत शिखर महल बनते हैं
सबके मन बेशक जँचते हैं
अपनी लेकिन बार बार
निकलती रहती जान है।
रहना अपना खास जरुरी
मानव की ठहरी मजबूरी
ऊँचाई कब ऊँची लगती?
माप न हो,तो खुद को ठगती,
झोपड़ी तो महल की माप है
गर नहीं,
तो महल को शाप है।
झोपड़ी महल का प्राण है
(अपने)छोटापन से त्राण है,
महल महान है,क्योंकि
झोपड़ी उसकी शान है।
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9. आदरणीय रामबली गुप्ता जी
दोहा छंद
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सरकारी आवास की, हुई योजना फेल।
देख दुखी निर्धन यहाँ, भ्रष्ट तन्त्र का खेल।।1।।
नेता-मंत्री देश के, सिर्फ बजाएँ गाल।
कैसे चले गरीब के, घर की रोटी-दाल?
शिक्षा-सुविधा-स्वास्थ्य से, दूर झुग्गियाँ भ्रात!
शासन व्यर्थ विकास का, दम भरता दिन-रात।।3।।
मुर्गा-मीट-शराब से, कहीं लुटा है होश।
भूखा सोया है कहीं, निर्धन कर संतोष।।4।।
सरकारी दावे सभी, हुए सखे! बेकार।
आज झुग्गियों में पड़े, निर्धन-जन लाचार।।5।।
ए.सी. में जो बैठकर, करें नीति की बात।
जरा बिताकर देखते! झुग्गी में बरसात।।6।।
जिन निर्धन के स्वेद से, चले कार्य-व्यापार।
उनसे भी तो जोड़िये, जरा हृदय के तार।।7।।
झुग्गी वालों से कभी, रखें न मन में द्वेष।
इनका भी सहयोग लें, बदलें अपना देश।।8।।
आपस में निर्धन-धनिक, करें अगर सहयोग।
मिटे विषमता मूल से, सुख का हो संयोग।।9।।
नफ़रत से यूँ झुग्गियाँ, देख न ऐ! धनवान!
पूजा जाता है कहीं, इनमें भी भगवान।।10।।
सृजन करे सरकार यदि, जनों हेतु नित काम।
झुग्गी-झोपड़ियाँ सभी, बनें ईंट के धाम।।11।।
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10. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी
ग़ज़ल
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जब भी नज़र के सामने आती हैं झुग्गियाँ |
दीदार मुफ़लिसी का कराती हैं झुग्गियाँ |
माने न माने कोई मगर सच तो है यही
गुर्बा की कब अमीरों को भाती हैं झुग्गियाँ |
होता हवेलियों पे है आँधी का कब असर
इनके निशाने पर सदा आती हैं झुग्गियाँ |
यह है कमाल फूस के तिनकों का दोस्तों
यूँ ही मकाँं का रूप न पाती हैं झुग्गियाँ |
बाहर नगर के आके कभी देख रहनुमा
क़िस्से विकास के भी सुनाती हैं झुग्गियाँ|
आती हवेलियों को है कब आँच दोस्तों
अक्सर जलाई दंगों में जाती हैं झुग्गियाँ|
तस्दीक़ आप देखिए जाकर क़रीब से
ग़ुरबत का आइना भी दिखाती हैं झुग्गियाँ |
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11. आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी
गीत
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है पडौसन पटरियों की ,झुग्गियों की एक बस्ती
सर्द लंबी रात में जब
ठण्ड इसको काटती है
पटरियों पर धडधडाती
रेल संग ये जागती है
तोड़ते इसको गिराते
फिर भी रहती ये अड़ी है
स्वप्न कल के देखती है
ढीठ ये कितनी बड़ी है
प्रश्न आँखों में कई ले
दौड़ती रेलों को तकती
है पडौसन पटरियों की ,झुग्गियों की एक बस्ती
ले मदारी डुगडुगी को
जब चुनावी खेल लाते
महल शातिर मुस्कुराकर
प्यार से तब पास आते
मुस्कुराहट का सबब सब
खूब इसको भी पता है
चार दिन की चाँदनी है
बाद में तो बस धता है
टूटते विश्वास सारे
खेल ये सारे समझती
है पडौसन पटरियों की, झुग्गियों की एक बस्ती
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द्वितीय प्रस्तुति: अतुकांत
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मन की झुग्गियों तक आते कभी
मुझसे मिलने
चेहरे पर ओढ़े ये महल
मन का सही पता नहीं हैं I
झुग्गियाँ कच्ची हैं, सीली हैं
बारिश के जमे पानी में
नंग धडंग कूदते बचपन की तरह अल्हड हैं
शोर मचाती हैं, चीखती है
खुलकर हँसती और रोती हैं
पर हैं ईमानदार
और यहीं रहती हूँ मैं I
तुम्हारे बड़े शहर के महलों के अन्दर भी तो
कई झुग्गियाँ पलती हैं
जिन्हें पक्की दीवारें बाहर रिसने नहीं देंतीं हैं
झाँकने नहीं देतीं हैं I
और फिर एक दिन लंबा जमा रिसाव
गुस्से में तोड़ देता है दीवारें
और बहा ले जाता है महलों कोI
मन के सही पते तक आ जाओ
या भटकते रहो
चुनाव तुम्हारा है I
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12. डॉ. टी.आर. शुक्ल जी
दाग़ (अतुकांत)
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निशि - दिन
व्यस्त वंचनाओं में
सुनते कर्कश कलरव,
मृत्यु समय पर्यन्त
सुसज्जित
गीततान न गा पाई।
तरस तरस कर
धीरज धर धर
मन को बोध कराके,
झाँकी भी
जिनने न कभी उन दिव्य
कल्पनाओं की देखी।
दत्तचित्त रह
नित्य परिश्रम में
निज को न निहारा,
सुना उलहना
निठुर भूख का
आस 'शान्त ' की देखी।
ध्यान जरा
उनका भी कर लो
धन अट्टालिका वालो,
जिनने कभी स्वप्न में भी
निज तन पर
नजर न फेकी।
सब कहते हैं
झुग्गियाॅ जिनको
वे हैं उनकी जगहें,
शामें जिनकी थकी हुई हैं
कराह रहीं हैं सुबहें।
मान शहर का दाग़
मिटाने तुले लोग
उनकी दिया बत्ती ,
सृष्टि के इस अभिन्न अंग की
करुण दशा को
सदा ही घेरे नई विपत्ति।
आज तुम्हारा
जो है अपना
कल होगा औरों का,
इसे समझ कर आज,
अभी से
करो मदद इन सबकी।
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13. आदरणीया राजेश कुमारी जी
ग़ज़ल
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आग पानी शीत गर्मी सह रही है झुग्गियाँ
शह्र के अल्ताफ़* पर ही रह रही है झुग्गियाँ
सामने वो आशियाने छटपटाते रात भर
नींद में लेकर हिलौरे बह रही हैं झुग्गियाँ
मखमली उन दायरों में टाट के पैबंद सी
शह्र वालों को सिरे से दह रही हैं झुग्गियाँ
आँख के काँटे किसी को राह का रोड़ा लगें
रुख तगाफ़ुल का सरापा सह रही हैं झुग्गियाँ
शह्र को ऊँचा उठाकर वो जहाँ की हैं तहाँ
अपनी किस्मत की कहानी कह रही हैं झुग्गियाँ
तीरगी की यास में अपना दिखाती हैं वजूद
टिम टिमाती जुगनुओं सी लह रही हैं झुग्गियाँ
देख कर कीमत जगह की फुसफुसाते सौदे बाज
बाज़ की पैनी नजर से गह रही हैं झुग्गियाँ
दब गई हैं सिसकियाँ बुलडोज़रों के शोर में
रोते रोते चुपके चुपके ढह रही हैं झुग्गियाँ
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14. आदरणीय मुनीश ‘तन्हा’ जी
ग़ज़ल
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दर्द अपना है छुपाती झुग्गियाँ
मिल के रहना ही सिखाती झुग्गियाँ
सेठ बाबू या भले मजदूर हो
काम सबके देख आती झुग्गियाँ
कल तलक बेकार वो नेता बने
वोट नारे थी लगाती झुग्गियाँ
चैन उनके पास है रोटी कहाँ
भूख पीड़ा दर्द गाती झुग्गियाँ
शोर दुनिया में उठा है आजकल
बोझ भारत का बढ़ाती झुग्गियाँ
काश सच को जानते फिर बोलते
ईद दीवाली मनाती झुग्गियाँ
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15. आदरणीय डॉ पवन मिश्र जी
ग़ज़ल
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कौन कहता शह्र को बस लूटती हैं झुग्गियाँ।
मुफ़लिसी में हो बशर तो थामती हैं झुग्गियाँ।।
आग की वो हो लपट या भुखमरी या बारिशें।
हर थपेड़े यार हँस के झेलती हैं झुग्गियाँ।।
दिन कटा है मुश्किलों में रात है भारी मगर।
ख्वाब कितने ही तरह के पालती हैं झुग्गियाँ।।
कब तलक यूँ नींद में ही गुम रहेगा रहनुमा।
डोलता है तख़्त भी जब बोलती हैं झुग्गियाँ।।
वो सियासी रोटियों को लेके आये हैं इधर।
अधपकी उन रोटियों को सेंकती हैं झुग्गियाँ।।
वायदों की टोकरी से है भरी हर इक गली।
हर चुनावी दौर में ये देखती हैं झुग्गियाँ।।
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16. आदरणीय रवि शुक्ल जी
ग़ज़ल
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दूर तक फैली हुई है अब नज़र में झुग्गियाँ,
झुग्गियों का ये नगर है या नगर में झुग्गियाँ।
लो चुनावी जंग में हथियार थामे हाथ में,
आ गईं फिर से सियासत के असर में झुग्गियाँ।
ए चुनावी बारिशों के मेढकों अब चुप रहो,
बस नतीजे आने तक ही हैं खबर में झुग्गियाँ।
टाट के परदे बयाँ करते रहे सूराख से,
पैरहन कैसे बदलती हैं सहर में झुग्गियाँ।
रेल की पटरी जुआघर खाट पर बूढ़ा मरीज़,
यूँ करे तब्दील मंज़र दोपहर में झुग्गियाँ।
ताज़ पहने हैं गरीबी का इन्हें एज़ाज़ दो,
हैं अज़ीमुश्शान बढ़ने के हुनर में झुग्गियाँ।
राजधानी जाइये तो गौर से देखें इन्हें,
साथ रहती हैं बराबर ये सफर में झुग्गियाँ।
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17. आदरणीय दयाराम मेठानी जी
गज़ल
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मजबूरी से झुगियों में रहना सीख लिया है
कीचड़ में भी मानव ने पलना सीख लिया है
मुफलिस के जीवन में ठंडी छाया है झुगियाँ
अब भूखे रहना गाली सहना सीख लिया है
दुनिया के छल और कपट से थी ठोकर खाई
ठोकर खाकर अब राह बदलना सीख लिया है
आग लगाता फिरता था जो कल तक गली गली
अब उसने अपने गम में जलना सीख लिया है
प्यार कभी मिला नहीं सुख का सूरज उगा नहीं
सुख के खातिर कांटों पर चलना सीख लिया है
उलझा किस्मत का धागा सुलझाना था मुश्किल
अब किस्मत के आगे ही झुकना सीख लिया है
दिल का दर्द बताता मैं किस-किसको ‘मेठानी’
इसको अब अपने बस में करना सीख लिया है
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18. आदरणीय रामावतार यादव जी (सहर नासिराबादी)
ग़ज़ल
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इधर उधर, यहाँ वहाँ झुग्गियाँ।
बन गई, कहाँ कहाँ झुग्गियाँ !!
हैं ख़ुशी के नाम से नाआशना,
दर्द का, ग़म का बयाँ झुग्गियाँ।
खोखले दावे तरक़्क़ी के सभी,
कर रही हैं दूर गुमाँ झुग्गियाँ।
आँख के आँसू न कभी सूखते,
होती न अगर बेजुबाँ झुग्गियाँ।
इस ज़मीं का नर्क हैं 'सहर' ये,
ठीक सुना, हाँ जी हाँ झुग्गियाँ।
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19. आदरणीया डॉ. मंजू कछवाहा जी
ग़ज़ल
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मौसम के कह्र को सभी सहती हैं झुग्गियाँ
और नोके नश्तरों पे भी हँसती हैं झुग्गियाँ
पैबंद सी हैं महलों के चाहे लिबास पर
अपने वुजूद के लिए लड़ती हैं झुग्गियाँ
आराइशों की जब भी चली बात शहर की
बेरहमी से ही कैसे ये ढहती हैं झुग्गियाँ
वादे तरक्कियों के किये हुक्मरां ने पर
दिन रात देखते हैं, कि बढ़ती हैं झुग्गियाँ
उरयाँ हैं जिस्म, ख़ाली शिकम,अश्क आँखों में
महरुमियों के बह्र में बहती हैं झुग्गियाँ
बेदारियों से जूझते काशाने हैं मगर
गहरी सी नींद आँखों में रखती हैं झुग्गियाँ
झुग्गी से हमको घर में भी तब्दील तो करो
रोती, बिलखती सब से ये कहती हैं झुग्गियाँ
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20. आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी
अतुकांत
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रेल की पटरी हो या सड़क का किनारा
मैले कुचैले विषैले शीलन भरे वीराने में
नागफनी सी अक्सर अपना अस्तित्व
पा ही जाती हैं झुग्गियाँ।
ओस की बूंदों में ठिठुरती जिन्दगी
बारिस में टपर-टपर टपकती
लू के थपेड़ों को सहन करती
मौन रह कर भी बहुत कुछ
कह जाती हैं झुग्गियाँ।
समेटे हुए अपनी अजीब संस्कृति को
फटे महीन मोमजामे के पीछे
अपनी अस्मत को छुपाकर बचाने की कोशिश
समाज की सोच और नीयत
दर्शा जाती हैं झुग्गियाँ।
नंग धड़ंग मलंग बालपन
आज यहाँ कल वहाँ जाने कहाँ-कहाँ
भविष्य भूल कूड़ा बीनते बच्चे
साहबों को स्कूल के नाम पर कमीशन
दिलवा जाती हैं झुग्गियाँ।
कीमती जमीन पर टकटकी साहूकार की
झुग्गीमुक्त शहर और सरकार की नीतियाँ
झांक कर कौन देखें इनके अन्तर्मन में
आग का शिकार होती हैं कभी
पीले पंजे की चपेट को भी चुपके से
सह जाती हैं झुग्गियाँ।
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दूसरी प्रस्तुति: दोहा छंद
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झुग्गी बस्ती खतम हो,कहते सब धनवान।
कब्जा धरती पर करें,उनका है अरमान।१।
किस्मत से ये झुग्गियाँ,पड़ी शहर के बीच।
सब जन माथा टेकते,ऊँचा हो या नीच।२।
बस्ती स्वयं मलीन सी,सबकी सेवादार।
साफ सफाई शहर की,करती बिन तकरार।३।
यूँ तो सब हैं बेशरम,बस परदे की ओट।
गरीब को सब घूरते,काढ़ें सारे खोट।४।
बेशर्मी की लीक ये,महलों में हो पार।
लाज बचाती झुग्गियाँ,महल खड़े लाचार।५।
गन्दी बस्ती समझकर,करते सब उपहास।
निर्धन ही पहचानता,जीवन मौके खास।६।
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21. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
नवगीत
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बड़े नगर की चकाचौन्ध में
दूर कहीं
जीवन पलता है
अधनंगा बचपन वह सारा
कचरे की वह ऊँची ढेरी
मैला-मैला दिखता सबकुछ
जैसे-जैसे नजरें फेरी
देख रही दो नन्हीं आँखें
व्याकुलता से हो तर राहें
महलों में जो गई हुई हैं
उसकी ही खातिर दो बाहें
धँसा पेट पसली के अंदर
दौर क्षुधा का
कब टलता है।
मिट्टी को मिलती है कीमत
मान दिया जाता है उसको
कच्ची-पक्की दीवारों पर
स्थान दिया जाता उसको
अनगढ़ चूल्हा माटी बनती
फर्श इसी का लेप बना है
इसी गोद में खेल रहे हैं
औ इसी में हर तन सना है
मिट्टी से ही तन बनता है
पलता,बढ़ता
फिर गलता है।
भरे नगर का सारा कचरा
बना हुआ है जो अब टीला
गंदा नाला बहे पास में
वहीं मुह्ह्ला काला-पीला
कचरे की बनती दीवारें
छत कचरे की बन जाती है
कचरे से जो ढूँढे बर्तन
उनमें रोटी बन जाती है।
डाल झुग्गियाँ रहता मानव
मानव ही उसको
छलता है।
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22. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी
पर झोंपड़ियाँ कुछ तो सजाओ (छंदमुक्त गीत)
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महलों में रहनेवालों तुमको, क्या हक़ है यह बतलाओ।
नाक भौंह को यूँ जो सिकोड़ो, हमें देख कर समझाओ।।
महल तुम्हारे खड़े हुए, झुग्गी में हमरे सिमटने से;
सूट-बूट में सजे धजे तुम, चिथड़ों में हमरे लिपटने से;
नित नई दावतें उड़े तुम्हारी, उदर हमारे चिपटने से;
तूने हमको दिया ही क्या है, हम पे तुम जो तरस ये खाओ।
हम खुश हैं अपनी दुनिया में, हमको यूँ ना रोज सताओ।।
दो गज भू हमरी हथियाने, करते राजनीति के दंगल;
सौ सौ आँसू हमको रुलाकर, खुशियों के खूब मनाते मंगल;
कंक्रीट के खड़े कर लिए, हमको बेघर कर के जंगल;
झोंपड़ियों को तोड़ तोड़ तुम, नित नूतन आवास बनाओ।
तुम्हें मुबारक़ महल तुम्हारे, झुग्गी हमरी ना बिखराओ।।
मखमल से चमचम शहरों में, पैबन्द टाट की हमरी बस्तियाँ;
पैसों के आगे इस जग में, मिटे गरीब की सदा हस्तियाँ;
याद रखो सब पैसेवालों, हम पे तुम्हरी टिकी मस्तियाँ;
गर कलंक लगती है झुग्गियाँ, नए सिरे से उनको बसाओ।
महलों को तुम खूब बढ़ाओ, पर झोंपड़ियाँ कुछ तो सजाओ।।
महलों में रहनेवालों तुमको, क्या हक़ है यह बतलाओ।
नाक भौंह को यूँ जो सिकोड़ो, हमें देख कर समझाओ।।
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23. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी
गजल
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भारत के हर शहर में मयस्सर है झुग्गियां
इस देश का गरीब मुकद्दर है झुग्गियां
करते है क्या सलूक महल यह नहीं पता
माँ की तरह सदैव निछावर हैं झुग्गियां
अट्टालिका को खुद की बुलंदी का खौफ है
छोटी भले हों किन्तु दिलावर है झुग्गियां
कमरे तुम्हारे बंद अँधेरे में कैद हैं
लेकिन तमाम सिम्त मुनव्वर है झुग्गियां
या तो खुदा जहान में परवर गरीब है
या फिर यहाँ गरीब की परवर है झुग्गियां
उतरी है आशियाने में शायद कोई गजल
सच पूछिए बड़ी ही सुखनवर हैं झुग्गियां
कोई हसीनजात है ये शहरे लखनऊ
‘गोपाल’ पाँव-पाँव महावर है झुग्गियां
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24. आदरणीय लक्ष्मण धामी जी
गजल
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वोट को बसती हैं फिर बरबाद होती झुग्गियाँ
यूँ सियासत के लिए इमदाद होती झुग्गियाँ।
भूख से बेहाल होकर गाँव से उठ आ गईं
शहर कहता दाग हैं आबाद होती झुग्गियाँ।
बस अभावों का बसेरा नित जहाँ होता रहा
पर सुखों के वास्ते अपवाद होती झुग्गियाँ।
है बहुत कुछ पास यूँ नाशाद होने के लिए
झुनझुना पर देख यारो शाद होती झुग्गियाँ।
छीन लेता है हमेशा हक गरीबों का महल
यूँ तरक्की की नदी में गाद होती झुग्गियाँ।
भुखमरी है हर तरफ या है गरीबी हर तरफ
इसलिए अपराध को यूँ माँद होती झुग्गियाँ।
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25. आदरणीय योगराज प्रभाकर जी
झुग्गीनामा (गीत)
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झुग्गियाँ, झुग्गियाँ, झुग्गियाँ, झुग्गियाँ,
डोलती झुग्गियाँ, काँपती झुग्गियाँI
न झरोखा कहीं न कहीं खिड़कियाँ.
है हवा में फकत बस धुआँ ही धुआँ.
खाँसती झुग्गियाँ, हाँफती झुग्गियाँI
झुग्गियाँ, झुग्गियाँ..........
ठंडे चूल्हे यहाँ, भूख का राज है,
रोज़ रोजे यहाँ, रोज़ उपवास हैं,
ईद के चाँद में ढूँढती रोटियाँI
झुग्गियाँ, झुग्गियाँ..........
बालपन चार दिन फिर बुढापा शुरू,
होने देतीं जवानी से कब रूबरू,
बोझ की गठरियाँ, भाल की झुर्रियाँI
झुग्गियाँ, झुग्गियाँ..........
मुफलिसी धर्म है, मुफलिसी कर्म है,
सख्त हालात हैं, दिल मगर नर्म हैं,
दौरे नफरत में भी प्रेम की बोलियाँI
झुग्गियाँ, झुग्गियाँ..........
हम हैं भटके बहुत, अब सम्भल जाएँगे,
खुद पे रख्खो यकीं, दिन बदल जाएँगे,
गोप को हौसला देते ज़ुल्फी मियाँII
झुग्गियाँ, झुग्गियाँ..........
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26. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी
रहते बन अन्जान (सरसी छंद)
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रही झुग्गियां सदा भाग्य में, जो उनकी पहचान
बेघर देखे घर के सपने, कुटियाँ ही अरमान |
आश्वासन दे जाते नेता, करें चुनावी दौर
वोट बटोरें ओझल होते, दीन हीन हैरान |
बुलडोजर भी चलते देखे, शोर मचे चहुँ ओर
हाहाकार मचे पर नेता, रहते बन अन्जान |
नेताओं के शह पर होते, कब्जे चारों ओर,
मतदाता यें इनके पक्कें, सूझें नहीं निदान |
गन्दी बस्ती के नामों से, जिनको जाने लोग,
उनके जीवन में फिर कैसे, हो सकता उत्थान |
स्कूल न कोई भी बस्ती में,पढने को मुहताज,
बच्चें खेलें सडको पर ही, धरती की संतान |
भूख सताये हरदिन इनको, रहते ये बीमार
सुविधाओं से वंचित रहते, दीन हीन इन्सान |
हर मौसम की मार झेलते, अन्धकार की रात,
आजाये भूकंप कभी तो, बस्ती का अवसान |
सत्तर वर्षों में भी हमने, दिया नहीं आवास
बना योजना कागज़ में फिर,सोते खूंटी तान |
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27. आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी
अच्छा लगता है (अतुकांत)
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अब बस कर बापू, बस कर अम्मा
बंद कर रोना धोना
न देख, न दिखा
सपने सलोने
पूरे होने, न होने
क्यूँ कर ढोने ?
सच, मुझे यहीं अब सब
अच्छा लगता है!
रितुओं से लड़ना-भिड़ना
हर कीट-ढीठ से दो चार होना
हार होना, जीत होना, सब
अच्छा लगता है!
दिन में ड्राइंग रूम
कभी स्टडी रूम
रात में बेडरूम बन जाना, अब
अच्छा लगता है!
किचन यहीं पर
मिलन यहीं पर
अपनों की चौपाल यहीं पर, सहज
अच्छा लगता है!
झुग्गी से स्कूल जाना
दुनिया से दो-चार होना
कुछ पाना, कुछ खो देना, अब
अच्छा लगता है!
तू पैसे कमा कर
हमको पढ़ाकर
देख और दिखा
अपने सलोने
खड़े होने हैं पैरों पर
क्यूँ कर ढोने
ज़ुल्म जब-तब
तुम्हें यह सब कब
अच्छा लगता है!
अब बस कर बापू, बस कर अम्मा
मुझे यहाँ अब सब
अच्छा लगता है!
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समाप्त
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हार्दिक धन्यवाद आपका.
यथा शीघ्र संशोधन करता हूँ. सादर
मुहतरम जनाब मिथिलेश साहिब , ओ बी ओ लाइब महा उत्सव अंक -76 के त्वरित
संकलन और कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ---
हार्दिक धन्यवाद आपका.
यथा शीघ्र संशोधन करता हूँ. सादर
आदरणीय सुरेश जी, आप संशोधित पूरी रचना प्रस्तुत कर दें ताकि संशोधन सहजता से किया जा सके. सादर
आदरणीय मिथिलेश भाई जी, संकलित हुई रचनाओं में कुछ रचनाओं का स्तर वाकई शानदार है. ये कहने में तनिक अन्यथा न होगा कि रचनाधर्मिता के कई पहलुओं को रचनाएँ संतुष्ट करती हैं. सोच और तार्किकता के परिप्रेक्ष्य से कहूँ तो आपकी प्रस्तुतियों के साथ-साथ आदरणीय आरिफ़ की क्षणिकाओं ने प्रभावित किया. वैसे क्षणिकाओं को और समय दिया जाता तो कई और पहलू खुल कर आते. क्षणिकाएँ एक ही समय लिखे जाने की प्रस्तुतियाँ नहीं होतीं. अलबत्ता, इस आयोजन के माध्यम से आ० योगराज जी के गीत से यह मंच रू ब रू हुआ. मेरी जानकारी में गीत विधा में यह उनका पहला प्रयास है. वैचारिक पक्ष के साथ आ० विजय शंकर जी आये. आ०सतविन्द्र जी की मेहनत साफ़ दीख रही है. लेकिन उनकी प्रस्तुति के बीच के बन्द अनावश्यक हैं. इस ओर उन्हें ध्यान देना आवश्यक है. आ० रवि शुक्ल जी ने भी अपनी ग़ज़ल के माध्यम से प्रभावित किया.
मैं आपसबों के साथ सभी रचनाकारों को हृदयतल से बधाइयाँ और शुभकामनाएँ देता हूँ. सभी सदस्यों की रचनाएँ प्रदत्त विषय के साथ न्याय कर रही हैं. यह अवश्य था कि, रचनाकारों ने वाकई कुछ समय दिया होता तो रचनाओं का गठन और सशक्त होता.
सादर
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