आदरणीय साथिओ,
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आदरणीय उसमानी जी, दिये हुए विषय पर संम-सामयिक ताना बान बुनते हुए बढ़िया रचना के लिए बहुत बहुत बधाई ।
मेरी इस प्रविष्टि पर समय देकर अपनी राय देने और प्रोत्साहन देने हेतु सादर हार्दिक धन्यवाद आदरणीय नीलम उपाध्याय जी।
रचना का 90℅ भाग मेरी ही परिकल्पना पर आधारित है, कृपया सुनी हुई 10℅ बात के कारण केवल तानाबाना के रूप में न देखिएगा। सादर
ज़रा देखकर बताएं कि थोड़ी सी काट-छील के बाद आपकी मूल रचना का सन्देश तो अक्षुण्ण रहा है न भाई उस्मानी जी?
"सर, वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए शहर के चौराहों पर महापुरुषों या स्वतंत्रता सेनानियों की मूर्तियां लगाने से कुछ नहीं होने वाला!" स्र्वेक्शंसमिति की आपात बैठक में एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने कुंवर जी को संबोधित करते हुए कहा।
"मैंने कहा था न! आम जनता मुख्य चौराहों पर काल मेरी मां, पिताजी, दादाजी या परदादा जी की मूर्ति ही चाहती है क्योंकि इस शहर पर हमारे पूर्वजों की बड़ी कृपा रही है!!" कुंवर जी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा। “इसलिए हर मूर्ति बहुत ही शानदार होनी चाहिए!"
"जी श्रीमान, अगर मूर्ति साधारण हुई तो कोई रूककर देखेगा भी नहीं।" एक कार्यकर्ता ने कहा!
"मगर ऐसा क्यों? इस अहसानफ़रामोशी का क्या कारण है?" दूसरे ने माहौल कुछ गर्म करते हुए कहा।
"माहौल ही ऐसा बन गया है! आजक देवी-देवताओं की मूर्तियाँ लगाने का ज्यादा चलन है!" उसने प्रत्युत्तर में सफाई पेश की।
"तो क्या देवी लक्ष्मी जी की मूर्ति मुख्य चौराहे पर लगवा दें!" कुंवर जी का स्वर ग़ुस्से और तंज से लबरेज़ लगा।
"लेकिन कुछ अल्पसंख्यक एतराज कर सकते हैं!" एक मुस्लिम कार्यकर्ता ने कुछ डरते हुये हिम्मत दिखाई।
"तो क्या यहां भी खाली-खाली सी कोई मस्जिद बनवा दें वोट-बैंक पक्का करने के लिए?" एक पंडितजी यकायक भड़के।
"देखो भाई, नई सदी में बदलाव की लहर में कोई श्रीराम या कृष्ण जी से तो ज़्यादा डरता नहीं! ज़रूरत तो है देवीमाता दुर्गा जी के नौ रूपों के नमन की!" एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कहा।
"तो क्या शहर के छोटे-बड़े नौ चौराहों पर महिला सशक्तिकरण हेतु वे मूर्तियां लगवायीं जायें इस बार?" कुंवरजी ने प्रश्नवाचक स्वर में अपनी निराशा ज़ाहिर करते हुए पूछा।
"सर जी, ग़ुस्ताख़ी मुआफ़! अगर मुख्य चौराहे पर एक शानदार मॉडर्न सा फ़व्वारा बनवाया जाये, तो?" एक प्रकृति-प्रेमी ने कहा।
"अच्छा सुझाव है, लेकिन आप भूल रहे हैं शहर का 'जल-संकट' और विवादित 'व्यवस्था-संकट'... !" कुंवर जी ने उसका प्रस्ताव लगभग निरस्त करते हुये कहा - "तनावग्रस्त लोग 'आर्ट ऑफ़ रिलैक्सिंग' से देर तक ट्रैफिक जाम कर सकते हैं!"
अंत में जारी "सामूहिक हस्ताक्षरित प्रस्ताव" पढ़ते हुए घोषणा की गई,
"उस मुख्य चौराहे पर तो या तो कुंवर जी की या उनके पिताजी की ही भव्य मूर्ति लगवायी जायेगी क्योंकि उनके दादा जी तो पब्लिक में अब प्रासंगिक नहीं रहे! शेष में हमारे मशहूर पार्षदों, विधायकों वग़ैरह की!"
लघुकथा संदर्भ में शब्दों की तनिक कटौती करते हुए बेहतरीन परिमार्जन हेतु तहे दिल से बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर साहिब। लेकिन मूल रचना पर हमेशा की तरह आपकी बिंदुवार प्रतिक्रिया की चाह पूरी नहीं हुई है!
हालांकि उपरोक्त परिमार्जन से कुछ बातें स
स्पष्ट हुई हैं, लेकिन यदि उन लगभग 500 शब्दों में ही रचना कहें, तो आपकी प्रतिक्रिया क्या होगी, जानना चाहता हूँ, ताज़ा व ज्वलंत विषय होने के कारण!
समझदार के लिए इशारा ही काफी होता है भाई उस्मानी जी.
आ.उस्मानी जी उम्दा कटाक्ष करती रचना किंतु "डर" उतना उभरकर नहीं आ पाया. कुछ विचार किजिएगा इसपर. फिर भी बधाई तो बनती ही हैं
शुक्रिया आदरणीया नयना (आरती) कनिटकर जी। दरअसल आज के नागरिक पुलिस, कोर्ट कचहरी के बाद अपने पार्षद/ विधायक/सांसद/ कुंवरों आदि से बहुत डरे हुए हैं, उन्हीं की ख़ुशामद में योजनाओं और अपना हित मानते हैं। यही बात यहां उभारने का प्रयास किया है। सादर।
परवरिश !
" क्या बात हैं ? तुम यहाँ कैसे ?"
" पापा जी , राजीव ने मुझसे हर रिश्ते से इन्कार कर दिया हैं। "
" आखिर क्या बात हो गई ? तुम दोनों में तो अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी ! " कहते हुए मनोहर जी अतीत में पहुँच गए
तीन वर्ष पूर्व बेटे राजीव ने विवाह से इन्कार करते हुए कहा कि " वह और उसकी मित्र साक्षी लिव इन रिलेशनशिप में हैं। और विवाह जैसी बातें हमारे लिए मायने नही रखती।"
वे बेटे को बार बार सामाजिक नियमो की दुहाई देते हुए समझाते रहे कि , " मैं अपना मुँह कहाँ छिपाऊँगा?लोग मेरी परवरिश को भी गाली देंगे।तुम उसी लड़की से विवाह कर लो।मैं सहर्ष उसे अपनी बहू स्वीकार कर लूंगा।" लेकिन वह नही माना और घर छोड़ कर चला गया इसमे साक्षी ने उसका पूरा साथ दिया था ।
" पापा जी, वह नही चाहता कि उस पर पाबन्दी लगे जिसके लिए मैं उसे पाँच महीने से समझा रही हूँ।" साक्षी के स्वर की गम्भीरता बढ़ती जा रही थी।
साक्षी को पढ़ने की कोशिश करते हुए मनोहर जी ने थमे हुए पानी मे पत्थर डालते हुए कहा , " यह तो तुम्हे पहले ही पता था।"
लगभग कराहते हुए वह कह उठी , " नही जानती थी ऐसा हो जाएगा। चौथे अबॉर्शन के लिए डॉ. ने मना कर दिया हैं और अब तो समय भी निकल चुका हैं।"
" ओह ! इसी बात का मुझे डर था।उसे समझाने की कोशिश करता हूँ। जानता हूँ इसमे मेरी हार ही होगी।"
" अब ... मैं ... " साक्षी की आवाज गले मे घुटकर ही रह गई। मनोहर जी कठोर होते हुए बीच मे ही बोल उठे :
" अब तुम यहीं रहो।तुम दोनो की गलती की सजा किसी और को भुगतने नही देने दूंगा।और ना ही अपनी परवरिश का मजाक चौराहों पर उड़ने दूंगा।"
मौलिक और अप्रकाशित
वर्तमान सामाजिक विसंगतियों के प
प्रतिफलन को दर्शाती बेहतरीन कथा आदरणीया अर्चना जी
शुक्रिया आदरणीय आपका
बदलती जीवन शैली को अपनाने से डर रहे समाज को आईना देने में कामयाब प्रयास
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