आदरणीय साथिओ,
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हार्दिक बधाई आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ जी।एक बेहतरीन और सूक्ष्म लघुकथा से गोष्ठी का आगाज़ करने हेतु पुनः बधाई।
'फ़रिश्ते' अॉनलाइन (लघुकथा) :
"यह पीढ़ी तो मोबाइलों और लेपटॉप्स पर ऐसे भिड़ी रहती है, जैसे कि जन्नत की सैर कर रहे हों!"
"जन्नत की सैर नहीं जनाब! दोज़ख़ में भटक रहे होते हैं ये लोग!"
"सत्यानाश हो ऐसे इन्टरनेट का, ऐसे डिजीटाइजेशन का!"
शाम को पार्क में कुछ युवाओं की गतिविधियां देखकर, वहां टहल रहे कुछ बुज़ुर्ग आपस में चर्चा कर रहे थे।
शर्मा जी ने अपनी छड़ी घुमाते हुए कहा- "देखो साहब! 'जहां चाह, वहां राह' वाली बात है! अपने-अपने ज़रियों से सब अपनी-अपनी जन्नतें, अपने-अपने स्वर्ग ढूंढते हैं आजकल!"
"लेकिन इस पीढ़ी की जन्नत तो आभासी रिश्तों के सुख में है; डिजीटल सेक्स में है या फूहड़पन में! बरबाद हो गई यह पीढ़ी, भाई!" चौहान साहब ने पीपल के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठते हुए कहा। उनके साथी भी वहीं बैठ कर अनुलोम-विलोम प्राणायाम योग करने लगे।
"चौहान साहब! पहले तोलो, फिर बोलो! आप हमेशा नकारात्मक ही क्यों सोचते हो? ज्ञान-विज्ञान, अध्ययन-अध्यापन से लेकर संगीत-साहित्य, खरीदने-बेचने और लेन-देन तक सब कुछ तो कितना आसान हो गया है!"
"ठीक कहते हो शर्मा जी आप! लेकिन 'चिराग़ तले अंधेरा' जैसी बात भी है न! जो भोगते हैं, वही जानते हैं।"
"क्या मतलब?"
"बेमतलब के रह गए असली रिश्ते! रसहीन, बेमानी हो गई ज़िन्दगी!" यह कहते हुए शर्मा जी की आंखों में आंसू छलक पड़े।
तभी उनके समर्थन में उनके एक साथी पार्क के युवाओं को देख कर बोले:
"मशीन माफ़िक बन कर लोग सोच रहे हैं कि 'फ़रिश्ते' अॉनलाइन मिलते हैं, जो उनका कल्याण करते हैं; जबकि सच तो यह है कि सबके 'अपने' फ़रिश्ते घंटों यूं ही अॉनलाइन रह कर 'असली जन्नत' को 'दोज़ख़' बना रहे हैं!"
(मौलिक व अप्रकाशित)
भाई उस्मानी जी, आपकी कथा दिल को छू जाने वाली है, वाह! एक तो कथानक का नयापन दूसरा अनूठा विषय-सोने पर सुहागा!
इस कथा में दृश्य-चित्रण के दो उत्तम नमूने भी देखने को मिले:
//शर्मा जी ने अपनी छड़ी घुमाते हुए कहा- //
//उनके साथी भी वहीं बैठ कर अनुलोम-विलोम प्राणायाम योग करने लगे।// हालाकि कइओं को यह पंक्ति अनावश्यक भी लग सकती है, लेकिन इसके दृश्य-चित्रण करने के कारण यह पंक्ति महत्वपूर्ण हो गई है.
दो बैटन पर आपका ध्यानाकर्षण चाहूँगा:
1. //"चौहान साहब! पहले तोलो, फिर बोलो! आप हमेशा नकारात्मक ही क्यों सोचते हो? // हलाकि मुहावरेदार भाषा लघुकथा का श्रृंगार मानी जाती है लेकिन यहाँ "पहले तोलो फिर बोलो" की आवश्यक्ता नहीं है.
2. जन्नत और दोज़ख का ज़िक्र का लघुकथा के प्रारंभ और अंत में प्रयोग थोड़ी सी बदमजगी पैदा कर रहा है.
बहरहाल, इस उत्कृष्ट प्रस्तुति हेतु ढेरों ढेर बधाई स्वीकार करें.
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