आदरणीय सदस्यगण
77वें तरही मुशायरे का संकलन प्रस्तुत है| बेबहर शेर कटे हुए हैं, जिन अल्फाज़ को गलत तरीके से बांधा गया है वो भी कटे हुए हैं और जिन मिसरों में कोई न कोई ऐब है वह इटैलिक हैं|
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Samar kabeer
तस्लीम कर चुके हैं ये एह्ल-ए-वतन तमाम
मेरी ग़ज़ल के सामने फीके हैं फ़न तमाम
आते नहीं हैं कर लिये मैंने जतन तमाम
रूठे हो तुम तो रूठ गये हैं सपन तमाम
सुनते हैं कोड़ी कोड़ी को मुहताज हैं वही
रहता था जिनके पाँव की ठोकर में धन तमाम
सीने पे उसने प्यार से जब हाथ रख दिया
काफ़ूर बन के उड़ गये रंज-ओ-मिहन तमाम
आती नहीं कहीं से अनलहक़ की अब सदा
सूने पड़े हैं शह्र के दार-ओ-रसन तमाम
आते नहीं ग़ज़ल में मज़ामीन इश्क़ के
जंग-ओ-जदल में डूब गये हैं सुख़न तमाम
ऐसा चढ़ा है मग़रिबी तहज़ीब का नशा
अस्लाफ़ के तो भूल गये हम चलन तमाम
उसने निक़ाब रुख़ से उठाया तो यूँ हुवा
"बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम"
इक छुप के आस्तीन में बैठा रहा "समर"
हमने कुचल तो डाले थे साँपों के फन तमाम
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मिथिलेश वामनकर
जैसे ही ये ख़बर हुई- बदला है धन तमाम
बदला वतन तमाम ये बदला चमन तमाम
बदली दिशा हवाओं ने, फिर तो गज़ब हुआ
बंजर ज़मीं से मिलने चले श्याम-घन तमाम
उसने सरापा देख लिया है लिबास....और
चिथड़ों में अब बदल रहा है पैरहन तमाम
जम्हूरियत के मायने कितने बदल गए
आवाज़ को कुचलती रही अंजुमन तमाम
जब आदमी ही आदमी का भक्त हो गया
चिंतित से हो गए हैं उधर देवजन तमाम
इस हाय, हाउ आर ने कल्चर बदल दिया
गुम हैं कहाँ न जाने वो आशीर्वचन तमाम
कितने वतनपरस्त हो? ख़ुद ही न तय करो
ये तय करेंगे मीडिया के निर्वचन तमाम
फिर क़र्ज़ को खड़ी हैं अमीरों की टोलियाँ
अपनी बचत जमा तो करें आमजन तमाम
दरिया में डूबने का तनिक वेट कीजिये
पहले करेंगे आइये हम आचमन तमाम
कातिल तेरी निग़ाह अज़ब चाल चल गई
“बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम”
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Gurpreet Singh
तुझ से मिलन की आरजू में पहने तन तमाम
बदले हैं मेरी रूह ने यूँ पैरहन तमाम ॥
माना ज़रा सा है तो परेशां वतन तमाम
बर्बाद हो गया है मगर काला धन तमाम ॥
दिल इश्क में दिमाग पे छाता चला गया
छिनता गया यूँ मुझ से मेरा बांकपन तमाम ॥
रुख़ से नकाब उठा के यूँ देखा हुज़ूर ने
"बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम" ॥
पहले ज़रा हंसा के रूलाएगा उम्र भर
देखे हुए हैं इश्क के हमने चलन तमाम ॥
बेखौफ हो के राह पे चलने के वास्ते
उस ने सफ़र में लूट लिए राहज़न तमाम ॥
उसने दवा ख़रीद ली ग़ज़लों को बेच कर
फ़नकार हों गरीब तो बिकते हैं फ़न तमाम ॥
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बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
माहोल ने बिगाड़ रखा आचरन तमाम,
सारा जहाँ दिखा है रहा खोटपन तमाम।
मेरा कसूर मैंने मोहब्बत की बारबार,
उनसे सदा ही गम मिले पर आदतन तमाम।
नादान दिल न जान सका आपकी अदा,
घायल किया दिखा के इसे बाँकपन तमाम।
कातिल अदा दिखाई थी बल खा के आपने,
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम।
सरकार ने जो बन्द किये नोट तो फसीं,
काली कमाई खा के पली सालमन तमाम।
दहशत में गुम हुआ है कहीं हौसला सभी,
आतंक में दबा है कहीं पर अमन तमाम।
जो देश हित में झोंक दे अपने को नौजवाँ,
अर्पण उन्हें मैं नित करूँ मेरे 'नमन' तमाम।
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Tasdiq Ahmed Khan
गुज़रे हैं रु बरूए नज़र गुल बदन तमाम ।
तुमसा मिला न कोई मिले जानेमन तमाम ।
सुनकर तुझे हुई न यूँ महफ़िल मगन तमाम ।
धड़का दिए ग़ज़ल ने तेरी मुर्दा मन तमाम ।
अब भी है वक़्त होश में आजा तू बागबाँ
तेरी ही बेरुख़ी का है मारा चमन तमाम ।
आया है कौन तूर सी सूरत लिए हुए
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम ।
फ़र्ज़ी निक़ाब चेहरे से तेरे हटेगा जब
खुल जाएंगे जो तूने किये हैं ग़बन तमाम ।
दहशत पसन्द की सदा की है मुख़ालफ़त
यूँ ही तो मेरे साथ नहीं हैं वतन तमाम ।
शम्सो क़मर से क्या भला उनकी मिसाल दूँ
दिलबर पे आके उनकी हुई हैं किरन तमाम ।
हम रहनुमाए कारवाँ आख़िर किसे चुनें
नज़रों के सामने हैं खड़े राह ज़न तमाम ।
दोनों ही जब नहीं हैं ख़तावार इश्क़ में
फिर कैसे हो गया है भला अपना पन तमाम ।
होगी कभी न ख़त्म जहाँ से वफ़ा मगर
इक दिन क़सम इलाही की होगा ज़मन तमाम ।
अंदाज़े शायरी तेरा तस्दीक़ है जुदा
बेहतर जहाँ में यूँ तो हैं अहले सुख़न तमाम ।
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Pankaj Kumar Mishra
तुमको बताना चाह रहा बातें मन तमाम
मोती सी झर रही है यहाँ अब घुटन तमाम
किसने ये नोट बन्दी का है फैसला लिया
किसके लिए भला वो सहे है चुभन तमाम
महकी हुई फ़िज़ा है नया कुछ खिला है क्या
उत्साह से हैं मस्त मगन काहें जन तमाम
जितनी भी थीं सजी हुई मुद्रा की महफ़िलें
बेहोश इक नज़र में हुईं अंजुमन तमाम
कहने लगे हैं लोग, मुझे भक्त आपका
मैंने भी आपके लिए लिक्खी भजन तमाम
अम्माँ तुम्हारी गोंद में ही मिल सका सुकूँ
बेकार सिद्ध हो ही गए हैं भवन तमाम
तेरी ही बस नहीं है ज़मीं सुन ले ए मनुज
तैंतीस फीसदी पे उगाएंगे वन तमाम
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डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
वे गा रहे है चैन से शीरीं-सुखन तमाम
रोती इधर नसीब पे हैं सीमतन तमाम
पत्थर पहाड़ तोड़ना खब्ते खयाल था
शीरीं से खेलते है नए कोहकन तमाम
आते नहीं वे वक्त पे अब काम यकीनन
कहने को हमख्याल कई हमसुखन तमाम
देखा नशीली आँख से उसने जो घूमकर
बेहोश इक नजर में हुयी अंजुमन तमाम
फैले हुए तमाम नज़ारे है खल्क में
अल्लाह का वजूद है ये बांकपन तमाम
नीला है आसमान जमीं सब्ज सार है
दुनिया के रंग हैं उसी के पैरहन तमाम
मंजिल किसी-किसी को है मिलती नसीब से
राहों में तो पड़े है यहाँ गालिबन तमाम
मुझसे नहीं जलाते बना ढंग से चिराग
देते है फूंक बस्तियां वे आदतन तमाम
वो ब्याज से चलाते रहे काम उम्र भर
खतरे में पड़ गया है जमा मूलधन तमाम
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Ashok Kumar Raktale
मुरझा गए हरे सभी उनके चमन तमाम
अब काढ के खड़े हैं सभी सर्प फन तमाम
ढोलक पे थाप भी न पड़ी और लुट गया
संदूक में छिपाया हुआ उनका धन तमाम
उनकी ही लूट के हुए सारे शिकार हैं
कचरे के ढेर पे ही गया बालपन तमाम
टेढ़ी निगाह जो करी सरकार ने मेरी
“बेहोश इक नजर में हुई अंजुमन तमाम”
उसने चली जो चाल के कायल हुए सभी
पश्चिम के भी बड़े बड़े विकसित वतन तमाम
उनको भी हो सजा तो मिले चैन अब हमें
है भर दिया जिन्होंने धुएँ से गगन तमाम
कोशिश यही रही है सदा से मेरी भगत
भारत के भाल पे खिलें प्यारे सुमन तमाम.
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सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'
ठोकर लगी तो ख़त्म हुआ बांकपन तमाम।
लो घर सँवारने को चले अब हमन तमाम ||
गुलदान में सजाते रहे कैक्टस मगर
माँ बाप के लिए ही हुए खत्म धन तमाम।
हमको किताब-ए-जीस्त समझ में न आ सकी
पढ़ने के हमने यूँ किये यारो जतन तमाम।।
उसके जमाल का ये असर देखिये जरा
''बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम''।।
मेले न झूले और न बैलों की जोड़ियाँ
अब गाँव ने भी शह्र के सीखे चलन तमाम।।
जुमलो से लोकतंत्र की बुनियाद हिल गयी
अब दे रहा है देश को देखो वचन तमाम।।
क्या, खाना और पीना ही कुल ज़िन्दगी है 'नाथ'
इसके लिए बनाते सभी है मिशन तमाम।।
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शिज्जु "शकूर"
खाली हुए शजर से यूँ दश्त ओ चमन तमाम
उघड़ा हो जैसे जिस्म फटे पैरहन तमाम
अब तो मुख़ालिफ़त की इजाज़त हमें कहाँ
ज़म्हूरियत के खत्म हुए हैं चलन तमाम
क़ातिल की सरपरस्ती में हालत ये हो गई
रहबर बने हुए हैं यहाँ राहज़न तमाम
मुर्दा समझ-के तुझको कहीं नोच ही न लें
मँडरा रहे हैं सर पे जो ज़ाग़ ओ ज़ग़न तमाम
बदले में हर विरोध के रोना है मस्लहत
होता है यूँ फ़रेब से ज़िक्र ए वतन तमाम
अल्लाह के क़रम से वहाँ बच गया जहाँ
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम
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गिरिराज भंडारी
दौलत की चाह ले गई हुब्बे वतन तमाम
गद्दार हो गये हैं सियासी रतन तमाम
इक चाँद आसमाँ पे चमकने जो लग गया
साजिश में राहू –केतू लगाये ग्रहन तमाम
हाँ ! रिज़्क की डगर में भी नेकी का रख खयाल
अब मुंतजर न हों कहीं दार–ओ-रसन तमाम
गमनाक हादिसे पे गज़ल किसने फिर कही
आँसू पिये से लग रहे हैं अब सुखन तमाम
वर्तुल है ज़िन्दगी की डगर, देख क्या हुआ
फेरा लगा, वहीं पे मिले गाम जन तमाम
बेरोक घर मे घुस गईं पश्चिम की सभ्यता
कमज़ोर तो नहीं थे हमारे जतन तमाम ?
मंज़िल मिली तो कौन करे याद अब सफ़र
दुश्वारियाँ . वो राह के कांटे , चुभन तमाम
गर इक नज़र ने की थी अता होश, क्या ग़लत ?
बेहोश इक नज़र मे हुई अंजुमन तमाम
रिश्ते जियें तो यूँ , कि ज्यूँ तन और मन जिये
डरता है मन तो कांपता जैसे है तन तमाम
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Mahendra Kumar
फूलों की ख़ुशबुओं संग फैली सड़न तमाम
लगता है अब की हो के रहेगा चमन तमाम
कहता था मेरी मुट्ठी में सूरज भी क़ैद होगा
सहरा में पहले चूर हुआ फिर बदन तमाम
वो चाँद मेरा आता है जो ईद के ही दिन
दुनिया के उसने सीख लिए हैं चलन तमाम
दरिया ही आग का नहीं, सहरा भी बर्फ का है
होती है कैसे देखिए दिल की लगन तमाम
लाज़िम है मेरा नाम कोई क्यों करेगा याद
रिसते हुए हैं घाव कई और घुटन तमाम
ऐसा न हो कि तोड़ दूँ हँसता हुआ ये फूल
होती है मुझको इन दिनों सबसे जलन तमाम
दे दाद होश में मैं रहा हूँ कि जिस जगह
"बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम"
सबको तमाम रंग मिले मेरे मेह्रबाँ के
सादे का सादा रह गया ये पैरहन तमाम
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munish tanha
देने लगी है देख मज़ा अब चुभन तमाम
अच्छा हुआ है देश में बदला मनन तमाम
करने लगोगे तुम भी मुहब्बत यकीं मुझे
तुमको पता हो हाल जरा जानेमन तमाम
जो बोलती हो हुस्न की तस्वीर सी लगे
जलने लगे हैं देख तुम्हेँ गुलबदन तमाम
दुनिया लगे है आज तो झूठी मुझे सनम
देते पता लगे हैं खड़े गोरकन तमाम
जादू लिए नजर में जरा आए क्या नजर
बेहोश इक नजर में हुई अंजुमन तमाम
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Ganga Dhar Sharma 'Hindustan'
मक्कार चोर धूर्त तथा बदचलन तमाम ।
क्यों कर न कीजिये अब जेरे कफ़न तमाम।।
दाढ़ी बचा रही क़िबला अंजुमन तमाम।
हाथों में थाम उस्तरे फिरते बुजन तमाम।।
घोड़ा खड़ा हुआ है हुजूर देखिये जनाब।
कस-कर के जीन बैठ गये हैं विजन तमाम।।
पागल हो बादशाह वजीरों की क्या मजाल।
खामोश ताकता हाँ बेचारा वतन तमाम।।
सूरत बड़ी भयानक आँखें थी ख़ौफ़नाक।
बेहोश इक नज़र में हुई अंजुमन तमाम।।
'हिन्दोस्ताँ' के नाम से जाना मैं जाऊँगा।
लिख्खा है भाग में मेरे सुन ले वतन तमाम।।
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ASHFAQ ALI (Gulshan khairabadi)
लेकर हज़ार पांच के कुछ नोट दिन तमाम
दर-दर भटकते फिरते हैं भाई-बहन तमाम
दामन हुआ है चाक कभी पैरहन तमाम
रिश्ता निभाया उनसे है करके जतन तमाम
जब से हुए हैं बंद यहां नोट दोस्तो
होने लगे है हर तरफ देखो निधन तमाम
नोटों की भाग दौड़ में कुछ शादियां टलीं
हम तो समझ रहे थे कि होंगे लगन तमाम
तुम सा हसीन कोई नहीं इस जहान में
वैसे तो और भी हैं हसीं जानेमन तमाम
नफरत करोगे मुझसे तो पछताओगे बहुत
शौहर मिलेंगे आप को मुझ को दुल्हन तमाम
रुख से नकाब उसने उठा दी है जिस घड़ी
"बेहोश एक नज़र में हुई अंजुमन तमाम"
ज़र था न कुछ ज़मीन ही 'गुलशन' तुम्हारे पास
फिर भी मिला है आपको गोर-ओ-कफ़न तमाम
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जिन गजलों में मतला या गिरह का शेर नहीं है उन्हें संकलन में जगह नहीं दी गई है इसके अतिरिक्त यदि किसी शायर की ग़ज़ल छूट गई हो अथवा मिसरों को चिन्हित करने में कोई गलती हुई हो तो अविलम्ब सूचित करें|
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जनाब राणा प्रताप सिंह साहिब, ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा अंक _77 के संकलन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं I
जनाब राणा प्रताप सिंह जी आदाब,'ओबीओ लाइव तरही मुशायरा अंक-77 के संकलन के लिये बधाई स्वीकार करें ।
जनाब अशफ़ाक़ अली के मतले के इस मिसरे:-
' लेकर हज़ार पांच के कुछ नोट दिन तमाम'
में काफ़िया ही नहीं है,इस मिसरे को क्यों नहीं काटा गया?
अब लगे हाथों तरही मिसरा अंक-98 भी निकालने की ज़हमत गवारा फरमाएँ ।
आदरणीय समर साहब आदाब , आपने सही फरमाया जनाब अशफाक अली साहब का मतला दोषपूर्ण है इसे इटैलिक कर दिया है| अगली तरही भी प्रबंधन समूह में पोस्ट कर दी है| जल्द ही उसकी भी घोषणा हो जाएगी|
जी,धन्यवाद ।
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